Book Title: Agam Sahitya me Prakirnako Sthan Mahattva
Author(s): 
Publisher: Z_Vijyanandsuri_Swargarohan_Shatabdi_Granth_012023.pdf

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Page 3
________________ चतीन्द्रसरिरमारकग्रन्य - जैन आगम एवं साहित्य अभी-अभी 'सम्बोधि' पत्रिका में श्री ललित कुमार का एक शोध-लेख की रचना के पश्चात् लगभग पाँचवीं-छठी शती में अस्तित्व में आया प्रकाशित हुआ है, जिसमें उन्होंने पुरातात्त्विक आधारों पर यह सिद्ध है। चूँकि मूलाचार और भगवती-आराधना दोनों ग्रन्थों में गुणस्थान किया है कि देवेन्द्रस्तव की रचना ई०पू० प्रथम शती में या उसके का उल्लेख मिलता है, अत: ये ग्रन्थ पाँचवीं शती के बाद की रचनाएँ भी कुछ पूर्व हुई होगी। प्रकीर्णकों में निम्नलिखित प्रकीर्णक वीरभद्र हैं जबकि आतुरप्रत्याख्यान, महाप्रत्याख्यान और मरणसमाधि का उल्लेख की रचना कहे जाते हैं-चउसरण, आउरपच्चक्खाण, भत्तपरिण्णा और नन्दीसूत्र में होने से ये ग्रन्थ पाँचवीं शती के पूर्व की रचनाएँ हैं। आराधनापताका। आराधनापताका की प्रशस्ति में 'विक्कमनिवकालाओ २. मूलाचार में संक्षिप्तप्रत्याख्यान और महाप्रत्याख्यान नामक अट्ठत्तरिमे-समासहस्सम्मि' या पाठभेद से अट्ठभेद से समासहस्सम्मि' अध्ययन बनाकर उनमें आतुरप्रत्याख्यान और महाप्रत्याख्यान नामक के उल्लेख के अनुसार इनका रचनाकाल ई० सन् १००८ या १०७८ दोनों ग्रन्थों को समाहित किया गया है। इससे यही सिद्ध होता है सिद्ध होता है। इस प्रकार प्रकीर्णक नाम से अभिहित ग्रन्थों में जहाँ कि ये ग्रन्थ पूर्ववर्ती हैं और मूलाचार परवर्ती है। ऋषिभाषित ई० पू० पाँचवीं शती की रचना है, वहीं आराधनापताका ३. भगवती-आराधना में भी मरणविभक्ति को अनेक गाथाएँ समान - ई० सन् की दसवीं या ग्यारहवीं शती के पूर्वार्द्ध की रचना है। इस रूप से मिलती हैं। वर्ण्य-विषय की समानता होते हुए भी भगवतीप्रकार प्रकीर्णक साहित्य में समाहित ग्रन्थ लगभग पन्द्रह सौ वर्ष की आराधना में जो विस्तार है, वह मरणविभक्ति में नहीं है। प्राचीन स्तर सुदीर्घ अवधि में निर्मित होते रहे हैं, फिर भी चउसरण, परवर्ती के ग्रन्थ मात्र श्रुतपरम्परा से कण्ठस्थ किये जाते थे, अत: वे आकार आउरपच्चक्खाण, भत्तपरिण्णा, संथारग और आराहनापडाया को में संक्षिप्त होते थे ताकि उन्हें सुगमता से याद रखा जा सके, जबकि छोड़कर शेष प्रकीर्णक ई० सन् की पाँचवी शती के पूर्व की रचनाएँ लेखन-परम्परा के विकसित होने के पश्चात् विशालकाय ग्रन्थ निर्मित हैं। ज्ञातव्य है कि महावीर जैन विद्यालय, बम्बई से प्रकाशित होने लगे। मूलाचार और भगवती-आराधना दोनों विशाल ग्रन्थ हैं, 'पइण्णयसुत्ताई' में आउरपच्चक्खाण के नाम से तीन ग्रन्थ उपलब्ध अत: वे प्रकीर्णकों से अपेक्षाकृत परवर्ती हैं। वस्तुतः प्रकीर्णक साहित्य होते हैं, इनमें वीरभद्र रचित आउरपच्चक्खाण परवर्ती है, किन्तु नन्दीसूत्र के वे सभी ग्रन्थ जो नन्दीसूत्र और पाक्षिकसूत्र में उल्लिखित हैं और में उल्लिखित आउरपच्चक्खाण तो प्राचीन ही है। वर्तमान में उपलब्ध हैं, निश्चित ही ईसा की पाँचवीं शती पूर्व के है। यहाँ पर यह भी ज्ञातव्य है कि प्रकीर्णकों की अनेक गाथाएँ श्वेताम्बर- प्रकीर्णकों में ज्योतिष्करण्डक नामक प्रकीर्णक का भी महत्त्वपूर्ण मान्य अंग-आगमों एवं