Book Title: Agam Shabda Vimarsh
Author(s): Harishankar Pandey
Publisher: Z_Jinavani_003218.pdf
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'आगम' शब्द विमर्श डॉ. हरिशंकर पाण्डेय 'अगम' शब्द का प्रयोग जैनदर्शन में ही नहीं शैव, योग, सांख्य, न्याय आदि दर्शनों में भी हुआ है। आप्त वचनों को अगम प्रमाण मानने की परम्परा लगभग सभी भारतीय दर्शनों में रही है। किन्तु 'आगम' शब्द की प्रसिद्धि शैव एवं जैन दर्शनों में विशेष हुई हैं। जैतागम एवं जैनागन शब्द इसके प्रमाण हैं। डॉ हरिशंकर पाण्डेय ने तंत्रवाङ्मय (दर्शन), योग्दर्शन, सांख्यदर्शन एवं न्यायदर्शन में 'आगम' की चर्चा करने के अनन्तर इस आलेख में जैन दर्शन सम्मत 'आगम' शब्द का विवेचन किया है। 1 प्राचीनकाल से ही भारत ज्ञान के क्षेत्र में 'विश्वगुरु' के रूप में प्रसिद्ध है | जब संसार अज्ञान के अंधतमस् से आन्छन्न था, तब भारतीय प्रज्ञाकाश में ज्ञान का भास्वर भास्कर विद्योतित था। ऋषि, मनीषी एवं मेधावी पुरुष ध्यान, साधना और समाधि के द्वारा तत्त्व का, यथार्थ का, परम का साक्षात्कार करते थे। उस परम में समाधिस्थ होकर एकत्रावस्थित होकर आनन्द सागर में निमज्जित होते रहते थे । आनन्द सागर में निमज्जन ही उनके जीवन का स्वारस्य एवं परम प्रयोजन के रूप में अभिलक्षित था। पर्म का साक्षात्कार, तत्त्व की उपलब्धि एवं सत्य का ज्ञान कर जब यथार्थ द्रष्टा ऋषि समाधि से उपरत होते थे, तो अपने ज्ञान को लोकमंगल एवं विश्व कल्याण के लिए प्रशान्तचित्त, जितेन्द्रिय एवं संयमी शिष्यों के हृदय में प्रतिष्ठित करते थे। गुरु से सुनकर शिष्य परमविद्या को प्राप्त करते थे, इसलिए उसे श्रुति कहा जाने लगा। गुरु और शिष्य की परम्परा से आगत होने एवं यथार्थवक्ता के द्वारा उपदिष्ट होने के कारण उसे ही आगम शब्द से अभिहित किया गया । 'आगम' शब्द की व्युत्पत्ति- 'आ' उपसर्ग पूर्वक 'गम्लृ गतौ' धातु से घञ् प्रत्यय करने से 'आगम' शब्द निष्पन्न होता है। आङ् उपसर्ग का प्रयोग ईषद्, अभिव्याप्त आदि अर्थों में होता है। 'आ' उपसर्ग के साथ अत सातत्य गमने` धातु से बाहुलकात् अङ्ग प्रत्यय करने पर भी बनता है। अमरकोशकार ने निम्न अर्थो में 'आई' का निर्देश किया है - आङीषदर्थेऽभिव्याप्तौ सीमार्थे धातुयोगजे । गम् धातु गत्यर्थक है। जो गत्यर्थक हैं वे धातुएं ज्ञानार्थक होती हैं- 'ये गत्यर्थकाः ते झानार्थका अपि भवन्ति ।' इस न्याय से गम् धातु ज्ञानार्थक भी माना जाएगा। जो सतत ज्ञान में गमन करे, सतत ज्ञान में लीन है या जो ज्ञान का आधार (साधन) है, उसे आगम कहा जाएगा। 