Book Title: Agamik Shabdavali aur uski Paribhashikta Author(s): Mahendrasagar Prachandiya Publisher: Z_Mohanlal_Banthiya_Smruti_Granth_012059.pdf View full book textPage 6
________________ प्रतिक्रमण को पांच भेदों में विभक्त किया गया है । यथा दैवसिक रात्रिक पाक्षिक ४) चतुर्मासिक सांवत्सरिक ५) दिनभर में हुये दोषों का अन्त में प्रतिक्रमण अर्थात चिन्तन करना दैवसिक प्रतिक्रमण कहलाता है । रात्रिकाल में दोषों का प्रातः चिन्तवन करना वस्तुतः रात्रिका, प्रतिक्रमण है । पन्द्रह दिनो की अवधि में बन पड़े दोषो का चिन्तन करना पाक्षिक और चार महीनों के एक साथ अवधिमे बने दोषों का चिन्तन चातुर्मासिक प्रतिक्रमण कहलाता है । इसी प्रकार वर्ष भर के दोषों का प्रतिक्रमण करना कहलाता है सांवत्सरिक । दर्शन-दिग्दर्शन प्रतिक्रमण का आधुनिक प्रयोग डायरी लेखन है । महात्मा गांधी इसी प्रकार के प्रयोग के पक्षधर थे । समिति - सम तथा इति : के सुयोग से समिति शब्द का गठन होता है । सम से तात्पर्य है एकीभावेन और इतिः का अभिप्रेत है प्रवृत्ति । इस प्रकार प्राणातिपात प्रभृति पापों से निवृत्ति रहने के लिए प्रशस्त एकाग्रता पूर्वक की जाने वाली आगमोक्त सम्यक प्रवृत्ति का नाम है समिति । सार और संक्षेप में समिति को परिभाषित करते हुये कहा जा सकता है - विवेक युक्त प्रवृत्ति का नाम है - समिति । श्रमण और श्रावक की सुरक्षा और विशुद्धता के लिए समिति और गुप्ति का विधान है। गुप्ति का अर्थ है गोपन - गोपनं गुप्तिः मन, वचन और काय के योगों का जो प्रशस्त निग्रह है वस्तुतः वह है गुप्ति | समिति है प्रवृत्ति मुखी और गुप्ति है निवृत्तिमुखी । इन दोनो का योग अष्ट प्रवचनमाता का रूप धारण करती हैं। ये प्रवचन माताएं वस्तुतः चारित्र रूपा हैं । श्रमण और श्रावक के संकल्प रक्षार्थ पांच प्रकारकी समितियों का सुयोग सर्वथा सार्थक है । Jain Education International 2010_03 ४ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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