Book Title: Agam me Karm Bandhke Karan
Author(s): Bansidhar Pandit
Publisher: Z_Bansidhar_Pandit_Abhinandan_Granth_012047.pdf
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगममें कर्मबन्धके कारण समयसारमें बन्धके कारणोंका उल्लेख : सामण्णपच्चया खलु चउरो भण्णंति बंधकत्तारो। मिच्छत्तं अविरमणं कसायजोगा य बोद्धव्वा ॥१०९॥ तेसिं पुणोवि य इमो भणिदो भेदो दु तेरस वियप्पो । मिच्छादिट्ठी आदी जाव सजोगिस्स चरमंतं ॥११०॥ इन दो गाथाओंमें आचार्य कुन्दकुन्दने सामान्यतया मिथ्यात्व, अविरति, कषाय और योग इन चारके रूपमें बन्धके कारणोंका उल्लेख किया है। तथा विस्तारसे मिथ्यादृष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि, सम्यगमिथ्यादृष्टि, अविरतसम्यग्दृष्टि, देशविरत, प्रमत्तविरत, अप्रमत्तविरत, अपूर्वकरण, अनिवृत्तिकरण, सूक्ष्मलोभ , उपशान्तमोह, क्षीणमोह और मयोगकेवली इन तेरह गुणस्थानोंके रूपमें कथन किया है। इसका आशय यह है कि मिथ्यात्वादि चार बन्धके साधकतम कारण हैं और मिथ्यादृष्टि आदि तेरह गुणस्थान बन्धके अवलम्बन कारण हैं । अर्थात जीवोंके जो कर्मबन्ध होता है वह मिथ्यात्व, अविरति, कषाय और योगके द्वारा होता है तथा वह तेरह गुणस्थानोंमें स्थित जीवोंमें यथायोग्य रूपमें होता है । बन्धका मूलकारण योग जीवमें कायवर्गणा, वचनवर्गणा और मनोवर्गणाके आधारपर जो हलन-चलन रूप क्रियाव्यापार होता है वह योग है । वह योग जीवकी क्रियावती शक्तिका परिणाम है और प्रथम गुणस्थानसे लेकर तेरहवें गुणस्थान तकके जीवोंमें प्रतिक्षण होता रहता है। वह एकेन्द्रिय जीवोंमें कायवर्गणाके अवलंबनसे, द्वीन्द्रियसे लेकर असंज्ञी पंचेन्द्रिय तकके जीवोंमें कायवर्गणा और वचनवर्गणाके अवलम्बनसे तथा संज्ञी पंचेन्द्रिय जीवोंमें काय, वचन और मन इन तोनों वर्गणाओंके अवलम्बनसे पृथक-पृथक होता है। योगका कार्य लोकमें व्याप्त ज्ञानावरणीय आदि आठ प्रकारकी कर्मवर्गणाओंका उक्त सभी योगोंके आधारपर आस्रव होकर वे कर्मवर्गणाएँ, जो जीवके साथ सम्बद्ध होती है उसे प्रकृतिबन्ध कहते हैं और प्रत्येक कर्मवर्गणा जितने परिमाणमें जीवके साथ बद्ध होती है उसे प्रदेशबन्ध कहते है । इस तरह योगका कार्य प्रकृतिबन्ध और प्रदेशबन्ध निर्णीत है। गणस्थानोंमें योगोंकी विशेषता आठों कर्मोकी आगममें १४८ प्रकृतियाँ बतलायी गयी हैं। उनमेंसे सम्यग्मिथ्यात्व और सम्यक्त्व प्रकृति इन दोको छोड़कर शेष १४६ प्रकृतियाँ ही बन्धयोग्य मानी गयी हैं। इनमेंसे प्रथम, द्वितीय और तृतीय गुणस्थानोंमें योगकी प्रतिकूलताके कारण नामकर्मकी तीर्थकर, आहारकशरीर, आहारकबन्धन, आहारकसंघात और आहारकआंगोपांग इन पाँच प्रकृतियोंका बन्ध नहीं होता। फलतः प्रथम गुणस्थानमें १४१ प्रकृतियाँ ही बन्धयोग्य मानी गयी हैं। मिथ्यात्वगुणस्थानमें बन्धयोग्य उन १४१ प्रकृतियोंमेंसे द्वितीय गुणस्थानमें १२५ प्रकृतियाँ ही बन्ध योग्य हैं, क्योंकि मिथ्यात्व, हुण्डकसंस्थान, नपुंसकवेद, असंप्राप्त सृपाटिकासंहनन, एकेन्द्रियजाति, स्थावर, आतप, सूक्ष्म, अपर्याप्त, साधारण, विकलत्रय (द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय), नरकगति, नरकगत्यानुपूर्वी Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२६ : सरस्वती-वरदपुत्र पं० बंशोधर व्याकरणाचार्य अभिनन्दन-ग्रन्य और नरकायु इन सोलह प्रकृतियोंका बन्ध योगकी अनुकूलताके कारण प्रथम गुणस्थानमें ही सम्भव है, योगकी प्रतिकूलताके कारण द्वितीय आदि गुणस्थानोंमें सम्भव नहीं है । द्वितीय गुणस्थानमें बन्धयोग्य १२५ प्रकृतियों मेंसे अनन्तानबन्धी क्रोध, मान, माया और