'आ' का प्रयोग पाणिनि ने मर्यादा और अभिविधि अर्थ में किया है। जिस ज्ञान को सम्यक् रूप से प्राप्त किया जाए या जो ज्ञान मर्यादापूर्वक गुरु-शिष्य परम्परा से आ रहा है, उसे 'आगम' कहते हैं। जिसकी परम्परा -सम्पादक Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 70 जिनवाणी- जैनागम-साहित्य विशेषाङ्क मर्यादापूर्वक चलती आ रही है या जो ज्ञान मर्यादापूर्वक प्राप्त किया जाता है, वह आगम है। आवश्यक नियुक्तिकार ने लिखा है- 'आङ्अभिविधि मर्यादार्थत्वात् अभिविधिना मर्यादया वा गमः परिच्छेद आगमः ।" 'गम' शब्द का प्रयोग अनेक अर्थो में देखा जाता है। अमरकोश ने इसे प्रस्थान का पर्याय माना हैं- यात्रा व्रज्यामिनिर्याणं प्रस्थानं गमनं गमः । जहां मर्यादापूर्वक प्रस्थान है, अनन्त यात्रा का सम्यक् नियम उद्घोषित है या जिसमें अनन्त की ओर प्रस्थान करने के सम्यक् संसाधनों का निर्देश हैं, उसे आगम कहते हैं। 'आगम' शब्द का प्रयोग जैन एवं जैनेतर परम्पराओं में उपलब्ध है। प्रथम दृष्ट्या जैनंतर परम्परा में आगम शब्द विचारणीय है। जैनेतर परम्परा में आगम 1. 1 तंत्रवाङ्मय में आगम - आगमों की परम्परा अनादिकालीन है। लक्ष्मी तंत्र (उपोद्घात, पृ.१) में निर्दिष्ट है कि अनादिकाल से गुरु-शिष्य परम्परा से जो आगत शास्त्र संदर्भ है, वह आगम है। 'आगम' शब्द के मूल में परम्परा ख्याति की प्रधानता है । आप्त इसलिए आप्त कहा जाता है, क्योंकि वह परम्परा प्राप्त एवं कालवशात् उच्छिन्न वस्तु तथ्य को हृदयंगम कर जनजीवन के लिए प्रकट करता है। प्रसिद्धि अथवा निरूढ़ि की परम्परा ही आगम है, जो विशिष्ट वाक्य रचनाओं के रूप में निबद्ध तथा महापुरुषों के अनुष्ठानों में, कृत्यों में अनिबद्ध रूप से देखी जा सकती है। स्वच्छन्द तंत्र में आगम लक्षण का निर्देश है अदृष्टविग्रहात् शान्ताच्छ्विात्परमकारणात् । ध्वनिरूपं विनिष्क्रान्तं शास्त्रं परमदुर्लभम् ।। अमूर्ताद् गगनाद्यद्वन्निर्घातो जायते महान् । शांतात्संविन्मयात् तद्वच्छब्दाख्यं शास्त्रम् ।। अर्थात् अदृष्ट विग्रह, अमूर्त, गगनवत् सर्वव्यापी जगत् के परमकारण ज्ञानमय शिव से समुत्पन्न परमदुर्लभ ध्वनि रूप शब्द शास्त्र आगम है। इसी तरह का रुद्रयामल तंत्र में भी निर्देश मिलता है आगतः शिववक्त्रेभ्यो गतश्च गिरिजानने । ८ मग्नश्च हृदयाम्भोजे तस्मादागम उच्यते । । ' अर्थात् परम शिव के मुख से उत्पन्न एवं गिरिजामुख से आगत ज्ञान को आगम कहते हैं । स्वच्छन्दोद्योत में कथित है कि 'आ समन्तात् गमयति अभेदेने विमृशति परमेश स्वरूपं इति कृत्वा परशक्तिरेवागमः तत्प्रतिपादकस्तु शब्दसंदर्भः तदुपायत्वात् शास्त्रस्य । Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'आगम' शब्द विमर्श 71 अर्थात् परमेश्वर के रूप का अभेद रूप से विमर्शन करने वाली परशक्ति ही आगम है और उस तत्त्व का प्रतिपादक शब्द संदर्भ भी आगम है। जिसके हृदय में जिस सिद्धान्त की निरूढ़ि हो गयी, उसके लिए वही こ आगम हैं. दृढविमर्शरूप-शब्द आगमः, आ समन्तात् अर्थं गमयतीति । वराही तंत्र में आगम का लक्षण निम्न रूप से निर्दिष्ट है-सृष्टिश्च प्रलयश्चैव देवतानां यथार्चनम् । साधनं चैव सर्वेषां पुरश्चरणमेव च ।। षट्कर्म साधनं चैव ध्यानयोगश्चतुर्विधः । 23 सप्तभिर्लक्षणैर्युक्तमागमं तद्विदुर्बुधाः ।। अर्थात् जिसमें सात विषय प्रतिपादित हो, उसे आगम कहते हैं। ये सात विषय हैं: १. सृष्टि जगत्कारण, उपादान और उत्पत्ति का वर्णन, २. प्रलय निरूपण, ३. देवनाओं की अर्चना, ४. सर्वसाधन प्रकार वर्णन - विविध सिद्धियों के साधन का प्रकार निर्देश ५. पुरश्चरण क्रमवर्णन - मोहन उच्चाटन आदि विधियों का वर्णन, ६. षट्कर्म निरूपण--शांति, वशीकरण, स्तम्भन, विद्वेषण, उच्चाटन, मारण आदि का साधन विधान । ७. ध्यान योग- आराध्य के ध्यान के निमित्त योग-प्रक्रिया का वर्णन । 1.2 योगदर्शन और आगम- योगदर्शन में स्वीकृत तीन प्रमाणों में आगम तीसरे प्रमाण के रूप में स्वीकृत है प्रत्यक्षानुमानागमाः प्रमाणानि ( योगसूत्र 1.7 ) पर व्यास भाष्य में आप्त के द्वारा दृष्ट अर्थ को आगम कहा गया है- आयोन दृष्टोऽनुमितो वाऽर्थः परत्र स्वबोधसंक्रान्तये शब्देनोपदिश्यते । १२ अर्थात् आप्त पुरुष के द्वारा दृष्ट या अनुमित (प्रत्यक्षकृत, सात्मीकृत) अर्थ का दूसरे के अवबोध के लिए शाब्दिक उपदेश आगम है। वाचस्पतिमिश्रकृत तत्त्ववैशारदी के अनुसारतत्त्वदर्शनकारुण्यपाटवाभिसंबंध आप्तिः तथा वर्तत इत्याप्तस्तेन दृष्टोऽनुमितो वाऽर्थः आप्तचितवर्त्तिज्ञानसदृशस्य ज्ञानस्य श्रोतृचित्ते समुत्पादः । अर्थात् तत्त्वदर्शन एवं कारुण्यादि से संवलित आप्त द्वारा दृष्ट अनुमित अर्थ आगम होता है, जिससे श्रोता के चिन में आप्तसदृश ज्ञान का समुत्पाद होता है। राघवानन्द सरस्वती 'पातञ्जल रहस्य' के अनुसार तत् साक्षात्परम्परया वा दृष्टानुमिताभ्यां व्याप्तम् । अर्थात् साक्षात् अथवा परम्परा से आन पुरुष के द्वारा दृष्ट अथवा अनुमित अर्थों से जो व्याप्त होता है वह आगम है। Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 72 जिनवाणी- जैनागम-साहित्य विशेषाङ्क विज्ञान भिक्षु ने 'योगवार्तिक' में आगम का लक्षण इस प्रकार दिया आप्तेनेति मूलवक्त्रभिप्रायेण श्रुतो वेति। आप्तादागच्छति वृत्तिरित्यागमः । अर्थात् भ्रम, प्रमाद, उत्कट लिप्सा, अकुशलतादि दोषों से रहित आप्त पुरुष की वाणी को आगम कहते हैं। आप्त पुरुष से आगत विद्या या प्रमाण आगम है। आगमप्रमाणमूलक ग्रन्थ भी आगम शब्द से व्यवहृत होते हैं । भ्रमप्रमादविप्रलिप्साकरणापाटवादिदोषरहितेनेत्यर्थः भोजवृत्ति में कथित है- आप्तवचनं आगमः । 