Book Title: Agam Sahitya me Prakirnako Sthan Mahattva
Author(s): 
Publisher: Z_Vijyanandsuri_Swargarohan_Shatabdi_Granth_012023.pdf
Catalog link: https://jainqq.org/explore/210160/1

JAIN EDUCATION INTERNATIONAL FOR PRIVATE AND PERSONAL USE ONLY
Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम साहित्य में प्रकीर्णकों का स्थान, महत्त्व, रचनाकाल एवं रचयिता आगम-साहित्य में प्रकीर्णकों का स्थान आचार्य जिनप्रभ के विधिमार्गप्रपा (लगभग ईसा की तेरहवीं शती) में किसी भी धार्मिक परम्परा का आधार उसके धर्मग्रन्थ होते हैं, मिलता है। इससे यह फलित होता है कि तेरहवीं शती से पूर्व आगमों जिन्हें वह प्रमाणभूत मानकर चलती है। जिस प्रकार मुसलमानों के के वर्गीकरण में कहीं भी प्रकीर्णक वर्ग का स्पष्ट निर्देश नहीं है, किन्तु लिये कुरान, ईसाइयों के लिये बाइबिल, बौद्धों के लिये त्रिपिटक और इससे यह निष्कर्ष नहीं निकाल लेना चाहिये कि उसके पूर्व न तो हिन्दुओं के लिये वेद प्रमाणभूत ग्रन्थ हैं, उसी प्रकार जैनों के लिये प्रकीर्णक साहित्य था और न ही इनका कोई उल्लेख था। आगम प्रमाणभूत ग्रन्थ हैं। सर्वप्रथम तत्त्वार्थसूत्र, नन्दीसूत्र और अंग-आगमों में सर्वप्रथम समवायांगसूत्र में प्रकीर्णक का उल्लेख पाक्षिकसूत्र में आगमों का वर्गीकरण अंगबाह्य के रूप में किया गया हुआ है। उसमें कहा गया है कि भगवान् ऋषभदेव के चौरासी हजार है। परम्परागत अवधारणा यह है कि तीर्थङ्करों द्वारा उपदिष्ट और गणधरों शिष्यों द्वारा रचित चौरासी हजार प्रकीर्णक थे। परम्परागत अवधारणा द्वारा रचित ग्रन्थ अंगप्रविष्ट आगम कहे जाते हैं। इनकी संख्या बारह यह है कि जिस तीर्थङ्कर के जितने शिष्य होते हैं, उसके शासन में है, जो श्वेताम्बर और दिगम्बर दोनों परम्पराओं में समान रूप से स्वीकृत उतने ही प्रकीर्णक ग्रन्थों की रचना होती है। सामान्यतया प्रकीर्णक है। इन अंग-आगमों के नाम हैं-१. आचारांग, २. सूत्रकृतांग, शब्द का तात्पर्य होता है-विविध ग्रन्थ। मुझे ऐसा लगता है कि प्रारम्भ ३. स्थानांग, ४. समवायांग, ५.व्याख्याप्रज्ञप्ति, ६. ज्ञाताधर्मकथांग, में आगमों के अतिरिक्त सभी ग्रन्थ प्रकीर्णक की कोटि में माने जाते ७. उपासकदशांग, ८. अन्तकृद्दशांग, ९. अनुत्तरौपपातिकदशा थे। अंग-आगमों से इतर आवश्यक, आवश्यक-व्यतिरिक्त, कालिक १०. प्रश्नव्याकरणदशा, ११. विपाकदशा और १२. दृष्टिवाद। इनके एवं उत्कालिक के रूप में वर्गीकृत सभी ग्रन्थ प्रकीर्णक कहलाते थे। नाम और क्रम के सम्बन्ध में भी दोनों परम्पराओं में एकरूपता है। मेरे इस कथन का प्रमाण यह है कि षट्खण्डागम की धवला टीका मूलभूत अन्तर यह है