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१२८ : सरस्वती - वरवपुत्र पं० बंशीधर व्याकरणाचार्य अभिनन्दन ग्रन्थ
प्रत्येक जीवके होता ही है, क्योंकि ऐसा नियम स्वीकार करनेपर नरकायुका बन्ध प्रत्येक मिथ्यात्वगुणस्थानवर्ती जीवके होने का प्रसंग आयेगा, जो कर्मसिद्धान्तके विरुद्ध है । यतः कर्मसिद्धान्त में इस गुणस्थानमें चारों आयुओंका बन्ध स्वीकार किया गया है । साथ ही यह भी कर्मसिद्धान्त में माना गया है कि एक आयुका बन्ध होनेपर जीवके दूसरी आयुका बन्ध उसी भवमें नहीं होता । तथा प्रथमगुणस्थानवर्ती, देव और नारकीको नरक आयुका बन्ध कदापि नहीं होता है ।
दूसरी बात यह है कि मिथ्यादृष्टि गुणस्थानवर्ती जीवमें मिथ्यात्व आदि १६ प्रकृतियोंका बन्ध तभी तक होता है जब तक वह व्यवहारमिथ्यादर्शन ( अतत्त्वश्रद्धान) और व्यवहार मिथ्याज्ञान ( अतत्त्वज्ञान ) पूर्वक मिथ्याआचरण करता है और जीव यदि व्यवहारसम्यग्दर्शन (तत्त्व श्रद्धान) और व्यवहारसम्यग्ज्ञान (तत्त्वज्ञान ) पूर्वक मिथ्याआचरणको छोड़कर अविरतिरूप या एकदेशअविरतिरूप या महाव्रतों में प्रवृत्तिरूप आचरण करने लगता है तो उस समय उसके मिथ्यात्व आदि १६ प्रकृतियोंका बन्ध नहीं होता । यदि ऐसा न माना जाये तो समयसार गाथा २७५ के अनुसार अभव्य जीव तत्त्वश्रद्धानी और तत्त्वज्ञानी होकर जो अविरतिरूप या एकदेश अविरतिरूप या महाव्रतोंमें प्रवृत्तिरूप आचरण करता है और उसके आधारपर क्षयोपशम, विशुद्धि, देशना और प्रायोग्य लब्धियोंको भी प्राप्त कर लेता है, यह जो आगमका कथन है वह अयुक्त हो जायेगा | जिसका परिणाम यह होगा कि ऐसा अभव्य जीव नवम ग्रैवेयक तक जन्म लेकर स्वर्ग-सुखका उपभोग करता है, यह कथन भी अयुक्त हो जायेगा ।
इससे यह निर्णीत होता है कि मिथ्यात्वकर्मके उदयसे जीव मिथ्यात्वगुणस्थानवर्ती तो है, परन्तु जब तक मिथ्यादर्शन और मिथ्याज्ञानपूर्वक मिथ्या आचरण करता रहता है तभीतक उसके मिथ्यात्व आदि १६ प्रकृतियोंका बन्ध होता है और यदि वह जीव व्यवहारसम्यग्दर्शन और व्यवहारसम्यग्ज्ञानपूर्वक अविरतिरूप या एकदेश अविरतिरूप या महाव्रतों में प्रवृत्तिरूप आचरण करने लगता है तो उस समय वह मिध्यात्वकर्मका उदय रहते हुए भी मिथ्यात्व आदि सोलह प्रकृतियोंका बन्ध नहीं करता है, भले ही वह जीव अभव्य ही क्यों हो, क्योंकि बन्धका आधार चरणानुयोगकी पद्धति है, करणानुयोगकी पद्धति नहीं ।
तात्पर्य यह है कि भव्य और अभव्य दोनों ही प्रकारके जीव करणानुयोगको पद्धति के अनुसार मिथ्यात्वकर्मके उदय में मिध्यादृष्टिगुणस्थानवर्ती होते हुए भी चरणानुयोगको पद्धतिके अनुसार जबतक व्यवहार मिथ्यादर्शन (अतत्त्व श्रद्धान) और व्यवहार मिथ्याज्ञान ( अतत्त्वज्ञान) पूर्वक मिथ्या आचरण करते हैं। तभी वे मिथ्यात्व आदि १६ प्रकृतियों का बन्ध करते हैं और यदि वे व्यवहारसम्यग्दर्शन (तत्त्वश्रद्धान) और व्यवहारसम्यग्ज्ञान (तत्त्वज्ञान) पूर्वक अविरतिरूप या एकदेश अविरतिरूप या महाव्रतोंमें प्रवृत्तिरूप आचरण करने लगते हैं तो वे उन प्रकृतियोंका बन्ध नहीं करते हैं, ऐसा न माननेपर अभव्य जीव स्वर्गसुखमें कारणभूत क्षयोपशम, विशुद्धि, देशना और प्रायोग्य लब्धियांकी प्राप्ति नहीं कर सकेगा । और न भव्य जीव उक्त चारों लब्धियोंकी प्राप्ति के पश्चात् भेदविज्ञानपूर्वक करण लब्धिको प्राप्त कर सकेगा । और इस तरह इससे मोक्षप्राप्तिकी प्रक्रिया ही समाप्त हो जायेगी । इस विवेचनपर उन महानुभावोंको ध्यान देना चाहिए, जो मिथ्यात्वकर्मके उदयमें मिथ्यात्व आदि १६ प्रकृतियोंका बन्ध नियमसे मानते हैं ।
क्योंकि पहले स्पष्ट किया जा चुका है कि
निष्कर्ष यह है कि मिथ्यात्वकर्मके उदय में मिथ्यात्व आदि १६ प्रकृतियोंका बन्ध तभी होता है जब जीव व्यवहारमिथ्यादर्शन ( अतत्त्व श्रद्धान) और व्यवहार मिथ्याज्ञान ( अतत्त्वज्ञान) पूर्वक मिथ्या आचरण
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