1.3 सांख्यदर्शन में आगम- सांख्य दर्शन में तीन प्रमाण स्वीकृत है- प्रत्यक्ष, अनुमान और शब्दप्रमाण शब्द प्रमाण ही आगम है। सांख्यसूत्र में निर्दिष्ट हैआप्तोपदेशः शब्दः 28 आप्त पुरुषों के द्वारा कथित या प्ररूपित शब्द प्रमाण है। सांख्यकारिका के अनुसार यथार्थ वाक्य जन्य ज्ञान शब्द प्रमाण हैआप्तश्रुतिराप्तवचनं तु । २४ ब्रह्मादि आचार्यों के वचन एवं वेदवचन को आप्तवचन कहा गया है। क्योंकि इनसे साक्षादर्थ अथवा यथार्थ की उपलब्धि होती है। (द्रष्टव्य माठरवृत्तिः) माठरवृत्तिकार ने आगम के स्वरूप को उद्घाटित करने के लिए भगवान कपिल के वचन को उद्धृत किया है। आगमो ह्याप्तवचनमाप्तं दोषायाद् विदुः । क्षीणदोषोऽनृतं वाक्यं न ब्रूयाद्धे त्वसम्भवात् । स्वकर्मण्यभियुक्तो यो रागद्वेषविवर्जितः । पूजितस्तद्विधैर्नित्यमाप्तो ज्ञेयः स तादृशः ।।' अर्थात् आप्तवचन को आगम कहते हैं। दोषों से जो शून्य हो उसको आप्त कहते हैं, क्योंकि दोषशून्य व्यक्ति झूठ नहीं बोल सकता। जो अपने कर्म में तत्पर हो, राग द्वेष रहित हो, ऐसे ही लोगों से सम्मानित हो उसे आप्त कहते हैं । सांख्यतत्त्वकौमुदी में वाचस्पतिमिश्र ने लिखा है आप्ता प्राप्ता युक्तेति यावत् । आप्ता चासौ श्रुतिश्चेत्याप्तश्रुतिः श्रुतिवाक्यजनितं वाक्यार्थं ज्ञानम् । १६ अर्थात् साक्षात्कृतधर्मापुरुष, यथार्थ के ग्रहणकर्ता तथा उपदेष्टा को आप्त कहते हैं, उन्हीं का वचन आप्तवचन है। श्रुति वाक्य आप्त वचन है : सांख्यतत्त्व याथार्थ्यदीपन में शब्द (आगम) प्रमाण की व्याख्या की गई है। 1. आप्तवचनजन्यज्ञानं शब्दः प्रमा तत्करणं शब्दप्रमाणमित्येकं लक्षणम्, 2. आप्तवचनजन्या पदार्थसंसर्गाकारान्तःकरणवृत्तिरिति द्वितीयं शब्दप्रमाणम्, Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'आगम' शब्द विमर्श 3. आप्तस्तु स्वकर्मण्यभियुक्तो रागद्वेषरहितो ज्ञानवान् शीलसम्पन्न । इदन्तु ज्ञानोपदेष्टुरेवाप्तलक्षणम् । वस्तुतो यथाभूतस्योपदेष्टा पुरुष इत्येव । अर्थात् ज्ञानवान्, शील सम्पन्न, रागद्वेष रहित पुरुष आप्त कहलाता हैं, उसके वचन को आप्त-वचन अथवा आगम (शब्द) प्रमाण कहते हैं। 1.4 न्यायदर्शन में आगम - न्यायदर्शन में चार प्रमाणों को स्वीकृत किया गया है- प्रत्यक्ष अनुमान, उपमान और शब्दप्रमाण । शब्दबोध रूप यथार्थ ज्ञान के साधन को शब्द कहते हैं । इसी को आप्तवचन और आगम भी कहते हैं। न्यायसूत्रकार गौतम ने आप्तोपदिष्ट वचन को शब्द प्रमाण माना है.. आप्तोपदेशः शब्दः ।” परवर्ती आचार्यों ने किंचित् परिवर्तन के साथ इसकी परिभाषा दी है- आप्तवाक्यं शब्दः (तर्कभाषा, तर्कसंग्रह), वात्स्यायन ने न्यायभाष्य में साक्षात् या धर्म का साक्षात्कार करने वाले व्यक्ति को आप्त कहा है, चाहे हस्तामलकवत् तत्त्वज्ञान का साक्षात्कार कर लिया