लोभ, द्धि, निद्रा-निद्रा. प्रचला-प्रचला. दर्भग. दःस्वर. अनादेय. न्यग्रोधपरिमण्डल, स्वाति, कुब्जक और बामनसंस्थान, वज्रनाराच, नाराच, अर्धनाराच और कीलितसंहनन, अप्रशस्त बिहायोगति , स्त्रीवेद, नीचगोत्र, तिर्यञ्चगति, तिर्यग्गत्यानपूर्वी. तिर्यगाय और उद्योत इन पच्चीस प्रकृतियोंका बन्ध योगकी प्रतिकूलताके कारण द्वितीय गुणस्थान तक हो सम्भव है, योगकी प्रतिकूलताके कारण तृतीय आदि गुणस्थानोंमें सम्भव नहीं है । तथा योगकी प्रतिकूलताके कारण आयुर्बन्ध न होनेसे मनुष्यायु और देवायुका भी बन्ध तृतीय गुणस्थानमें सम्भव नहीं है। अतः तृतीय गुणस्थानमें ९८ प्रकृतियोंका ही बन्ध सम्भव है । यतः तृतीय गुणस्थानमें बन्धयोग्य ९८ प्रकृतियोंका योगको अनुकूलताके कारण चतुर्थ गुणस्थानमें भी बन्ध सम्भव है । तथा योगको अनुकूलताके कारण तीर्थंकर प्रकृति, मनुष्यायु और देवायुका भी बन्ध चतुर्थगुणस्थानमें सम्भव है । अतः चतुर्थगुणस्थानमें १०१ प्रकृतियाँ बन्धयोग सिद्ध होती हैं । चतुर्थ गुणस्थानमे बन्धयोग प्रकृतियाँ १०१ मानी गयीं हैं। इनमें अप्रत्याख्यानावरण क्रोध, मान, माया और लोभ, वज्रर्षभनाराचसंहनन, औदारिकशरीर, औदारिकबन्धन, औदारिकसंघात और औदारिकअङ्गोपांग तथा मनुष्यगति, मनुष्यगत्यानुपूर्वी और मनुष्याय इन बारह १२ प्रकृतियोंका बन्ध योगकी अनुकूलताके कारण चतुर्थ गुणस्थानतक ही सम्भव है, योगकी प्रतिकूलताके कारण पंचम आदि गुणस्थानोंमें संभव नहीं है । अतः पंचम गुणस्थानमें बन्धयोग्य प्रकृतियाँ ८९ सिद्ध होती है। पंचमगुणस्थानमें बन्धयोग्य इन ८९ प्रकृतियोंमेंसे योगकी प्रतिकुलताके कारण प्रत्याख्यानावरण क्रोध, मान, माया और लोभ इन चार प्रकृतियोंका षष्ठगुणस्थानमें बन्ध सम्भव नहीं है, अतः इस षष्ठगुणस्थानमें । योगकी अनुकूलताके कारण ८५ प्रकृतियोंका ही बन्ध सम्भव है। षष्ठ गुणस्थानमें बन्धयोग्य पचासी ८५ प्रकृतियोंमेंसे अस्थिर, अशभ, असातावेदनीय, अयश कीति, अरति और शोक इन छह प्रकृतियोंका बन्ध योगकी प्रतिकूलताके कारण सप्तम गुणस्थानमें सम्भव नहीं है । साथ ही योगकी अनुकूलताके कारण आहारकशरीर, आहारबन्धन, आहारकसंघात और आहारकअंगोपांगका बन्ध सम्भव है, अतः सप्तम गुणस्थानमें बन्धयोग्य प्रकृतियाँ ८३ सिद्ध होती हैं। सप्तम गुणस्थानमें बन्धयोग्य ८३ प्रकृतियोंमेंसे योगकी प्रतिकुलताके कारण देवायुका बन्ध अष्टम गुणस्थानमें सम्भव नहीं हैं, अतः अष्टम गुणस्थानमें वियासी ८२ प्रकृतियोंका ही बन्ध सम्भव है । अष्टम गुणस्थानमें बन्धयोग्य इन वियासी ८२ प्रकृतियोंमेंसे योगकी प्रतिकूलताके कारण सर्वप्रथम निद्रा और प्रचला इन दो प्रकृतियोंका बन्ध समाप्त होता है। इसके पश्चात् तीर्थंकर, निर्माण, प्रशस्तविहायोगति, पंचेन्द्रियजाति, तैजसशरीर, तेजसबन्धन और तैजससंघात, कार्मणशरीर, कार्मणबन्धन और कार्मणसंघात, आहारकशरीर, आहारकबन्धन, आहारक संघात और आहारकअंगोपांग, वैक्रियिकशरीर, वैक्रियिकबन्धन, वैक्रियिकसंघात और वैक्रियिक अंगोपांग, समचतुरस्रसंस्थान, देवगति, देवगत्यानुपूर्वी, स्पर्शनामकर्मके आठ भेद (हल्का, भारी, रूखा, चिकना, कोमल, कठोर, ठंडा, और गरम) रसनामकर्म के पाँच भेद (खट्टा, मोठा, कडुआ, कसायला और चरपरा), गंधनामकर्मके दो भेद (सुगन्ध और दुर्गन्ध) वर्णनामकमके पाँच भेद (काला, पीला, नीला, लाल और सफेद), अगरुलघु, उपघात, परघात, उच्छ्वास, त्रस, बादर, पर्याप्त, प्रत्येक Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शरीर, स्थिर, शुभ, सुभग, सुस्वर और आदेय इन चौवन (५४ ) अन्त में हास्य, रति, भय और जुगुप्सा इन चार (४) प्रकृतियों का गुणस्थान में बन्धयोग्य प्रकृतियाँ बाईस (२२) रह जाती हैं । ३ / धर्म और सिद्धान्त : १२७ प्रकृतियोंका बन्ध समाप्त होता है और बन्धविच्छेद होता है । इस तरह नवम नवम गुणस्थान में बन्धयोग्य बाईस (२२) प्रकृतियोंमेंसे योगकी प्रतिकूलता के कारण क्रमसे पुरुषवेद, संज्वलन क्रोध, मान, माया और लोभ इन पाँच प्रकृतियोंका बन्ध समाप्त हो जानेसे दशम गुणस्थानमें योगकी अनुकूलता के कारण बन्धयोग्य प्रकृतियाँ १७ सिद्ध होती हैं । दशम गुणस्थानमें बन्धयोग्य १७ प्रकृतियोंमेंसे योगकी प्रतिकूलताके कारण ज्ञानावरणकर्मकी ५ दर्शनावरण कर्मको ४, अन्तरायकर्मकी ५ तथा उच्चगोत्र और यशःकीर्ति इन १६ प्रकृतियोंका बन्धाभाव होनेपर ११ वें गुणस्थान उपशान्तमोह, १२वें गुणस्थान क्षीणमोह और १३ वें 'गुणस्थान सयोगकेवली में योगकी अनुकूलताके कारण एक मात्र सातावेदनीय प्रकृतिका बन्ध होता है। तथा १४वें गुणस्थान में योगका सर्वथा अभाव हो जाने के कारण कर्मबन्धका सर्वथा अभाव ही है । इस विवेचनका आशय यह है कि जिस प्रकार चुम्बक पत्थर में विद्यमान आकर्षणशक्तिके आधारपर आकृष्ट होकर लोहेकी सुई चुम्बक पत्थर के साथ सम्बद्ध हो जाती है उसी प्रकार जीवमें विद्यमान योगकी अनुकूलता के आधारपर कर्मप्रकृतियोंका आसव होकर वे कर्मप्रकृतियां जीवके साथ बन्धको प्राप्त होती हैं । parent अनुकूलता और प्रतिकूलताका आधार : कर्म प्रकृतियों के बन्ध में योगकी अनुकूलताको जो कारण माना गया है उसका आधार मोहनीयकर्म के उदयके साथ अन्य कारणसामग्री है। और उनके बन्धाभाव में योगकी प्रतिकूलताको जो कारण माना गया है। उसका आधार मोहनीय कर्म के उपशम, क्षयोपशम या क्षयके साथ अन्य कारणसामग्री है । गोम्मटसार कर्मकाण्ड और इस लेखका समन्वय यहाँ यह ज्ञातव्य है कि इस लेखमें बन्धयोग्य प्रकृतियाँ १४६ कही गयी हैं, जबकि गोम्मटसार कर्म - htosमें बन्धयोग्य प्रकृतियाँ १२० बतलाई गयी हैं । इन दोनों कथनोंका समन्वय इसप्रकार करना चाहिए कि गोम्मट्टसार कर्मकाण्ड में जो १२० प्रकृतियाँ बन्धयोग्य बतलाई हैं उनमें बन्धकी समानताके कारण ८ स्पर्शो को स्पर्श सामान्य में, ५ रसोंको रससामान्यमें २ गंधोंको गन्धसामान्यमें और ५ वर्णोंको वर्णसामान्य में अन्तर्भूत कर लिया गया है । तथा एक साथ बन्ध होनेके कारण औदारिकशरीरमें औदारिकबंधन और औदारिक संघातको वैक्रियिकशरोर में वैक्रियिकबंधन और वैक्रियिकसंघातको आहारकशरीरमें आहारकबन्धन और आहारक संघातको, तैजसशरीरमें तैजसबन्धन और तैजससंघातको तथा कार्मणशरीर में कार्मणबन्धन और कार्मणसंघातको समाहित कर लिया गया है । इसलिये बद्ध्यमान प्रकृतियाँ वास्तव में १४६ होनेपर भी गोम्मटसार कर्मकाण्ड में उक्त प्रकार अभेद से (अभेद विवक्षासे) १२० कही गयी हैं । फलतः वास्तविकता के आधारपर इस लेख में बन्धयोग्य प्रकृतियोंकी संख्या १४६ बतलाना गोम्मटसार कर्मकाण्डके कथनके विरुद्ध नहीं है । इसीप्रकार प्रकृतियों के बन्धन के समान अबन्ध और बन्धव्युच्छित्तिको व्यवस्था में गोम्मटसार कर्मकाण्डके कथनके साथ इस लेखमें पाये जानेवाले संख्याभेदका भी समन्वय कर लेना चाहिए । यह भी यहाँ ज्ञातव्य है कि यद्यपि जीव मिथ्यात्वकर्मके उदयमें मिथ्यादृष्टिगुणस्थानवर्ती कहा गया है और मिथ्यात्वगुणस्थान में बन्धयोग्य १४१ प्रकृतियोंमें १६ प्रकृतियाँ ऐसी हैं, जिनका बन्ध मिथ्यात्वगुणस्थान में ही होता है, अन्य गुणस्थानोंमें नहीं, परन्तु यह नियम नहीं है कि उन १६ प्रकृतियोंका बन्ध इस गुणस्थान में Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२८ : सरस्वती - वरवपुत्र पं० बंशीधर व्याकरणाचार्य अभिनन्दन ग्रन्थ प्रत्येक जीवके होता ही है, क्योंकि ऐसा नियम स्वीकार करनेपर नरकायुका