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________________ १३० : सरस्वती-वरवपुत्र पं० बंशीधर व्याकरणाचार्य अभिनन्दन-प्रन्थ अर्थात् वह आचरण योगरूप होनेसे प्रकृतिबन्ध और प्रदेशबन्धका कारण होता है व वह नियमसे जीवकी भाववतीशक्तिके परिणमन राग या द्वषरूप कषायभावसे प्रभावित रहता है, इसलिए कर्मोंके स्थितिबन्ध और अनुभागबन्धका भी कारण होता है। इसी प्रकार वह आचरण यतः व्यवहारमिथ्यादर्शन और व्यवहारमिथ्याज्ञानपूर्वक होता है, उनके अभावमें नहीं होता और वह व्यवहारमिथ्या दर्शन व व्यवहारमिथ्याज्ञानपूर्वक नियमसे होता है, अतः उक्त बन्धोंमें मिथ्याआचरणके साथ व्यवहारमिथ्यादर्शन और व्यवहारमिथ्याज्ञान भी परम्परया कारण होते हैं तथा मिथ्याआचरण साक्षात् कारण होता है। पहले बतलाया जा चुका है कि कर्मबन्ध चरणानुयोगकी पद्धतिके अनुसार होता है, करणानुयोगकी पद्धतिके अनुसार नहीं। अतः मिथ्यात्वकर्मके उदयमें मिथ्यादृष्टिनामधारी प्रथमगुणस्थानवर्तो जीव यदि अनुकूल निमित्तोंका सहयोग मिलनेपर व्यवहारसम्यग्दर्शन और व्यवहारसम्यग्ज्ञानको प्राप्त कर ले तो उसका आचरण मिथ्यारूप न होकर अविरतिरूप या एकदेश अविरतिरूप या महाव्रतोंमें प्रवृत्तिरूप ही होता है, जिससे वह जीव मिथ्यात्वकर्मका उदय रहते हए भी मिथ्यात्व आदि १६ प्रकृतियोंका बन्ध नहीं करता है। यहाँ यह भी स्मरणीय है कि मिथ्यारूप आचरण, अविरतिरूप आचरण, एकदेश-अविरतिरूप आचरण और महाव्रतोंमें प्रवृत्तिरूप आचरण-ये चारों योगके समान जीवकी क्रियावतीशक्तिके ही परिणमन है। इनमें जो विशेषता है वह यह है कि मिथ्या-आचरण अनन्तानुबन्धी कर्मके उदयमें नोकर्मोके सहयोगसे होनेवाले जीवकी भाववतीशक्तिके परिणमन राग-द्वषरूप कषायभावसे प्रभावित रहता है । अविरतिरूप आचरण अप्रत्याख्यानावरण कर्मके उदयमें नोकर्मोंके सहयोगसे होनेवाले जीवकी भाववतीशक्तिके परिणमन राग-द्वेषरूप कषायभावसे प्रभावित रहता है । एकदेश अविरतिरूप आचरण प्रत्याख्यानावरणकर्मके उदयमें नोकर्मोके सहयोगसे होनेवाले जीवकी भाववतीशक्तिके परिणमन राग-द्वेषरूप कषायभावसे प्रभावित रहता है। और महाव्रतोंमें प्रवृत्तिरूप आचरण संज्वलनकर्मके तीव्र उदयमें नोकर्मोके सहयोगसे होनेवाले जीवकी भाववतीशक्तिके परिणमन राग-द्वेषरूप कषायभावसे प्रभावित रहता है। फलतः उक्त चारों आचरण योगके समान जीवकी क्रियावतोशक्तिके नोकर्मोंके सहयोगसे होनेवाले हलन-चलन रूप क्रियाव्यापार रूप होनेसे कर्मोके प्रकृतिबन्ध और प्रदेशबंधके कारण होते हैं व जीवको भाववतीशक्तिके नोकर्मोंके सहयोगसे होनेवाले राग-द्वेषरूप कषायभावसे प्रभावित होनेके कारण स्थितिबन्ध और अनुभागबन्धके भी कारण होते हैं । तात्पर्य यह है कि उक्त चारों प्रकारके आचरणोंमेंसे प्रत्येक आचरण उक्त चारों बन्धोंका कारण है। यहाँ यह अवश्य ज्ञातव्य है कि अनन्तानुबन्धीकर्मके उदयमें नोकर्मोके सहयोगसे जीवको क्रियावतीशक्तिके परिणमन स्वरूप जो आचरण होता है वह आसक्तिवश होनेवाला संकल्पी पाप है। अनन्तानुबन्धीकर्मका उदय प्रथम और द्वितीय इन दो गुणस्थानोंमें स्थित जीवोंके होता है । विशेषता यह है कि प्रथमगुणस्थानवी जीवका यह आचरण दर्शनमोहनीयकर्मकी मिथ्यात्वप्रकृतिके उदयमें यथायोग्य नोकोंके सहयोगसे होनेवाले जीवको भाववतीशक्तिके परिणमन स्वरूप व्यवहारमिथ्यादर्शन और व्यवहारमिथ्याज्ञानपूर्वक होता है। अतः उसके आधारपर वह प्रथमगुणस्थानवर्ती जीव मिथ्यात्व आदि १६ प्रकृतियों का बन्ध करता है । यतः द्वितीयगुणस्थानवी जीवका वह आचरण व्यवहारमिथ्यादर्शन और व्यवहारमिथ्याज्ञानपूर्वक नहीं होता, क्योंकि द्वितीय गुणस्थानमें दर्शनमोहनीयकर्मका उपशम विद्यमान रहनेके कारण मिथ्यात्वकमके उदयका अभाव रहता है, अतः वह द्वितोयगुणस्थानवी जीव मिथ्यात्व आदि १६ प्रकृतियोंका बन्ध नहीं करता है और क्योंकि उस जीवमें अनन्तानुबन्धीकर्मके उदयमें नोकर्मोंके सहयोगसे क्रियावतीशक्ति Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.210165
Book TitleAgam me Karm Bandhke Karan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBansidhar Pandit
PublisherZ_Bansidhar_Pandit_Abhinandan_Granth_012047.pdf
Publication Year1989
Total Pages8
LanguageHindi
ClassificationArticle & Karma
File Size778 KB
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