कि जहाँ श्वेताम्बर-परम्परा आज भी दृष्टिवाद में बारह अंग-आगमों से भिन्न अंगबाह्य ग्रन्थों को प्रकीर्णक नाम दिया के अतिरिक्त शेष ग्यारह अंगों का अस्तित्व स्वीकार करती है, वहाँ गया है। उसमें उत्तराध्ययन, दशवैकालिक, ऋषिभाषित आदि को भी दिगम्बर-परम्परा आज मात्र दृष्टिवाद के आधार पर निर्मित कसायपाहुड, प्रकीर्णक ही कहा गया है। यह भी ज्ञातव्य है कि प्रकीर्णक नाम से षटखण्डागम आदि के अतिरिक्त इन अंग-आगमों को विलुप्त मानती है। अभिहित अथवा प्रकीर्णव वर्ग में समाहित सभी ग्रन्थों के नाम के अंगबाह्य वे ग्रन्थ हैं जो जिनवचन के आधार पर स्थविरों के अन्त में प्रकीर्णक शब्द ना मिलता है। मात्र कुछ ही ग्रन्थ ऐसे हैं द्वारा लिखे गए हैं। नन्दीसूत्र में अंग-बाह्य आगमों को भी प्रथमतः जिनके नाम के अन्त में पर्णक शब्द का उल्लेख हुआ है। फिर दो भागों में विभाजित किया गया है-१. आवश्यक और २. आवश्यक भी इतना निश्चित है कि प्रकीर्णकों का अस्तित्व अति प्राचीन काल व्यतिरिक्त। आवश्यक के अन्तर्गत सामायिक, चतुर्विंशतिस्तव, वंदना में भी रहा है, चाहे उन्हें प्रकीर्णक नाम से अभिहित किया गया हो प्रतिक्रमण, कायोत्सर्ग और प्रत्याख्यान- ये छ: ग्रन्थ सम्मिलित रूप अथवा न किया गया हो। नन्दीसूत्रकार ने अंग-आगमों को छोड़कर से आते हैं, जिन्हें आज आवश्यकसूत्र के नाम से जाना जाता है। आगम रूप में मान्य सभी ग्रन्थों को प्रकीर्णक कहा है। अत: 'प्रकीर्णक' इसी ग्रन्थ में आवश्यक-व्यतिरिक्त आगम-ग्रन्थों को भी पुनः दो भागों शब्द आज जितने संकुचित अर्थ में है उतना पूर्व में नहीं था। उमास्वाति में विभाजित किया गया है-१. कालिक और २. उत्कालिक। आज और देववाचक के समय में तो अंग-आगमों के अतिरिक्त शेष सभी प्रकीर्णकों में वर्गीकृत नौ ग्रन्थ इन्हीं दो विभागों के अन्तर्गत उल्लिखित आगमों को प्रकीर्णक में ही समाहित किया जाता था। इससे जैन-आगमहैं। इसमें कालिक के अन्तर्गत ऋषिभाषित और द्वीपसागरप्रज्ञप्ति, इन साहित्य में प्रकीर्णक का क्या स्थान है, यह सिद्ध हो जाता है। प्राचीन दो प्रकीर्णकों का उल्लेख मिलता है, जबकि उत्कालिक के अन्तर्गत दृष्टि से तो अंग-आगमों के अतिरिक्त सम्पूर्ण जैन-आगमिक साहित्य देवेन्द्रस्तव, तन्दुलवैचारिक , चन्द्रवेध्यक, गणिविद्या, आतुरप्रत्याख्यान, प्रकीर्णक वर्ग के अन्तर्गत आता है। महाप्रत्याख्यान और मरणविभक्ति इन सात प्रकीर्णकों का उल्लेख है। वर्तमान में प्रकीर्णक-वर्ग के अन्तर्गत दस ग्रन्थ मानने की जो प्राचीन आगमों में ऐसा कहीं भी स्पष्ट उल्लेख नहीं है कि अमुक- परम्परा है, वह न केवल अर्वाचीन है अपितु इस सन्दर्भ में श्वेताम्बरअमुक ग्रन्थ प्रकीर्णक