है, यथार्थ वक्ता है, रागादि से शून्य है तथा निर्मल अन्त:करण वाला है वह आपा है। जैन परम्परा में आगम का स्वरूप दिगम्बर एवं श्वेताम्बर साहित्य में आगम की अनेक परिभाषाएं मिलती हैं। अध्ययन की सुविधा के लिए प्राप्त परिभाषाओं को निम्नलिखित संवर्ग में रख सकते हैं 1. आगम तीर्थकर वाणी है- नियमसार में यह तथ्य निर्दिष्ट है कि जो तीर्थंकर के मुख से समुद्भुत है वह आगम है. तस्समुहग्गदवयणं पुव्वापरदोसविरहियं सुद्ध । आगमिदि परिकहियं तेण द कहिया हवं तच्चत्था ।। अन्यत्र भी प्रमाण मिलते हैं आगमस्तन्मुखारविन्दविनिर्गतसमस्तवस्तुविस्तारसमर्थनदक्षचतुरवचनसंदर्भ:' अर्थात् तीर्थंकर के गुखारविन्द से विनिर्गत सम्पूर्ण वस्तुओं के विस्तार के समर्थन में दक्ष एवं चतुर वचन को आगम कहते हैं। 2. आगम वीतराग वाणी है- रागद्वेष-रहित पुरुषों के द्वारा प्रकथित वचन आगम है— आगमो वीतरागवचनम् अर्थात् आगम वीतराग वचन I पंचास्तिकाय तात्पर्यवृत्ति में ऐसा ही उल्लेख है वीतराग सर्व ज्ञप्रणीतषद्रव्यादिसम्यक् श्रद्धानज्ञानव्रताद्यनुष्ठानमे दरत्नत्रयस्वरूपं यत्र प्रतिपाद्यते तदागमशास्त्रं भण्यते । こち अर्थात् वीतराग सर्वज्ञदेव के द्वारा कथित षड्द्रव्य एवं सप्ततत्त्वादि का सम्यक् श्रद्धान एवं ज्ञान तथा व्रतादि के अनुष्ठान रूप चारित्र, इस प्रकार जिसमें भेदरत्नत्रय का स्वरूप प्रतिपादित किया गया है, उसको आगमशास्त्र Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 747 कहते हैं। 3. आगम सर्वज्ञ प्रणीत है- आगम: सर्वज्ञेन निरस्तरागद्वेषेण प्रणीतः उपेयोपायतत्त्वस्य ख्यापकः अर्थात् रागद्वेष जिसके निरस्त हो गए हैं, वैसे सर्वज्ञों के द्वारा प्रणीत आगम है, जो प्राप्तव्य एवं प्राप्ति के साधनों का निरूपक होता है। 4. आगम आप्तवचन है-आप्त पुरुषों की वाणी आगम हैं, इसके अनेक प्रमाण मिलते हैं जिनवाणी- जैनागम साहित्य विशेषाङ्क ऐसे २३ 01. अत्तस्स वा वयणं आगमो अर्थात् आप्त का वचन आगम है। 02. आगमो हयाप्तवचनमाप्तं दोषक्षयाद् विदुः । 7 03. आगमः... ..आप्तप्रणीतः अर्थात् आगम आप्तप्रणीत हैं। 04. आप्ाव्याहृतिरागमः अर्थात् आप्त द्वारा व्याहत आगम है। ०६ 05. आप्तवचनादिनिबंधनमर्थज्ञानमागमः अर्थात् आप्तवचन से जो अर्थ का ज्ञान होता है, वह आगम है । 06. आप्तोक्तिजार्थविज्ञानमागमः अर्थात् आप्त उक्ति से उत्पन्न अर्थ का ज्ञान होता है, वह आगम है । 07. आप्तवचनादाविर्भूतमर्थसंवेदनमागमः उपचारात् आप्तवचनं चेति " अर्थात् आप्तवचन से जो अर्थ ज्ञान (अर्थसंवेदन) उत्पन्न होता है, वह आगम है। गौण रूप से आप्तवचन ही आगम है। איכ 08. अबाधितार्थ प्रतिपादकम् आप्तवचनं आगमः" अर्थात् अबाधित अर्थ का प्रतिपादक आप्तवचन आगम कहलाता है। 