उत्तराध्ययनसूत्र, दशवैकालिकसूत्र जैसे प्राचीन स्तर स्थान है। इसमें श्रमण गन्धहस्ती और प्रतिहस्ती का उल्लेख मिलता के आगम ग्रन्थों में भी पायी जाती हैं। गद्य अंग-आगमों, में पद्यरूप है। इसमें यह भी कहा गया है कि जिस विषय का सूर्यप्रज्ञप्ति में में इन गाथाओं की उपस्थिति भी यही सिद्ध करती है कि उनमें ये विस्तार से विवेचन है, उसी को संक्षेप में यहाँ दिया गया है। तात्पर्य गाथाएँ प्रकीर्णकों से अवतरित हैं। यह कार्य वलभीवाचना के पूर्व हुआ यह है कि यह प्रकीर्णक सूर्यप्रज्ञप्ति के आधार पर निर्मित किया गया है, अत: फलित होता है कि नन्दीसूत्र में उल्लिखित प्रकीर्णक है। इसमें कर्ता के रूप में पादलिप्ताचार्य का भी स्पष्ट उल्लेख हुआ वलभीवाचना के पूर्व रचित हैं। तंदुलवैचारिक का उल्लेख दशवैकालिक है। पादलिप्ताचार्य का उल्लेख नियुक्ति-साहित्य में भी उपलब्ध होता की प्राचीन अगस्त्यसिंह चूर्णि में है। इससे उसकी प्राचीनता सिद्ध है (लगभग ईसा की प्रथम शती)। इससे यही फलित होता है कि हो जाती है। यह चूर्णि अन्य चूर्णियों की अपेक्षा प्राचीन मानी गयी है। ज्योतिष्करण्डक का रचनाकाल भी ई० सन् की प्रथम शती है। अंगबाह्य दिगम्बर-परम्परा में मूलाचार, भगवती-आराधना और कुन्दकुन्द आगमों में सूर्यप्रज्ञप्ति, जिसके आधार पर इस ग्रन्थ की रचना हुई, के ग्रन्थों में प्रकीर्णकों की सैकड़ों गाथाएँ अपने शौरसेनी रूपान्तरण एक प्राचीन ग्रन्थ है क्योंकि इसमें जो ज्योतिष सम्बन्धी विवरण हैं, में मिलती हैं। मूलाचार के संक्षिप्त प्रत्याख्यान और महाप्रत्याख्यान वह ईसवी पूर्व के हैं, उसके आधार पर भी इसकी प्राचीनता सिद्ध नामक अध्यायों में तो आतुरप्रत्याख्यान एवं महाप्रत्याख्यान इन दोनों होती है। साथ ही इसकी भाषा में अर्धमागधी रूपों की प्रचुरता भी प्रकीर्णकों की लगभग सत्तर से अधिक गाथाएँ हैं। इसी प्रकार इसे प्राचीन ग्रन्थ सिद्ध करती है। मरणविभक्ति प्रकीर्णक की लगभग शताधिक गाथाएँ भगवती-आराधना अतः प्रकीर्णकों के रचनाकाल की पूर्व सीमा ई०पू० चतुर्थ-तृतीय में मिलती हैं। इससे यही फलित होता है कि ये प्रकीर्णक ग्रन्थ मूलाचार शती से प्रारम्भ होती है। परवर्ती कुछ प्रकीर्णक जैसे कुशलानुबंधि एवं भगवती-आराधना से पूर्व के हैं। मूलाचार एवं भगवती-आराधना अध्ययन, चतुःशरण, भक्तपरिज्ञा आदि वीरभद्र की रचना माने जाते के रचनाकाल को लेकर चाहे कितना भी मतभेद हो, किन्तु इतना हैं, वे निश्चित ही ईसा की दसवीं शती की रचनाएँ हैं। इस प्रकार निश्चित है कि ये ग्रन्थ ईसा की छठी शती से परवर्ती नहीं हैं। प्रकीर्णक साहित्य का रचनाकाल ई०पू० चतुर्थ शती से प्रारम्भ होकर यद्यपि यह प्रश्न उठाया जा सकता है कि प्रकीर्णक में ये गाथाएँ ईसा की दसवीं शती तक अर्थात् लगभग पन्द्रह सौ वर्षों की सुदीर्घ इन यापनीय/अचेल परम्परा के ग्रन्थों से ली गयी होंगी, किन्तु अनेक अवधि तक व्याप्त है। प्रमाणों के आधार पर यह दावा निरस्त हो जाता है। जिनमें से कुछ प्रमाण इस प्रकार हैं प्रकीर्णकों के रचयिता १. गुणस्थान सिद्धान्त उमास्वाति के तत्त्वार्थसूत्र और आचारांगनियुक्ति प्रकीर्णक साहित्य के रचनाकाल के सम्बन्ध में विचार करते हुए Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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