के अन्तर्गत आते हैं। नन्दीसूत्र और पाक्षिकसूत्र आचार्यों में परस्पर मतभेद भी है कि इन दस प्रकीर्णकों में कौन दोनों में ही आगमों के विभिन्न वर्गों में कहीं भी प्रकीर्णक-वर्ग का से ग्रन्थ समाहित किये जाएँ। प्रद्युम्नसूरि ने विचारसारप्रकरण (चौदहवीं उल्लेख नहीं है। यद्यपि इन दोनों ग्रन्थों में आज हम जिन्हें प्रकीर्णक शताब्दी) में पैंतालीस आगमों का उल्लेख करते हुए कुछ प्रकीर्णकों मान रहे हैं, उनमें से अनेक का उल्लेख कालिक एवं उत्कालिक आगमों का उल्लेख किया है। आगम-प्रभाकर मुनिपुण्यविजयजी ने चार के अन्तर्गत हुआ है। यहाँ यह भी ज्ञातव्य है कि आगमों का अंग, अलग-अलग सन्दर्भो में प्रकीर्णकों की अलग-अलग सूचियाँ प्रस्तुत उपांग, छेद, मूल, चूलिका और प्रकीर्णक के रूप में उल्लेख सर्वप्रथम की हैं।" Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - चीन्दरिमारकग्रन्य - जैन आगम एवं साहित्य - अत: दस प्रकीर्णक के अन्तर्गत किन-किन ग्रन्थों को समाहित प्रकीर्णक में मुख्य रूप से चतुर्विध संघ के महत्त्व को स्पष्ट करते हुए करना चाहिये, इस सन्दर्भ में श्वेताम्बर-आचार्यों में कहीं भी एकरूपता जैन-साधना का परिचय दिया गया है। आतुरप्रत्याख्यान, महाप्रत्याख्यान, देखने को नहीं मिलती है। इससे यह फलित होता है कि प्रकीर्णक मरणसमाधि, संस्तारक, आराधनापताका, आराधनाप्रकरण, भक्तप्रत्याख्यान ग्रन्थों की संख्या दस है, यह मान्यता न केवल परवर्ती है अपितु उसमें आदि प्रकीर्णक जैन-साधना के अन्तिम चरण समाधिमरण की पूर्व तैयारी एकरूपता का भी अभाव है। भिन्न-भिन्न श्वेताम्बर आचार्य भिन्न-भिन्न और उसकी साधना की विशेष विधियों का चित्रण प्रस्तुत करते हैं। इस सूचियाँ प्रस्तुत करते रहे हैं उनमें कुछ नामों में तो एकरूपता होती प्रकार प्रकीर्णक साहित्य में जैनविद्या के विविध पक्षों का समावेश हुआ है, किन्तु सभी नामों में एकरूपता का अभाव पाया जाता है। जहाँ है, जो जैन-साहित्य के क्षेत्र में उनके मूल्य और महत्त्व को स्पष्ट कर देता है। तक दिगम्बर-परम्परा का प्रश्न है उसमें तत्त्वार्थभाष्य का अनुसरण करते हुए अंग-आगमों के अतिरिक्त अन्य ग्रन्थों को प्रकीर्णक कहने की ही प्रकीर्णक साहित्य का रचनाकाल परम्परा रही है। अत: प्रकीर्णकों की संख्या अमुक ही है, यह कहने जहाँ तक प्रकीर्णकों की प्राचीनता का प्रश्न है उनमें से अनेक का कोई माणिक आधार नहीं है। वस्तुतः अंग-आगम साहित्य के प्रकीर्णकों का उल्लेख नन्दीसूत्र में होने से वे उससे प्राचीन सिद्ध हो अतिरक्ति सम्पूर्ण अंगबाह्य आगम-साहित्य प्रकीर्णक के अन्तर्गत आते जाते हैं। मात्र यही नहीं प्रकीर्णक नाम से अभिहित