09. आप्तेन हि क्षीणदोषेण प्रत्यक्षज्ञानेन प्रणीत आगमो भवति' अर्थात् जिसके सभी दोष समाप्त हो गए हैं, ऐसे प्रत्यक्ष ज्ञानियों के द्वारा प्रणीत आगम है। 5. गुरु परम्परा से प्राप्त ज्ञान-विज्ञान आगम है ३६ 01. आचार्य पारम्पर्येणागच्छतीत्यागम् अर्थात् जो आचार्य -- परम्परा, गुरु-शिष्य परम्परा से प्राप्त होता है वह आगम है। こ 02. गुरुपारम्पर्येणागच्छत्यागमः अर्थात् जो गुरु परम्परा से आता है। वह आगम है। 03. तदुपदिष्टं बुद्ध्यतिशयर्द्धियुक्त गणधरावघारितं श्रुतम् अर्थात् केवली भगवान् के द्वारा कहा गया तथा अतिशय बुद्धि एवं ऋद्धि के धारक गणधर देवों के द्वारा जो धारण किया जाता है वह आगम है (श्रुत है)। 04. आगच्छतीति आचार्यपरम्परावासनाद्वारेणेत्यागमः " अर्थात् जो तत्त्व Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ | 'आगम' शब्द विमर्श आचार्य परम्परा से वासित होकर आता है, वह आगम है। 6. पूर्वापर अविरुद्धवाणी आगम है 01. पुव्वावरदोसविरहियं अर्थात् पूर्वापर दोषों से जो रहित वाणी है वह आगम है। 02. पूर्वापरविरोधशंकारहितस्तदालोचनातत्त्वरुचिः आगम उच्यते, अर्थात् पूर्वापर विरोध एवं शंकादि से रहित आलोचना एवं तत्त्वचि को आगम कहते हैं। 03. पूर्वापरविरुद्धादेयंपेतो दोषसंहतेः। द्योतकः सर्वभावानागाप्तव्याहृतिरागमः।।* अर्थात् पूर्वापरविरद्ध दोषसमूह से रहित, सभी भावों का द्योतक आप्तवचन आगम है। 04. पूर्वापराविरुद्धार्थप्रत्यक्षारिबाधितम् अर्थात् पूर्वापर अविरुद्ध एवं प्रत्यक्षादि से अबाधित आगम होता है। 7. हेयोपादेय का प्ररूपक है आगम- संयम जीवन के विकास के लिए या जीवन के उत्कर्ष के लिए कौन-कौनसी वस्तुएं त्याज्य हैं और कौनसी ग्राह्य हैं, इसका निरूपण आगम में किया जाता है। 01. हेयोपादेयरूपेण चतुर्वर्गसमाप्रयात् । कालत्रयगतानर्थान् गमयन्नागमः स्मृतः ।। (उपासकाध्ययन, सोमदेवसूरिकृत) हेय और उपादेय रूप से चार वर्गों का समाश्रयण कर तीनों काल में विद्यमान पदार्थों का जो निरूपण करता है. वह आगम है! 02. भव्यजनानां हेयोपादेयतत्त्वप्रतिपत्तिहेतुभूतमागमः अर्थात् भव्यजनों के लिए हेय और उपादेय तत्त्वों का प्रतिपत्तिकारक आगम है। 8. निर्वाण और संसार का निरूपक आगम है यत्र निर्वाण-संसारौ निगद्येते सकारणौ। सर्वबाधकविनिर्मुक्त आगमोऽसौ।।" अर्थात् जहां पर निर्वाण और संसार की सकारण व्याख्या की जाए और जो सभी बाधक तत्त्वों से विनिर्मुक्त है, वह आगम है। 9. यथार्थ तत्त्वों का निरूपक आगम है . 01. आगमनमागमः - आङ् अभिविधिमर्यादार्थत्वात् अभिविधिना मर्यादया वा गमः परिच्छेद आगम । 10. यथार्थ तत्त्वों का प्रतिपादक आगम 01. आगम्यन्ते परिच्छिद्यन्ते अतीन्दिया पदार्थाः अनेनेत्यागमः' अर्थात् जिससे अतीन्द्रिय पदार्थों का यथार्थ ज्ञान हो वह आगम है। 