Book Title: Agamoddharak Krutisanodh
Author(s): Labhsagar
Publisher: Agamoddharak Granthmala

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Page 14
________________ जैनगीता। / चतुर्थोऽध्यायः / ( उपाध्यायाधिकारः ) नमेदुपाध्यायपदान्वितान् गुरू-नाचार्यपट्टस्य यदहरूपाः / कचिद् द्वये भिन्नतमाः कचिन्नो, पदद्वयं धारयतेऽपि कश्चित् // 11 // गच्छस्य तप्ति निखिलां विदध्यु-राचार्यनियुक्तिधरा यतोऽमी / प्रवर्तकं सस्थविरं गणाव-च्छेदं गणिं चापि नियोजयन्ति // 2 // वन्द्याः मुनीन्द्रा इव साधुवयः-पर्यायतः स्युर्यदि वा विहीनाः / पञ्चातिशेषा अपि सन्त्यमीषां, गणेशवत् सर्वकरा गणस्य // 3 // स्थाप्येत संस्था कुशलैषिणा विदा, साध्यं च तस्या रुचिकृन्नराणाम् / ख्याप्येत वित्तं न तथापि तस्याः, फलं तकच्चालनमन्तरेण // 4 // सञ्चालकानां मतिवाक्रियाणां, सौन्दर्यसिद्धथा फलमाप्यतेऽस्याः / अशिक्षिताभ्यस्तकला न तस्याः, फलं लभेयुः स्पृहयालवोऽपि // 5 // छात्रा यथा साधुवरा जिनेशा-श्रितेऽत्र धर्मे वरवाचकास्ते / सूत्रं क्रियायुक्तमुदारभावाः, सदार्पयन्तीष्टफलाय तानिव // 6 // नृपा यथा कोशसमृद्धभावा, भ्राजन्त आत्माऽन्यविभासनोद्यताः / अङ्गादिसूत्रासमरत्नधारी, जैनाऽन्यविज्ञेषु स वाचकः स्यात् // 7 // विद्याविनीतः सततं स्वविद्या, विना प्रमादं परिशीलते यः। . स्वाध्यायलीनो गतमत्तभावः, स्वध्येत्यसौ वाचक आगमेषु // 8 // दुःखानि सौख्येन युतानि विज्ञ, आख्याय सुस्थो भवतीह तद्वद् . मुनीश्वरेभ्यो जिनशास्त्रसङ्घ, समर्प्य तुष्टिवरवाचकस्य // 9 // एकादशाऽऽचारमुखान्युपाङ्गौ-पपातिकादीनि दश द्वये च / पट्छेदसूत्री दश कीर्णकानि, मूलं चतुष्कं धरतीद्धबुद्धिः / / 10 / /

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