बन्ध प्रत्येक मिथ्यात्वगुणस्थानवर्ती जीवके होने का प्रसंग आयेगा, जो कर्मसिद्धान्तके विरुद्ध है । यतः कर्मसिद्धान्त में इस गुणस्थानमें चारों आयुओंका बन्ध स्वीकार किया गया है । साथ ही यह भी कर्मसिद्धान्त में माना गया है कि एक आयुका बन्ध होनेपर जीवके दूसरी आयुका बन्ध उसी भवमें नहीं होता । तथा प्रथमगुणस्थानवर्ती, देव और नारकीको नरक आयुका बन्ध कदापि नहीं होता है । दूसरी बात यह है कि मिथ्यादृष्टि गुणस्थानवर्ती जीवमें मिथ्यात्व आदि १६ प्रकृतियोंका बन्ध तभी तक होता है जब तक वह व्यवहारमिथ्यादर्शन ( अतत्त्वश्रद्धान) और व्यवहार मिथ्याज्ञान ( अतत्त्वज्ञान ) पूर्वक मिथ्याआचरण करता है और जीव यदि व्यवहारसम्यग्दर्शन (तत्त्व श्रद्धान) और व्यवहारसम्यग्ज्ञान (तत्त्वज्ञान ) पूर्वक मिथ्याआचरणको छोड़कर अविरतिरूप या एकदेशअविरतिरूप या महाव्रतों में प्रवृत्तिरूप आचरण करने लगता है तो उस समय उसके मिथ्यात्व आदि १६ प्रकृतियोंका बन्ध नहीं होता । यदि ऐसा न माना जाये तो समयसार गाथा २७५ के अनुसार अभव्य जीव तत्त्वश्रद्धानी और तत्त्वज्ञानी होकर जो अविरतिरूप या एकदेश अविरतिरूप या महाव्रतोंमें प्रवृत्तिरूप आचरण करता है और उसके आधारपर क्षयोपशम, विशुद्धि, देशना और प्रायोग्य लब्धियोंको भी प्राप्त कर लेता है, यह जो आगमका कथन है वह अयुक्त हो जायेगा | जिसका परिणाम यह होगा कि ऐसा अभव्य जीव नवम ग्रैवेयक तक जन्म लेकर स्वर्ग-सुखका उपभोग करता है, यह कथन भी अयुक्त हो जायेगा । इससे यह निर्णीत होता है कि मिथ्यात्वकर्मके उदयसे जीव मिथ्यात्वगुणस्थानवर्ती तो है, परन्तु जब तक मिथ्यादर्शन और मिथ्याज्ञानपूर्वक मिथ्या आचरण करता रहता है तभीतक उसके मिथ्यात्व आदि १६ प्रकृतियोंका बन्ध होता है और यदि वह जीव व्यवहारसम्यग्दर्शन और व्यवहारसम्यग्ज्ञानपूर्वक अविरतिरूप या एकदेश अविरतिरूप या महाव्रतों में प्रवृत्तिरूप आचरण करने लगता है तो उस समय वह मिध्यात्वकर्मका उदय रहते हुए भी मिथ्यात्व आदि सोलह प्रकृतियोंका बन्ध नहीं करता है, भले ही वह जीव अभव्य ही क्यों हो, क्योंकि बन्धका आधार चरणानुयोगकी पद्धति है, करणानुयोगकी पद्धति नहीं । तात्पर्य यह है कि भव्य और अभव्य दोनों ही प्रकारके जीव करणानुयोगको पद्धति के अनुसार मिथ्यात्वकर्मके उदय में मिध्यादृष्टिगुणस्थानवर्ती होते हुए भी चरणानुयोगको पद्धतिके अनुसार जबतक व्यवहार मिथ्यादर्शन (अतत्त्व श्रद्धान) और व्यवहार मिथ्याज्ञान ( अतत्त्वज्ञान) पूर्वक मिथ्या आचरण करते हैं। तभी वे मिथ्यात्व आदि १६ प्रकृतियों का बन्ध करते हैं और यदि वे व्यवहारसम्यग्दर्शन (तत्त्वश्रद्धान) और व्यवहारसम्यग्ज्ञान (तत्त्वज्ञान) पूर्वक अविरतिरूप या एकदेश अविरतिरूप या महाव्रतोंमें प्रवृत्तिरूप आचरण करने लगते हैं तो वे उन प्रकृतियोंका बन्ध नहीं करते हैं, ऐसा न माननेपर अभव्य जीव स्वर्गसुखमें कारणभूत क्षयोपशम, विशुद्धि, देशना और प्रायोग्य लब्धियांकी प्राप्ति नहीं कर सकेगा । और न भव्य जीव उक्त चारों लब्धियोंकी प्राप्ति के पश्चात् भेदविज्ञानपूर्वक करण लब्धिको प्राप्त कर सकेगा । और इस तरह इससे मोक्षप्राप्तिकी प्रक्रिया ही समाप्त हो जायेगी । इस विवेचनपर उन महानुभावोंको ध्यान देना चाहिए, जो मिथ्यात्वकर्मके उदयमें मिथ्यात्व आदि १६ प्रकृतियोंका बन्ध नियमसे मानते हैं । क्योंकि पहले स्पष्ट किया जा चुका है कि निष्कर्ष यह है कि मिथ्यात्वकर्मके उदय में मिथ्यात्व आदि १६ प्रकृतियोंका बन्ध तभी होता है जब जीव व्यवहारमिथ्यादर्शन ( अतत्त्व श्रद्धान) और व्यवहार मिथ्याज्ञान ( अतत्त्वज्ञान) पूर्वक मिथ्या