ग्रन्थों में से अनेक हैं। इस प्रकार प्रकीर्णक साहित्य जैन-आगम-साहित्य के अति विशाल तो अंग-आगमों की अपेक्षा प्राचीन स्तर के रहे हैं, क्योंकि ऋषिभाषित भाग का परिचायक है और उनकी संख्या को दस तक सीमित करने का स्थानांग एवं समवायांग में उल्लेख है। ऋषिभाषित आदि कुछ का दृष्टिकोण पर्याप्त रूप से परवर्ती और विवादास्पद है। ऐसे प्रकीर्णक हैं जो भाषा-शैली, विषय-वस्तु आदि अनेक आधारों पर आचारांगसूत्र के प्रथम श्रुतस्कन्ध को छोड़कर शेष आगमों की अपेक्षा प्रकीर्णक साहित्य का महत्त्व भी प्राचीन हैं। ऋषिभाषित उस काल का ग्रन्थ है, जब जैनधर्म सीमित यद्यपि वर्तमान में श्वेताम्बर जैनों के स्थानकवासी और तेरापंथी सीमाओं में आबद्ध नहीं हुआ था वरन् उसमें अन्य परम्पराओं के श्रमणों सम्प्रदाय प्रकीर्णकों को आगमों के अन्तर्गत मान्य नहीं करते हैं, किन्तु को भी आदर पूर्वक स्थान प्राप्त था। इस ग्रन्थ की रचना उस युग प्रकीर्णकों की विषय-वस्तु का अध्ययन करने से ऐसा लगता है कि में सम्भव नहीं थी, जब जैनधर्म भी सम्प्रदाय के क्षुद्र घेरे में आबद्ध अनेक प्रकीर्णक अंग-आगमों की अपेक्षा भी साधना की दृष्टि से हो गया। लगभग ई० पू० तीसरी शताब्दी से जैनधर्म में जो साम्प्रदायिक महत्त्वपूर्ण हैं। यद्यपि यह सत्य है कि आचार्य वीरभद्र द्वारा ईसा की अभिनिवेश दृढ़ हो रहे थे, उसके संकेत सूत्रकृतांगसूत्र और भगवतीसूत्र दसवीं शती में रचित कुछ प्रकीर्णक अर्वाचीन है, किन्तु इससे सम्पूर्ण जैसे प्राचीन आगमों में भी मिल रहे हैं। भगवतीसूत्र में जिस मंखलिपुत्र प्रकीर्णकों की अर्वाचीनता सिद्ध नहीं होती। विषय-वस्तु की दृष्टि से गोशालक की कटु आलोचना है, उसे ऋषिभाषित अर्हत् ऋषि कहता प्रकीर्णक साहित्य में जैनविद्या के विविध पक्षों पर प्रकाश डाला गया है। आतुरप्रत्याख्यान, महाप्रत्याख्यान, तंदुलवैचारिक, मरणविभक्ति है। जहाँ तक देवेन्द्रस्तव और द्वीपसागरप्रज्ञप्ति प्रकीर्णक का प्रश्न है, आदि प्रकीर्णक साहित्य के ऐसे ग्रन्थ हैं-जो सम्प्रदायगत आग्रहों वे मुख्यतः जैन खगोल और भूगोल की चर्चा करते हैं। इसी प्रकार से मुक्त हैं। सूत्रकृतांगसूत्र में ऋषिभाषित के अनेक ऋषियों का तित्थोगाली प्रकीर्णक में भी जैन-काल-व्यवस्था का चित्रण विभिन्न सम्मानपूर्वक उल्लेख और उन्हें अर्हत् परम्परा द्वारा सम्मत माना जाना भौगोलिक क्षेत्रों के सन्दर्भ में हुआ है। ज्योतिष्करण्डक और गणिविद्या- भी यही सूचित करता है कि ऋषिभाषित इन अंग-आगमों से भी प्राचीन प्रकीर्णक का सम्बन्ध मुख्यतया जैन-ज्योतिष से है। तित्थोगाली प्रकीर्णक है। पुन: ऋषिभाषित जैसे कुछ प्राचीन प्रकीर्णकों की भाषा का अर्धमागधी