02. आगम्यन्ते मर्यादयाऽवबुध्यन्तेऽर्था अनेन इति आगमः अर्थात् जिससे मर्यटापूर्वक अर्थ अवबोध(पदार्थ का यथार्थज्ञान) होता है. उसने Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 176 - जिनवाणी- जैनागम-साहित्य विशेषाङ्क आगम कहते हैं। 03. मर्यादया वा यथावस्थितप्ररूपणया गम्यन्ते परिच्छिद्यन्ते येन स आगमः । अर्थात मर्यादापूर्वक या यथावस्थित रूप से पदार्थों का यथार्थ ज्ञान जिसके द्वारा होता है वह आगम है। आगम वर्गीकरण आगम की अनेक परम्पराएँ हैं, उनमें जैन आगम प्रथित हैं। जैन साहित्य का प्राचीनतम एवं प्रमुख भाग आगम है। समवायांग में आगम के दो भेट प्राप्त होते हैं- १. द्वादशांग गणिपिटक और २ . चतुर्दश पूर्व । नन्दीसूत्र में श्रुतज्ञान (आगम) के दो भेद किए गए हैं... अंगप्रविष्ट और अंगबाह्य। इस प्रकार नन्दीसूत्र की रचना तक आगम के तीन वर्गीकरण हो जाते है- १. पूर्व २. अंगप्रविष्ट और ३. अंगबाह्य । आज अंगप्रविष्ट एवं अंगबाह्य उपलब्ध हैं, पूर्व उपलब्ध नहीं हैं। वर्गीकरण के आधार १. जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण ने अंगप्रविष्ट और अंगबाह्य के भेद निरूपण में तीन कारण प्रस्तुत किए हैं-- गणहरथेरकयं वा आएसा मुक्कवागरणओ वा। धुवचलविसेसओ वा अंगाणंगेसु नाणत्तं ।।। अर्थात् जो १.गणभरकृत होता है २. गणधर द्वारा प्रश्न किए जाने पर तीर्थकर द्वारा प्रतिपादित होता है ३. ध्रुव एवं शाश्वत सत्यों से संबंधित होना है, सुदीर्घकालोन होता है, वहीं श्रुत 'अंग प्रविष्ट' कहा जाता है। इसके विपरीत जो १. स्थविरकृत होता है. २. जो प्रश्न पूछे बिना तीर्थकर द्वारा प्रतिपादित होता है ३. जो चल होता है, तात्कालिक या सामयिक होता है, उस श्रुत का नाम अंग बाह्य है। २. वक्ता के आधार पर ही आगमों के अंगप्रविष्ट एवं अंगबाह्य दो भेद करते हैं। तत्त्वार्थ भाष्य (१.२०) में लिखित है- वक्तविशेषाद द्वैविध्यम्।' सर्वार्थसिद्धिकार ने तीन प्रकार के वक्ता का निर्देश किया है-त्रयो वक्तार:-सर्वज्ञस्तीर्थकर: इतरो वा श्रुतकेवली आरातीयश्चेति (सर्वार्थ: १.२०) अर्थात् १. सर्वज्ञ तीर्थकर २. श्रुत केवली और ३. आरातीय आचार्य। आरातीय आचार्यों के द्वारा विरचित ज्ञानराशि को अंगबाह्य कहते ३. तीर्थंकरों द्वारा अर्थ रूप में भाषिन तथा गणधरों द्वारा ग्रंथ रूप से ग्रथित आगम अंगप्रविष्ट कहलाते हैं। स्थविरों सम्पूर्ण श्रुतज्ञानी और दशपूर्वी आचार्यों द्वारा विरचित आगम अंगबाह्म कहलाते है। अंगप्रविष्ट आगमगाटशांक के नाम से जान' जाता है. ?. आचार Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'आगम' शब्द विमर्श 77 सूत्रकृत ३. स्थान ४. समवाय ५ . भगवती ६. ज्ञाताधर्मकथा ७. उपासकदशा ८. अन्तकृद्दशा ९. अनुत्तरौपपातिक १०. प्रश्नव्याकरण ११. विपाक और १२. दृष्टिवाद। इनमें ११ अंग ही उपलब्ध हैं, दृष्टिवाद उपलब्ध नहीं है। अंगबाह्य आगम-साहित्य में उपांग, छेद सूत्र, मूलसूत्र एवं चूलिका सूत्र का संग्रहण किया जाना है। उपांग बारह हैं- औपपातिक, राजप्रश्नीय, जीवाभिगम, प्रज्ञापना, सूर्यप्रज्ञप्ति, जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति, चन्द्रप्रज्ञप्ति , कल्पिका, कल्पावतंसिका, पुष्पिका, पुष्पचूलिका एवं वृष्णिदशा। चार छेदसूत्र हैंव्यवहार, बृहत्कल्प, निशीथ और दशाश्रुतस्कन्ध। चार मूलसूत्र हैंदशवैकालिक, उत्तराध्ययन, नन्दी एवं अनुयोगद्वार सूत्र। इस प्रकार ३२ आगम हैं। इनको संख्या ४, एवं ८४ तक मानते हैं। संदर्भ ०१. संस्कृत भातुकोष-संपादक युधिष्ठिर मीमांसक, बहालगढ़ सोनीपत, हरियाणा! वि. सं. २०४६, पृ. ३४ २२. संस्कृत धातुकोष, पृ.८ ०३. अमरकोश ३.३.२३९, पृ. ४४०, सुधाव्याख्य समुपेत ०४. पाणिनि, अष्टाध्यायी, २.१.१३ २५.आवश्यक नियुक्ति, मलयवृत्ति २१, पृ. ४९ ०६.अमरकोश २.८.९५, पृ. २९६ ७७. ईश्वरप्रत्यभिज्ञा विवृत्ति-विनर्शिनी, आचार्य अभिनव गुप्त , पृ. ९७ ०८.रूद्रयामल तन्त्र (वाचस्पत्यम् प्रथम खण्ड. पृ. ६१६ र देखें पाद टिप्पणी) ०९. स्वच्छन्दोद्योत, पटल ४, पृ. २१४ १० ईश्वरप्रत्यभिज्ञाविवृत्तिविमर्शिनी, अध्याय २, पृ. ९६ ११. भारतीय दर्शन, बलदेव उपाध्याय, पृ. ६३१ पर उद्धृत १२. योगसूत्र १.७ पर व्यासभाष्य १३. सांख्य सूत्र ११०१ १४. सांख्यकारिका,५ १५. सांख्यकारिका ५ पर माठरति १६. सांख्यकारिका ५ पर १७. न्यायसूत्र १.१.७ १८. नियमसार गाथा । १९. नियमसार वृत्ति १.५ २०. धर्मरत्नप्रबोध, स्वोपज्ञवृत्ति, पत्र. ५७ २१. पंचास्तिकायतात्पर्यवृत्ति १७३.२२५ २२. भगवती आराधना, विजयोटया टीका २३ २३. अनुयोगद्वार चूर्णि.१६ २४.सांख्यकारिका ५ पर माठरवृत्ति २५. तत्त्वार्थभाष्यवृति, सिद्रसेनगणि १.३, पृ. ४० २६.धवलापुराण उतरार्थ, पृ. १२३ २७. परीक्षामुख ३.५९. न्यायदीपिका पृ. ११२ २८.आचारसार, कोरनन्दि ३.. Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ | 78... ..... . जिनवाणी- जैनागम-साहित्य विशेषाङ्क 29 प्रमाणनयतत्त्वालोक 4.5, जैन तर्क भाषा , '5.15 30. रत्नकरण्डक श्रावकाचार टीका-४ 31. अनुयोगदार हारिभद्रीयवृत्ति 4.38. पृ. 25 32. तव मलधारीयटीकापत्र 202 33. राजवार्तिक 6.13.2 34. भाष्यानुसारिणी टीका, पृ. 87 3... नियमसार गाथा 8 36. भाष्यानुसारिणी वृनि 1.3. पृ. 40 37. धवला 3.12.123 38. धर्मपरीक्षा 18.74 39. जीतकल्पसूत्र विषमपदव्याख्या, श्री चन्द्रसूरि, पृ.३३ 40. रत्नाकरावतारिका 4.1. पृ. 35 41. आवश्यकनियुक्ति, मलयवृत्ति 21, पृ. 33 42. नन्दोसूत्र 43 43. विशेषावश्यकभाष्य, गाथा 552 mmmm