आचरण Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३ / धर्म और सिद्धान्त : १२९ करता अन्यथा नहीं । इतना उल्लेखयोग्य है कि मिथ्यात्वकर्मके उदय में मिथ्यात्व आदि १६ प्रकृतियोंका बन्ध न होते हुए भी जो उसका उदय रहता है उसका कारण पूर्व में बद्ध मिथ्यात्वकर्मकी सत्ता है । स्थितिबंध और अनुभागबंधको व्यवस्था अभी तक जितना विवेचन किया गया है उससे स्पष्ट है कि बन्धका मूल कारण नोकमोंके सहयोग से होनेवाला जीवकी क्रियावतीशक्तिका हिलन चलन-क्रियाव्यापाररूप योग ही है । यतः वह योग प्रथम गुणः स्थानसे लेकर त्रयोदश गुणस्थान तकके जीवोंमें प्रतिक्षण यथायोग्यरूप में होता रहता है, अतः कर्मबन्ध भी उन सभी जीवों में प्रतिक्षण होता रहता है और वह प्रकृतिबन्ध और प्रदेशबन्धके रूपमें दो प्रकार का होता है । आग में बतलाया गया है कि कर्मबन्ध प्रकृतिबंध और प्रदेशबंधके अलावा स्थितिबंध और अनुभागबंधरूप भी होता अतः कर्मबंध के प्रकृतिबन्ध, प्रदेशबन्ध स्थितिबन्ध और अनुभागबन्धके रूपमें चार भेद माने गये हैं । कर्मबन्धका जीवके साथ यथायोग्य नियतकाल तक बना रहना स्थितिबन्ध हैं और कर्मोंमें जीवको फल देनेकी शक्तिका विकास होना अनुभागबंध है । जिस प्रकार प्रकृतिबन्ध और प्रदेशबंध ये दोनों योगके आधारपर होते हैं उसी प्रकार स्थितिबन्ध और अनुभागबन्ध ये दोनों कषायके आधारपर होते हैं । इनका स्पष्टीकरण निम्न प्रकार है। मोहनीयकर्म के आगममें दो भेद कहे गये हैं- १. दर्शनमोहनीय और २. चारित्रमोहनीय । दर्शनमोहनीयकर्मके तोन भेद हैं १. मिथ्यात्व २. सम्य मिथ्यात्व और ३. सम्यक्त्वप्रकृति । चारित्रमोहनीय कर्मके दो भेद है - १. कषाय वेदनीय २. अकषायवेदनीय । कषाय वेदनीयकर्म के मूलतः चार भेद -- १. क्रोध २. मान ३. माया ४. लोभ । ये चारों अन्तानुबन्धी, अप्रत्याख्यानावरण, प्रत्याख्यानावरण और संज्वलनके रूपमें चारचार प्रकारके हैं । तथा इनके उदयमें नोकर्मोंके सहयोग से कर्मबन्धके कारणभूत एवं जीवकी भाववतीशक्तिके परिणमनस्वरूप कषायभाव होते हैं तथा वे यदि क्रोध या मानरूप हों तो उन्हें द्वेष कहते हैं और यदि माया या लोभरूप हों तो उन्हें राग कहते हैं। इस प्रकार कर्मोंके स्थितिबन्ध और अनुभागबन्धके कारण यथायोग्य नोकर्मोकी सहायतापूर्वक होनेवाले जीवकी भाववतीशक्तिके परिणमन राग और द्वेषरूप कषायभाव ही हैं । आगममें अकषायवेदनीय-चारित्रमोहनीयकर्म के जो हास्य, रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, स्त्रीवेद, पुंवेद और नपुंसक वेद ये नौ भेद कहे गये हैं उन्हें राग और द्वेषरूप कषायभावोंके सहायक कर्म जानना चाहिए । कर्मबन्धकी प्रक्रिया मिथ्यात्वकर्मके उदय में मिथ्यादृष्टिनामधारी प्रथमगुणस्थानवर्ती जीवको भाववतीशक्तिके यथायोग्य नोम के सहयोग से व्यवहारमिथ्यादर्शन और व्यवहारमिथ्याज्ञानरूप परिणमन होते हैं व उनके होनेपर यथायोग्य नोकर्मो के सहयोगसे ही उसको क्रियावतीशक्तिका मिथ्या आचरण ( मिथ्याचारित्र) रूप परिणमन होता है, जो कर्मबन्धका कारण होता है । यतः वह मिथ्या आचरण अनन्तानुबन्धी कर्मके उदयमें होनेवाले जीवकी भाववतोशक्तिके परिणमनस्वरूप राग व द्वेषरूप कषायभावोंसे प्रभावित रहता है, अतः उस आचरण के आधारपर कर्मोंके प्रकृतिबन्ध और प्रदेशबन्ध के साथ स्थितिबन्ध और अनुभागबन्ध भी होते हैं । १७ Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३० : सरस्वती-वरवपुत्र पं० बंशीधर व्याकरणाचार्य अभिनन्दन-प्रन्थ अर्थात् वह आचरण योगरूप होनेसे प्रकृतिबन्ध और प्रदेशबन्धका कारण होता है व वह नियमसे जीवकी भाववतीशक्तिके परिणमन राग या द्वषरूप कषायभावसे प्रभावित रहता है, इसलिए