मुख्यरूप से प्राचीन जैन-इतिहास को प्रस्तुत करता है। श्वेताम्बर-परम्परा स्वरूप तथा आगमों की अपेक्षा उनकी भाषा में महाराष्ट्री भाषा की में तित्थोगाली ही एकमात्र ऐसा प्रकीर्णक है जिसमें आगमज्ञान के क्रमिक अल्पता भी यही सिद्ध करती है कि ये ग्रन्थ प्राचीन स्तर के हैं। नन्दीसूत्र उच्छेद की बात कही गई है। सारावली प्रकीर्णक में मुख्य रूप से में प्रकीर्णक के नाम से अभिहित नौ ग्रन्थों का उल्लेख भी यही सिद्ध शत्रुञ्जय महातीर्थ की कथा और महत्त्व उल्लिखित है। तंदुलवैचारिक करता है कि कम से कम ये नौ प्रकीर्णक तो नन्दीसूत्र से पूर्ववर्ती प्रकीर्णक जैन-जीवविज्ञान का सुन्दर और संक्षिप्त परिचय प्रस्तुत करता हैं। नन्दीसूत्र का काल विद्वानों ने विक्रम की पाँचवीं शती माना है, है। इसी प्रकार अंगविद्या नामक प्रकीर्णक मानव-शरीर के अंग-प्रत्यंगों अत: ये प्रकीर्णक उससे पूर्व के हैं। इसी प्रकार समवायांगसूत्र में स्पष्ट के विवरण के साथ-साथ उनके शुभाशुभ लक्षणों का भी चित्रण करता रूप से प्रकीर्णकों का निर्देश भी यही सिद्ध करता है कि समवायांगसूत्र है और उनके आधार पर फलादेश भी प्रस्तुत करता है। इस प्रकार के रचनाकाल अर्थात् विक्रम की तीसरी शती में भी अनेक प्रकीर्णकों इस ग्रन्थ का सम्बन्ध शरीर-रचना एवं फलित ज्योतिष दोनों विषयों का अस्तित्व था। से है। गच्छाचार प्रकीर्णक में जैन-संघ-व्यवस्था का चित्रण उपलब्ध इन प्रकीर्णकों में देवेन्द्रस्तव के रचनाकार ऋषिपालित हैं। कल्पसूत्र होता है, जबकि चन्द्रवेध्यक प्रकीर्णक में गुरु-शिष्य के सम्बन्ध एवं स्थविरावली में ऋषिपालित का उल्लेख है। इनका काल ईसा-पूर्व प्रथम शिक्षा- सम्बन्धों का निर्देश है। वीरस्तव प्रकीर्णक में महावीर के विविध शती के लगभग है। इसकी विस्तृत चर्चा हमने देवेन्द्रस्तव (देविंदत्थओ) विशेषण के अर्थ की व्युत्पत्तिपरक व्याख्या की गई है। चतुःशरण की प्रस्तावना में की है" (इच्छुक पाठक उसे वहाँ देख सकते हैं)। Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतीन्द्रसरिरमारकग्रन्य - जैन आगम एवं साहित्य अभी-अभी 'सम्बोधि' पत्रिका में श्री ललित कुमार का एक शोध-लेख की रचना के पश्चात् लगभग पाँचवीं-छठी शती में अस्तित्व में आया प्रकाशित हुआ है, जिसमें उन्होंने पुरातात्त्विक आधारों पर यह सिद्ध है। चूँकि मूलाचार और भगवती-आराधना दोनों ग्रन्थों में गुणस्थान किया है कि देवेन्द्रस्तव की रचना ई०पू० प्रथम शती में या उसके का उल्लेख मिलता है, अत: ये ग्रन्थ पाँचवीं शती के बाद की रचनाएँ भी कुछ पूर्व हुई होगी। प्रकीर्णकों में निम्नलिखित प्रकीर्णक वीरभद्र हैं जबकि आतुरप्रत्याख्यान, महाप्रत्याख्यान