________________ 462. जैन धर्म और दर्शन .: प्रसंगवश मैं अपने पूर्व लेख की सुधारणा भी कर लेता हूँ। मैंने अपने पहले लेखों में अनेकान्त की व्याप्ति बतलाते हुए यह भाव सूचित किया है कि प्रधानतया अनेकान्त तात्त्विक प्रमेयों की ही चर्चा करता है / अलबत्ता इस समय मेरा वह भाव तकप्रधान ग्रंथों को लेकर ही था। पर इसके स्थान में . यह कहना अधिक उपयुक्त है कि तर्कयुग में अनेकान्त की विचारणा भले ही प्रधानतथा तत्त्विक प्रमेयों को लेकर हुई हो फिर भी अनेकान्त दृष्टि का उपयोग तो आचार के प्रदेश में आगमों में उतना ही हुश्रा है जितना कि तत्त्वज्ञान के प्रदेश में। तर्कयुगीन साहित्य में भी अनेक ऐसे अंथ बने हैं जिनमें प्रधानतया आचार के विषयों को लेकर ही अनेकान्त दृष्टि का उपयोग हुआ है। अतएव समुच्चय रूप से यही कहना चाहिए कि अनेकान्त दृष्टि आचार और विचार के प्रदेश में एक सी लागू की गई है। सिंघी जैन सिरीज के लिए यह सुयोग ही है कि जिसमें प्रसिद्ध दिगंबराचार्य की कृतियों का एक विशिष्ट दिगंबर विद्वान् के द्वारा ही सम्पादन हुआ है। यह भी एक आकस्मिक सुयोग नहीं है कि दिगंबराचार्य की अन्यत्र अलभ्य परंतु श्वेताम्बरीय-भाण्डार से ही प्राप्त ऐसी विरल कृति का प्रकाशन श्वेताम्बर परंपरा के प्रसिद्ध बाबू श्री बहादुरसिंह जी सिंघी के द्वारा स्थापित और प्रसिद्ध ऐतिहासिक मुनि श्री जिन विजय जी के द्वारा संचालित सिंघी जैन सिरीज में हो रहा है / जब मुझको विद्वान् मुनि श्री पुण्यविजय जी के द्वारा प्रमाणसंग्रह उपलब्ध हुआ तब यह पता न था कि वह अपने दूसरे दो सहोदरों के साथ इतना अधिक सुसजित होकर प्रसिद्ध होगा। ई० 1636] [ 'अकलंकमन्थत्रय' का प्राकथन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org