Book Title: Ahimsa Vishva Shanti Ki Aadhar Bhumi Author(s): Amarmuni Publisher: Z_Panna_Sammikkhaye_Dhammam_Part_01_003408_HR.pdf View full book textPage 3
________________ ने कहा था---'क्रोध को क्रोध से नहीं, क्षमा से जीतो। अहंकार को अहंकार से नहीं, विनय एवं नम्रता से जोतो। दंभ को दंभ से नहीं, सरलता और निश्छलता से जीतो। लोभ को लोभ से नहीं, सन्तोष से जीतो, उदारता से जीतो।" इसी प्रकार भय को अभय से, घृणा को प्रेम से जीतना चाहिए और विजय की यह सात्विक प्रक्रिया ही अहिंसा है। अहिंसा प्रकाश की अन्धकार पर, प्रेम की घृणा पर, सद्भाव की वैर पर, अच्छाई की बुराई पर विजय का अमोघ उद्घोष है। अहिंसा की दृष्टि : भगवान् महावीर कहते थे-वर हो, घृणा हो, दमन हो, उत्पीड़न हो-~-कुछ भी हो, अंततः सब लौट कर कर्ता के ही पास आते हैं। यह मत समझो कि बुराई वहीं रह जाएगी, तुम्हारे पास लौट कर नहीं आएगी। वह पाएगी, अवश्य आएगी, कृत कर्म निष्फल नहीं जाता है। कुएँ में की गई ध्वनि प्रतिध्वनि के रूप में वापस लौटती है। और भगवान् महावीर तो यह भी कहते थे कि वह और तु कोई दो नहीं ह । चैतन्य चैतन्य एक है। जिसे तू पीड़ा देता है, वह और कोई नहीं, तू ही तो है। भले आदमी! यदि तू दूसरे को सताता है, तो वह दूसरे को नहीं, अपने को ही सताता है। इस सम्बन्ध में प्राचारांग सूत्र में प्राज भी उनका एक प्रवचन उपलब्ध है-- "जिसे तू मारना चाहता है, वह तू ही है। जिसे तू शासित करना चाहता है, वह तू ही है। जिसे तू परिताप देना चाहता है, वह तू ही है।" --आचारांग, १, ५, ५ यह भगवान् महावीर की अद्वैत दृष्टि है, जो अहिंसा का मूलाधार है। जब तक किसी के प्रति पराएपन का भाव रहता है, तब तक मनुष्य परपीड़न से अपने को मुक्त नहीं कर सकता। सर्वत्र 'स्व' की अभेद दृष्टि ही मानव को अन्याय से, अत्याचार से बचा सकती है। उक्त अभेद एवं अद्वैत दृष्टि के आधार पर ही भगवान् महावीर ने परस्पर के प्राघातप्रत्याधातों से त्रस्त मानव जाति को अहिंसा के स्वर में शान्ति और सुख का सन्देश दिया था कि "किसी भी प्राणी को ... किसी भी सत्व को न मारना चाहिए, न उस पर अनुचित शासन करना चाहिए, न उसको एक दास (गुलाम) को तरह पराधीन बनाना चाहिए-उसको स्वतन्त्रता से वंचित नहीं करना चाहिए, न उसे परिताप देना चाहिए और न उसके प्रति किसी प्रकार का उपद्रव ही करना चाहिए। यह अहिंसा का वह महान् उद्घोष है, जो हृदय और शरीर के बीच, बाह्य प्रवृत्तिचक्र और अन्तरात्मा के बीच, स्वयं और आस-पास के साथियों के बीच एक सद्भावनापूर्ण व्यावहारिक सामंजस्य पैदा कर संकता है। मानव मानव के बीच बन्धुता.की मधुर रसधारा बहा सकता है। मानव ही क्यों, अहिंसा के विकास पथ पर निरन्तर प्रगति करते-करते एक दिन अखिल प्राणि जगत के साथ तादात्म्य स्थापित कर सकता है। अहिंसा क्या है ? समग्र चैतन्य के साथ बिना किसी भेदभाव के तादात्म्य स्थापित करना ही तो अहिंसा है। अहिंसा में तुच्छ-से-तुच्छ जीव के लिए भी बन्धुत्व का स्थान है। महावीर ने कहा था-जो व्यक्ति सर्वात्मभूत है, सब प्राणियों को अपने हृदय में बसाकर विश्वात्मा बन गया है, उसे विश्व का कोई भी पाप कभी स्पर्श नहीं कर सकता । दशवकालिक सूत्र में आज भी यह अमर वाणी सुरक्षित है-'सव्वभूयप्पभूयस्स... पावकम्मं न बंधई। १. दशवकालिक सूत्र, ८, ३६ १. आचारांग, १, ४, २. २६६ अहिंसा : विश्व-शान्ति की प्राधार-भूमि Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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