और मरणसमाधि का उल्लेख की रचना कहे जाते हैं-चउसरण, आउरपच्चक्खाण, भत्तपरिण्णा और नन्दीसूत्र में होने से ये ग्रन्थ पाँचवीं शती के पूर्व की रचनाएँ हैं। आराधनापताका। आराधनापताका की प्रशस्ति में 'विक्कमनिवकालाओ २. मूलाचार में संक्षिप्तप्रत्याख्यान और महाप्रत्याख्यान नामक अट्ठत्तरिमे-समासहस्सम्मि' या पाठभेद से अट्ठभेद से समासहस्सम्मि' अध्ययन बनाकर उनमें आतुरप्रत्याख्यान और महाप्रत्याख्यान नामक के उल्लेख के अनुसार इनका रचनाकाल ई० सन् १००८ या १०७८ दोनों ग्रन्थों को समाहित किया गया है। इससे यही सिद्ध होता है सिद्ध होता है। इस प्रकार प्रकीर्णक नाम से अभिहित ग्रन्थों में जहाँ कि ये ग्रन्थ पूर्ववर्ती हैं और मूलाचार परवर्ती है। ऋषिभाषित ई० पू० पाँचवीं शती की रचना है, वहीं आराधनापताका ३. भगवती-आराधना में भी मरणविभक्ति को अनेक गाथाएँ समान - ई० सन् की दसवीं या ग्यारहवीं शती के पूर्वार्द्ध की रचना है। इस रूप से मिलती हैं। वर्ण्य-विषय की समानता होते हुए भी भगवतीप्रकार प्रकीर्णक साहित्य में समाहित ग्रन्थ लगभग पन्द्रह सौ वर्ष की आराधना में जो विस्तार है, वह मरणविभक्ति में नहीं है। प्राचीन स्तर सुदीर्घ अवधि में निर्मित होते रहे हैं, फिर भी चउसरण, परवर्ती के ग्रन्थ मात्र श्रुतपरम्परा से कण्ठस्थ किये जाते थे, अत: वे आकार आउरपच्चक्खाण, भत्तपरिण्णा, संथारग और आराहनापडाया को में संक्षिप्त होते थे ताकि उन्हें सुगमता से याद रखा जा सके, जबकि छोड़कर शेष प्रकीर्णक ई० सन् की पाँचवी शती के पूर्व की रचनाएँ लेखन-परम्परा के विकसित होने के पश्चात् विशालकाय ग्रन्थ निर्मित हैं। ज्ञातव्य है कि महावीर जैन विद्यालय, बम्बई से प्रकाशित होने लगे। मूलाचार और भगवती-आराधना दोनों विशाल ग्रन्थ हैं, 'पइण्णयसुत्ताई' में आउरपच्चक्खाण के नाम से तीन ग्रन्थ उपलब्ध अत: वे प्रकीर्णकों से अपेक्षाकृत परवर्ती हैं। वस्तुतः प्रकीर्णक साहित्य होते हैं, इनमें वीरभद्र रचित आउरपच्चक्खाण परवर्ती है, किन्तु नन्दीसूत्र के वे सभी ग्रन्थ जो नन्दीसूत्र और पाक्षिकसूत्र में उल्लिखित हैं और में उल्लिखित आउरपच्चक्खाण तो प्राचीन ही है। वर्तमान में उपलब्ध हैं, निश्चित ही ईसा की पाँचवीं शती पूर्व के है। यहाँ पर यह भी ज्ञातव्य है कि प्रकीर्णकों की अनेक गाथाएँ श्वेताम्बर- प्रकीर्णकों में ज्योतिष्करण्डक नामक प्रकीर्णक का भी महत्त्वपूर्ण मान्य अंग-आगमों एवं उत्तराध्ययनसूत्र, दशवैकालिकसूत्र जैसे प्राचीन स्तर स्थान है। इसमें श्रमण गन्धहस्ती और प्रतिहस्ती का उल्लेख मिलता के आगम ग्रन्थों में भी पायी जाती हैं। गद्य अंग-आगमों, में पद्यरूप है। इसमें यह भी कहा गया है