कर्मोंके स्थितिबन्ध और अनुभागबन्धका भी कारण होता है। इसी प्रकार वह आचरण यतः व्यवहारमिथ्यादर्शन और व्यवहारमिथ्याज्ञानपूर्वक होता है, उनके अभावमें नहीं होता और वह व्यवहारमिथ्या दर्शन व व्यवहारमिथ्याज्ञानपूर्वक नियमसे होता है, अतः उक्त बन्धोंमें मिथ्याआचरणके साथ व्यवहारमिथ्यादर्शन और व्यवहारमिथ्याज्ञान भी परम्परया कारण होते हैं तथा मिथ्याआचरण साक्षात् कारण होता है। पहले बतलाया जा चुका है कि कर्मबन्ध चरणानुयोगकी पद्धतिके अनुसार होता है, करणानुयोगकी पद्धतिके अनुसार नहीं। अतः मिथ्यात्वकर्मके उदयमें मिथ्यादृष्टिनामधारी प्रथमगुणस्थानवर्तो जीव यदि अनुकूल निमित्तोंका सहयोग मिलनेपर व्यवहारसम्यग्दर्शन और व्यवहारसम्यग्ज्ञानको प्राप्त कर ले तो उसका आचरण मिथ्यारूप न होकर अविरतिरूप या एकदेश अविरतिरूप या महाव्रतोंमें प्रवृत्तिरूप ही होता है, जिससे वह जीव मिथ्यात्वकर्मका उदय रहते हए भी मिथ्यात्व आदि १६ प्रकृतियोंका बन्ध नहीं करता है। यहाँ यह भी स्मरणीय है कि मिथ्यारूप आचरण, अविरतिरूप आचरण, एकदेश-अविरतिरूप आचरण और महाव्रतोंमें प्रवृत्तिरूप आचरण-ये चारों योगके समान जीवकी क्रियावतीशक्तिके ही परिणमन है। इनमें जो विशेषता है वह यह है कि मिथ्या-आचरण अनन्तानुबन्धी कर्मके उदयमें नोकर्मोके सहयोगसे होनेवाले जीवकी भाववतीशक्तिके परिणमन राग-द्वषरूप कषायभावसे प्रभावित रहता है । अविरतिरूप आचरण अप्रत्याख्यानावरण कर्मके उदयमें नोकर्मोंके सहयोगसे होनेवाले जीवकी भाववतीशक्तिके परिणमन राग-द्वेषरूप कषायभावसे प्रभावित रहता है । एकदेश अविरतिरूप आचरण प्रत्याख्यानावरणकर्मके उदयमें नोकर्मोके सहयोगसे होनेवाले जीवकी भाववतीशक्तिके परिणमन राग-द्वेषरूप कषायभावसे प्रभावित रहता है। और महाव्रतोंमें प्रवृत्तिरूप आचरण संज्वलनकर्मके तीव्र उदयमें नोकर्मोके सहयोगसे होनेवाले जीवकी भाववतीशक्तिके परिणमन राग-द्वेषरूप कषायभावसे प्रभावित रहता है। फलतः उक्त चारों आचरण योगके समान जीवकी क्रियावतोशक्तिके नोकर्मोंके सहयोगसे होनेवाले हलन-चलन रूप क्रियाव्यापार रूप होनेसे कर्मोके प्रकृतिबन्ध और प्रदेशबंधके कारण होते हैं व जीवको भाववतीशक्तिके नोकर्मोंके सहयोगसे होनेवाले राग-द्वेषरूप कषायभावसे प्रभावित होनेके कारण स्थितिबन्ध और अनुभागबन्धके भी कारण होते हैं । तात्पर्य यह है कि उक्त चारों प्रकारके आचरणोंमेंसे प्रत्येक आचरण उक्त चारों बन्धोंका कारण है। यहाँ यह अवश्य ज्ञातव्य है कि अनन्तानुबन्धीकर्मके उदयमें नोकर्मोके सहयोगसे जीवको क्रियावतीशक्तिके परिणमन स्वरूप जो आचरण होता है वह आसक्तिवश होनेवाला संकल्पी पाप है। अनन्तानुबन्धीकर्मका उदय प्रथम और द्वितीय इन दो गुणस्थानोंमें स्थित जीवोंके होता है । विशेषता यह है कि प्रथमगुणस्थानवी जीवका यह आचरण दर्शनमोहनीयकर्मकी मिथ्यात्वप्रकृतिके उदयमें यथायोग्य नोकोंके सहयोगसे होनेवाले जीवको भाववतीशक्तिके परिणमन स्वरूप व्यवहारमिथ्यादर्शन और व्यवहारमिथ्याज्ञानपूर्वक होता है। अतः उसके आधारपर वह प्रथमगुणस्थानवर्ती जीव मिथ्यात्व आदि १६ प्रकृतियों का बन्ध करता है । यतः द्वितीयगुणस्थानवी जीवका वह आचरण व्यवहारमिथ्यादर्शन और व्यवहारमिथ्याज्ञानपूर्वक नहीं होता, क्योंकि द्वितीय गुणस्थानमें दर्शनमोहनीयकर्मका उपशम विद्यमान रहनेके कारण मिथ्यात्वकमके उदयका अभाव रहता है, अतः वह द्वितोयगुणस्थानवी जीव मिथ्यात्व आदि १६ प्रकृतियोंका बन्ध नहीं करता है और क्योंकि उस जीवमें अनन्तानुबन्धीकर्मके उदयमें नोकर्मोंके सहयोगसे क्रियावतीशक्ति Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३ / धर्म और सिद्धान्त : १३१ के परिणमन स्वरूप संकल्पी पापरूप आचरण होता ही रहता है। अतः उस आचरणके आधार पर वह जीव अनन्तानुबन्धी क्रोध, मान, माया और लोभ आदि २५ प्रकृतियों का बन्ध अवश्य करता है । तृतीय और चतुर्थं गुणस्थानोंमें स्थित जीवोंमें नियमसे अप्रत्याख्यानावरणकर्मका उदय रहता है, अतः उस उदयमें उक्त दोनों गुणस्थानवर्ती जीव निमित्तों के सहयोगसे अपनी क्रियावतीशक्तिके परिणमन स्वरूप जो आचरण करते हैं वह अशक्तिवश होनेवाला आरम्भो पाप है व उसीका नाम अविरति है । वह अविरति तृतीयगुणस्थानवर्ती जीवमें दर्शनमोहनीयकर्मकी सम्यग्मिथ्यात्वप्रकृतिके उदयमें नोकर्मोंके सहयोगसे जीवको भाववतीशक्ति के परिणमन स्वरूप जो सम्यग्मिथ्यात्वरूप मिश्रभाव होता है उसके अनुसार ही कर्मबंधका कारण होती है तथा चतुर्थगुणस्थानवर्ती जीवमें यतः दर्शनमोहनीयकर्मकी मिथ्यात्व, सम्यग्मिथ्यात्व और सम्यक्त्वप्रकृतिरूप तीन और अनन्तानुबंधोकर्मकी क्रोध, मान, माया और लोभरूप चार इन सात प्रकृतियों का उपशम, क्षयोपशम या क्षय विद्यमान रहता है, अतः वह अविरति उन कर्मों के sarat अपेक्षा बिना ही कर्मबन्धका कारण होती है । यही कारण है कि जहाँ तृतीयगुणस्थानवर्ती जीव ९८ प्रकृतियों का बन्ध करता है वहाँ चतुर्थगुणस्थानवर्ती जीव तीर्थंकर, मनुष्यायु और देवायुके साथ उन ९८ प्रकृतियों का बन्ध करता है । तृतीयगुणस्थानवर्ती जोवमें तीर्थंकर, मनुष्यायु और देवायु इन प्रकृतियोंका FE इसलिए नहीं होता कि कर्मसिद्धान्तमें इस गुणस्थानमें उनके बन्धका निषेध किया गया है और चतुर्थ - गुणस्थानमें इसलिए उनका बन्ध होता है कि कर्मसिद्धान्त में उसमें इन प्रकृतियोंके बंधका विधान किया गया है । तीर्थंकरप्रकृतिका बंध चतुर्थ गुणस्थान में इसलिए होता है कि उसका बंध कर्मसिद्धान्त के अनुसार निश्चयसम्यग्दृष्टि जीवके ही होता है । पंचम गुणस्थानवर्ती जीवमें अप्रत्याख्यानावरण कर्म के क्षयोपशमके साथ प्रत्याख्यानावरणकर्मका उदय रहता है, अतः वहाँ उस उदयमें नोकर्मोंके सहयोग से होनेवाली जीवकी क्रियावतीशक्तिकी परिणतिस्वरूप एकदेश अविरति ही बन्धका कारण होती है । षष्ठ गुणस्थानवर्ती जीवमें अप्रत्याख्यानावरण और प्रत्याख्यानावरण दोनों कर्मोंके क्षयोपशमके साथ संज्वलन कषायका तीव्रोदय रहता है । अतः उस उदयमें नोकर्मोंके सहयोगसे जीवकी क्रियावतीशक्तिका प्रमादरूप परिणाम ही बन्धका कारण होता है । सप्तम गुणस्थानसे लेकर दशम गुणस्थान तकके जीवोंमें संज्वलनकषायका उत्तरोत्तर मन्द मन्दतर और मन्दतमरूपसे उदय रहता है और उस उदयमें नोकमोंके सहयोगसे अव्यक्तरूपमें जीवकी क्रियावतीशक्तिका जो परिणाम होता है वही वहाँ बंधका कारण होता है । इस प्रकार प्रथम गुणस्थानसे लेकरके षष्ठ गुणस्थानतक होनेवाला यथायोग्य मिथ्यात्वरूप, अविरतिरूप, एकदेश अविरतिरूप और महाव्रतोंमें प्रवृत्तिरूप जीवकी क्रियावतीशक्तिका जो व्यक्तरूपमें परिणमन होता है वह परिणमन कर्मो के प्रकृति, प्रदेश, स्थिति और अनुभागरूप चारों बंधोंका कारण होता है । तथा सप्तम गुणस्थान से लेकर दशम गुणस्थानतकके जीवोंमें जीवकी क्रियावतीशक्तिका जो अव्यक्तरूपमें परिणमन होता है वह भी कर्मों प्रकृति, प्रदेश, स्थिति और अनुभाग इन चारों प्रकारके बंधोंका कारण होता है क्योंकि ये सभी परिणाम यथायोग्य उस-उस कषायके उदयमें होनेवाले जीवकी भाववतीशक्तिके परिणमन राग-द्वेषरूप कषायभावसे प्रभावित रहते हैं । ११वें, १२ वें और १३ वें गुपस्थानोंमें जीवकी क्रियावतीशक्तिका योगरूप Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 132 : सरस्वती-वरदपुत्र पं० बंशीधर व्याकरणाचार्य अभिनन्दन-ग्रन्थ परिणमन ही