Book Title: Ahimsa Aparigraha ke Sandarbh me Nari ki Bhoomika Author(s): Saroj Jain Publisher: Z_Sajjanshreeji_Maharaj_Abhinandan_Granth_012028.pdf View full book textPage 2
________________ १७० अहिंसा-अपरिग्रह के सन्दर्भ में नारी की भूमिका : श्रीमती सरोज जैन होनी चाहिये कि वे अनुचित और असीम इच्छाओं पर स्वयं संयम रखें और घर के पुरुषों पर भी अनुचित प्रभाव न डालें। उत्तराध्ययन सूत्र की कपिल ब्राह्मण की कथा से हम सब परिचित हैं कि वह अपनी प्रेमिका की प्रेरणा से दो मासे सोने की प्राप्ति के फेर में करोड़ों स्वर्ण - मुद्राओं का लालची बन बैठा था। अतः महिलाओं को इच्छा और आवश्यकता इन दोनों के अन्तर को समझकर ही किसी वस्तु के प्रति आग्रह करना चाहिये । इसीलिए भगवान् महावीर ने अपरिग्रह को इच्छा-परिमाण व्रत भी कहा है । जैनशास्त्रों में परिग्रह को पाप बंध का मूल कारण कहा है । भगवती सूत्र में कहा गया है कि परिग्रह, क्रोध, मान, माया और लोभ इन सब पापों का केन्द्र है । प्रश्नव्याकरण सूत्र में भी स्पष्ट किया गया है कि परिग्रह के लिये ही लोग हिंसा करते हैं, झूठ बोलते हैं, बेईमानी करते हैं और विषयों का सेवन करते हैं । वर्तमान में भी हम परिग्रह के कारण इन घटनाओं को देखते रहते हैं। परिग्रह के मूल में वस्तुओं का प्रदर्शन आज सबसे बड़ा कारण है। आज हम अपने बैठक कक्ष में इतनी कीमती वस्तुएँ सजाने की होड़ में लगे हैं कि हमारा रसोईशृह खाली रहने लगा है। हम पहनने-ओढ़ने में इतना खर्च करने लगे हैं कि हमारे भीतरी गुण रिक्त हो गये हैं । इसी बाहरी प्रदर्शन के कारण ही हमारी समाज में दहेज प्रथा का कोढ़ व्याप्त हो गया है । प्रदर्शन के लिये ही हम अपनी बहुओं के प्राण लेने में भी नहीं हिचकते । इस सबको बन्द करने में महिलाओं को आगे आना होगा । यदि वे प्रदर्शन और सजावट की फिजूलखर्ची कम करदें तो समाज में परिग्रह का रोग नहीं फैल सकता। परिग्रह मिटेगा तो उससे होने वाले अन्य पाप अपने आप कम होने लगेंगे । अपरिग्रह के वातावरण को विकसित करने के लिये यह आवश्यक है कि महिलायें अधिक से अधिक जैनदर्शन की मूलभूत बातों से स्वयं परिचित हों और अपने सम्पर्क में आने वाली अन्य बहिनों को भी उनसे परिचित करायें । जैनधर्म अपरिग्रही होने के लिये कहता है, निर्धन होने के लिये नहीं । अतः गृहस्थ जीवन में रहते हुए हर व्यक्ति उचित साधनों द्वारा इतना धनार्जन कर सकता है कि जिससे वह अपने परिवार का भरण-पोषण कर सके । तथा अपनी जाति, धर्म और देश की उन्नति में सहयोग प्रदान कर सके । अतः महिलाओं का यह कर्तव्य है कि वे बचपन से ही अपने बच्चों को स्वावलम्बी बनायें। इससे यह परिणाम निकलेगा कि परिवार का हर सदस्य अपनी जीविका के लिये उचित साधन जुटा सकेगा। ऐसा होने पर परिवार के अकेले मुखिया को ही बेईमानी और अनुचित साधनों के सारे कुटम्ब के लिये धन नहीं जोड़ना पड़ेगा । जब हम अपने परिवार की पीढ़ियों की सुख-सुविधा को ध्यान में रखते हैं तब हमें जिस किसी प्रकार से धन जोड़ने और वस्तुओं के संग्रह करने के लिये विवश होना पड़ता है। यदि परिवार का हर सदस्य स्वावलम्बी हो, पुरुषार्थी हो, शिक्षित हो, तो अपने आप उनके लिए परिग्रह जोड़ने की जरूरत नहीं रहेगी। परिग्रह के दुष्परिणाम से भी महिलाओं को अच्छी तरह परिचित होना चाहिये। आज जो समाज में अनाप-सनाप परिग्रह एकत्र हुआ है उससे मुख्य रूप से तीन बुराइयों ने जन्म लिया है१-विषमता, २-विलासिता और ३-- क्रूरता । जब वस्तुओं का संग्रह एक स्थान पर हो जाता है तब दूसरे लोग उन वस्तुओं के अभाव में दुःखी हो जाते हैं । गरीबी-अमीरी, ऊँच-नीच आदि समस्याएँ इसी के परिणाम हैं। इस विषमता को रोकने के लिये जैनदर्शन में त्याग और दान के उपदेश दिये गये हैं। महिलाओं को चाहिये कि वे बिना किसी दिखावे के और घमन्ड के जरूरतमन्द व्यक्तियों की मदद के लिये दान और सेवा के कार्य में आगे आयें। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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