Book Title: Agam Shabda Vimarsh
Author(s): Harishankar Pandey
Publisher: Z_Jinavani_003218.pdf

View full book text
Previous | Next

Page 3
________________ 'आगम' शब्द विमर्श 71 अर्थात् परमेश्वर के रूप का अभेद रूप से विमर्शन करने वाली परशक्ति ही आगम है और उस तत्त्व का प्रतिपादक शब्द संदर्भ भी आगम है। जिसके हृदय में जिस सिद्धान्त की निरूढ़ि हो गयी, उसके लिए वही こ आगम हैं. दृढविमर्शरूप-शब्द आगमः, आ समन्तात् अर्थं गमयतीति । वराही तंत्र में आगम का लक्षण निम्न रूप से निर्दिष्ट है-सृष्टिश्च प्रलयश्चैव देवतानां यथार्चनम् । साधनं चैव सर्वेषां पुरश्चरणमेव च ।। षट्कर्म साधनं चैव ध्यानयोगश्चतुर्विधः । 23 सप्तभिर्लक्षणैर्युक्तमागमं तद्विदुर्बुधाः ।। अर्थात् जिसमें सात विषय प्रतिपादित हो, उसे आगम कहते हैं। ये सात विषय हैं: १. सृष्टि जगत्कारण, उपादान और उत्पत्ति का वर्णन, २. प्रलय निरूपण, ३. देवनाओं की अर्चना, ४. सर्वसाधन प्रकार वर्णन - विविध सिद्धियों के साधन का प्रकार निर्देश ५. पुरश्चरण क्रमवर्णन - मोहन उच्चाटन आदि विधियों का वर्णन, ६. षट्कर्म निरूपण--शांति, वशीकरण, स्तम्भन, विद्वेषण, उच्चाटन, मारण आदि का साधन विधान । ७. ध्यान योग- आराध्य के ध्यान के निमित्त योग-प्रक्रिया का वर्णन । 1.2 योगदर्शन और आगम- योगदर्शन में स्वीकृत तीन प्रमाणों में आगम तीसरे प्रमाण के रूप में स्वीकृत है प्रत्यक्षानुमानागमाः प्रमाणानि ( योगसूत्र 1.7 ) पर व्यास भाष्य में आप्त के द्वारा दृष्ट अर्थ को आगम कहा गया है- आयोन दृष्टोऽनुमितो वाऽर्थः परत्र स्वबोधसंक्रान्तये शब्देनोपदिश्यते । १२ अर्थात् आप्त पुरुष के द्वारा दृष्ट या अनुमित (प्रत्यक्षकृत, सात्मीकृत) अर्थ का दूसरे के अवबोध के लिए शाब्दिक उपदेश आगम है। वाचस्पतिमिश्रकृत तत्त्ववैशारदी के अनुसारतत्त्वदर्शनकारुण्यपाटवाभिसंबंध आप्तिः तथा वर्तत इत्याप्तस्तेन दृष्टोऽनुमितो वाऽर्थः आप्तचितवर्त्तिज्ञानसदृशस्य ज्ञानस्य श्रोतृचित्ते समुत्पादः । अर्थात् तत्त्वदर्शन एवं कारुण्यादि से संवलित आप्त द्वारा दृष्ट अनुमित अर्थ आगम होता है, जिससे श्रोता के चिन में आप्तसदृश ज्ञान का समुत्पाद होता है। राघवानन्द सरस्वती 'पातञ्जल रहस्य' के अनुसार तत् साक्षात्परम्परया वा दृष्टानुमिताभ्यां व्याप्तम् । अर्थात् साक्षात् अथवा परम्परा से आन पुरुष के द्वारा दृष्ट अथवा अनुमित अर्थों से जो व्याप्त होता है वह आगम है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 2 3 4 5 6 7 8 9 10