मात्र प्रकृतिबन्ध और प्रदेशबन्धका कारण होता है / यतः १४वें गुणस्थानमें योगका सर्वथा अभाव रहता है, अतः वहाँ उस जीवमें कर्मबन्धका भी सर्वथा अभाव रहता है। इसके अतिरिक्त प्रथम गुणस्थानसे लेकर षष्ठ गुणस्थानतकके जीवोंमें व्यक्तरूपमें और सप्तम गुणस्थानसे लेकर दशम गणस्थानतकके जीवोंमें अव्यक्तरूपमें जीवकी क्रियावतीशक्तिका जो पुण्यकर्मरूप व्यापार होता रहता है वह भी यथायोग्य उस-उस कषायके उदयमें होनेवाले जीवकी भाववतीशक्तिके परिणमन राग या द्वेषरूप कषायभावसे प्रभावित होनेसे जीवकी क्रियावतीशक्तिका परिणाम है व उसके आधारपर भी उन जीवोंमें कर्मोंका प्रकृति, प्रदेश, स्थिति और अनुभागरूप चारों प्रकारका बन्ध होता है / यहाँ यह ध्यान रखना आवश्यक है कि जिस प्रकार व्यवहारमिथ्यादर्शन और व्यवहारमिथ्याज्ञानको कर्मबन्धका परम्परया कारण माना गया है उस प्रकार व्यवहारसम्यग्दर्शन और व्यवहारसम्यग्ज्ञानकोकर्मबन्धका साक्षात् या परम्परया कारण नहीं माना जा सकता है, क्योंकि व्यवहारसम्यग्दर्शन और व्यवहारसम्यग्ज्ञान कर्मबन्धके कारण न होकर उसके अभावके ही कारण होते हैं। अतएव चतुर्थं गुणस्थानमें मात्र अविरति ही कर्मबन्धका कारण होती है व पंचम गुणस्थानमें मात्र एकदेश अविरति ही कर्मबन्धका कारण होती है तथा षष्ठ गुणस्थानमें मात्र महाव्रतोंमें प्रवृत्तिरूपता ही कर्मबन्धका कारण होती है / निष्कर्ष: प्रथमगुणस्थानवी जीव इसलिए अज्ञानी है कि उसके मिथ्यात्वकर्मका उदय रहता है और तृतीय गुणस्थानवी जीव इसलिए अज्ञानी है कि उसके सम्यग्मिथ्यात्वकर्मका उदय रहता है / यद्यपि द्वितीय गुणस्थानवी जीवमें दर्शनमोहनीयकर्मकी प्रकतियोंका उपशम रहता है, परन्त वह जीव अनन्तानबन्धी कर्मके उदयमें आसक्तिवश संकल्पीपाप भी करता रहता है। इसलिए उसे ज्ञानी नहीं कहा जा सकता है, उसे भी आगममें अज्ञानी ही कहा गया है / समयसार गाथा 72 की आत्मख्यातिटीकामें स्पष्ट लिखा है कि जो जीव भेदज्ञानी होकर भी आस्रवोंमें प्रवृत्त रहता है उसे भेदविज्ञानी नहीं कहा जा सकता है और यही कारण है कि जीवको निश्चयसम्यग्दष्टि बननेके लिए दर्शनमोहनीयकर्मके उपशम या क्षयके साथ अनन्तानुबन्धीकर्मके उपशम या क्षयको भी कारण माना गया है। फलतः चतुर्थगणस्थानमें जीवको होनेवाले कर्मबन्धमें मात्र अविरति ही कारण होती है, पंचमगुणस्थानमें जीवको होनेवाले कर्मबन्धमें मात्र एकदेश अविरति ही कारण होती है और षष्ठ गुणस्थानमें जीवको होनेवाले कर्मबन्धमें मात्र महाव्रतोंमें प्रवृत्तिरूपता ही बन्धका कारण होती है, क्योंकि जबतक जीव अज्ञानधारामें वर्तमान रहता है तबतक ही उस जीवके कर्मबन्धमें व्यवहारमिथ्यादर्शन और व्यवहारमिथ्याज्ञानको कारण माना गया है और जब जीव ज्ञानी हो जाता है अर्थात् निश्चयसम्यग्दृष्टि हो जाता है तो केवल अविरतिरूप या एकदेश अविरतिरूप या महाव्रतोंमें प्रवृत्तिरूप कर्मधारा ही जीवके कर्मबन्धमें कारण होती है। इसी तरह सप्तम गुणस्थानसे लेकर दशम गुणस्थानतकके जीवोंके जो कर्मबन्ध होता है वह भी कर्मधाराके आधारपर ही होता है, इसलिए सप्तम गुणस्थानसे दशम गुणस्थानतक जीवोंमें ज्ञानधाराके साथ कर्मबन्धमें कारणभूत कर्मधाराका सद्भाव स्वीकार किया गया है / इस विवेचनसे यह भी स्पष्ट है कि प्रथम गुणस्थानसे तृतीय गुणस्थानतकके जोवोंमें अज्ञानधारापूर्वक कर्मधारा बन्धको कारण होती है व चतुर्थ गुणस्थानसे षष्ठ गुणस्थानतकके जीवोंमें व्यक्तरूपसे व सप्तम गुणस्थानसे लेकर दशम गुणस्थानतकके जीवोंमें अव्यक्तरूपसे मात्र क्रियाधारा ही यथायोग्य राग-द्वषरूप कषाय भावोंसे प्रभावित होती हई कर्मबन्धका कारण होती है / इत्यलम् /