Book Title: Agam me Karm Bandhke Karan Author(s): Bansidhar Pandit Publisher: Z_Bansidhar_Pandit_Abhinandan_Granth_012047.pdf View full book textPage 2
________________ १२६ : सरस्वती-वरदपुत्र पं० बंशोधर व्याकरणाचार्य अभिनन्दन-ग्रन्य और नरकायु इन सोलह प्रकृतियोंका बन्ध योगकी अनुकूलताके कारण प्रथम गुणस्थानमें ही सम्भव है, योगकी प्रतिकूलताके कारण द्वितीय आदि गुणस्थानोंमें सम्भव नहीं है । द्वितीय गुणस्थानमें बन्धयोग्य १२५ प्रकृतियों मेंसे अनन्तानबन्धी क्रोध, मान, माया और लोभ, द्धि, निद्रा-निद्रा. प्रचला-प्रचला. दर्भग. दःस्वर. अनादेय. न्यग्रोधपरिमण्डल, स्वाति, कुब्जक और बामनसंस्थान, वज्रनाराच, नाराच, अर्धनाराच और कीलितसंहनन, अप्रशस्त बिहायोगति , स्त्रीवेद, नीचगोत्र, तिर्यञ्चगति, तिर्यग्गत्यानपूर्वी. तिर्यगाय और उद्योत इन पच्चीस प्रकृतियोंका बन्ध योगकी प्रतिकूलताके कारण द्वितीय गुणस्थान तक हो सम्भव है, योगकी प्रतिकूलताके कारण तृतीय आदि गुणस्थानोंमें सम्भव नहीं है । तथा योगकी प्रतिकूलताके कारण आयुर्बन्ध न होनेसे मनुष्यायु और देवायुका भी बन्ध तृतीय गुणस्थानमें सम्भव नहीं है। अतः तृतीय गुणस्थानमें ९८ प्रकृतियोंका ही बन्ध सम्भव है । यतः तृतीय गुणस्थानमें बन्धयोग्य ९८ प्रकृतियोंका योगको अनुकूलताके कारण चतुर्थ गुणस्थानमें भी बन्ध सम्भव है । तथा योगको अनुकूलताके कारण तीर्थंकर प्रकृति, मनुष्यायु और देवायुका भी बन्ध चतुर्थगुणस्थानमें सम्भव है । अतः चतुर्थगुणस्थानमें १०१ प्रकृतियाँ बन्धयोग सिद्ध होती हैं । चतुर्थ गुणस्थानमे बन्धयोग प्रकृतियाँ १०१ मानी गयीं हैं। इनमें अप्रत्याख्यानावरण क्रोध, मान, माया और लोभ, वज्रर्षभनाराचसंहनन, औदारिकशरीर, औदारिकबन्धन, औदारिकसंघात और औदारिकअङ्गोपांग तथा मनुष्यगति, मनुष्यगत्यानुपूर्वी और मनुष्याय इन बारह १२ प्रकृतियोंका बन्ध योगकी अनुकूलताके कारण चतुर्थ गुणस्थानतक ही सम्भव है, योगकी प्रतिकूलताके कारण पंचम आदि गुणस्थानोंमें संभव नहीं है । अतः पंचम गुणस्थानमें बन्धयोग्य प्रकृतियाँ ८९ सिद्ध होती है। पंचमगुणस्थानमें बन्धयोग्य इन ८९ प्रकृतियोंमेंसे योगकी प्रतिकुलताके कारण प्रत्याख्यानावरण क्रोध, मान, माया और लोभ इन चार प्रकृतियोंका षष्ठगुणस्थानमें बन्ध सम्भव नहीं है, अतः इस षष्ठगुणस्थानमें । योगकी अनुकूलताके कारण ८५ प्रकृतियोंका ही बन्ध सम्भव है। षष्ठ गुणस्थानमें बन्धयोग्य पचासी ८५ प्रकृतियोंमेंसे अस्थिर, अशभ, असातावेदनीय, अयश कीति, अरति और शोक इन छह प्रकृतियोंका बन्ध योगकी प्रतिकूलताके कारण सप्तम गुणस्थानमें सम्भव नहीं है । साथ ही योगकी अनुकूलताके कारण आहारकशरीर, आहारबन्धन, आहारकसंघात और आहारकअंगोपांगका बन्ध सम्भव है, अतः सप्तम गुणस्थानमें बन्धयोग्य प्रकृतियाँ ८३ सिद्ध होती हैं। सप्तम गुणस्थानमें बन्धयोग्य ८३ प्रकृतियोंमेंसे योगकी प्रतिकुलताके कारण देवायुका बन्ध अष्टम गुणस्थानमें सम्भव नहीं हैं, अतः अष्टम गुणस्थानमें वियासी ८२ प्रकृतियोंका ही बन्ध सम्भव है । अष्टम गुणस्थानमें बन्धयोग्य इन वियासी ८२ प्रकृतियोंमेंसे योगकी प्रतिकूलताके कारण सर्वप्रथम निद्रा और प्रचला इन दो प्रकृतियोंका बन्ध समाप्त होता है। इसके पश्चात् तीर्थंकर, निर्माण, प्रशस्तविहायोगति, पंचेन्द्रियजाति, तैजसशरीर, तेजसबन्धन और तैजससंघात, कार्मणशरीर, कार्मणबन्धन और कार्मणसंघात, आहारकशरीर, आहारकबन्धन, आहारक संघात और आहारकअंगोपांग, वैक्रियिकशरीर, वैक्रियिकबन्धन, वैक्रियिकसंघात और वैक्रियिक अंगोपांग, समचतुरस्रसंस्थान, देवगति, देवगत्यानुपूर्वी, स्पर्शनामकर्मके आठ भेद (हल्का, भारी, रूखा, चिकना, कोमल, कठोर, ठंडा, और गरम) रसनामकर्म के पाँच भेद (खट्टा, मोठा, कडुआ, कसायला और चरपरा), गंधनामकर्मके दो भेद (सुगन्ध और दुर्गन्ध) वर्णनामकमके पाँच भेद (काला, पीला, नीला, लाल और सफेद), अगरुलघु, उपघात, परघात, उच्छ्वास, त्रस, बादर, पर्याप्त, प्रत्येक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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