कि जिस विषय का सूर्यप्रज्ञप्ति में में इन गाथाओं की उपस्थिति भी यही सिद्ध करती है कि उनमें ये विस्तार से विवेचन है, उसी को संक्षेप में यहाँ दिया गया है। तात्पर्य गाथाएँ प्रकीर्णकों से अवतरित हैं। यह कार्य वलभीवाचना के पूर्व हुआ यह है कि यह प्रकीर्णक सूर्यप्रज्ञप्ति के आधार पर निर्मित किया गया है, अत: फलित होता है कि नन्दीसूत्र में उल्लिखित प्रकीर्णक है। इसमें कर्ता के रूप में पादलिप्ताचार्य का भी स्पष्ट उल्लेख हुआ वलभीवाचना के पूर्व रचित हैं। तंदुलवैचारिक का उल्लेख दशवैकालिक है। पादलिप्ताचार्य का उल्लेख नियुक्ति-साहित्य में भी उपलब्ध होता की प्राचीन अगस्त्यसिंह चूर्णि में है। इससे उसकी प्राचीनता सिद्ध है (लगभग ईसा की प्रथम शती)। इससे यही फलित होता है कि हो जाती है। यह चूर्णि अन्य चूर्णियों की अपेक्षा प्राचीन मानी गयी है। ज्योतिष्करण्डक का रचनाकाल भी ई० सन् की प्रथम शती है। अंगबाह्य दिगम्बर-परम्परा में मूलाचार, भगवती-आराधना और कुन्दकुन्द आगमों में सूर्यप्रज्ञप्ति, जिसके आधार पर इस ग्रन्थ की रचना हुई, के ग्रन्थों में प्रकीर्णकों की सैकड़ों गाथाएँ अपने शौरसेनी रूपान्तरण एक प्राचीन ग्रन्थ है क्योंकि इसमें जो ज्योतिष सम्बन्धी विवरण हैं, में मिलती हैं। मूलाचार के संक्षिप्त प्रत्याख्यान और महाप्रत्याख्यान वह ईसवी पूर्व के हैं, उसके आधार पर भी इसकी प्राचीनता सिद्ध नामक अध्यायों में तो आतुरप्रत्याख्यान एवं महाप्रत्याख्यान इन दोनों होती है। साथ ही इसकी भाषा में अर्धमागधी रूपों की प्रचुरता भी प्रकीर्णकों की लगभग सत्तर से अधिक गाथाएँ हैं। इसी प्रकार इसे प्राचीन ग्रन्थ सिद्ध करती है। मरणविभक्ति प्रकीर्णक की लगभग शताधिक गाथाएँ भगवती-आराधना अतः प्रकीर्णकों के रचनाकाल की पूर्व सीमा ई०पू० चतुर्थ-तृतीय में मिलती हैं। इससे यही फलित होता है कि ये प्रकीर्णक ग्रन्थ मूलाचार शती से प्रारम्भ होती है। परवर्ती कुछ प्रकीर्णक जैसे कुशलानुबंधि एवं भगवती-आराधना से पूर्व के हैं। मूलाचार एवं भगवती-आराधना अध्ययन, चतुःशरण, भक्तपरिज्ञा आदि वीरभद्र की रचना माने जाते के रचनाकाल को लेकर चाहे कितना भी मतभेद हो, किन्तु इतना हैं, वे निश्चित ही ईसा की दसवीं शती की रचनाएँ हैं। इस प्रकार निश्चित है कि ये ग्रन्थ ईसा की छठी शती से परवर्ती नहीं हैं। प्रकीर्णक साहित्य का रचनाकाल ई०पू० चतुर्थ शती से प्रारम्भ होकर यद्यपि यह प्रश्न उठाया जा सकता है कि प्रकीर्णक में ये गाथाएँ ईसा की दसवीं शती तक अर्थात् लगभग पन्द्रह सौ वर्षों की सुदीर्घ इन यापनीय/अचेल परम्परा के ग्रन्थों से ली गयी होंगी, किन्तु अनेक अवधि तक व्याप्त है। प्रमाणों के आधार पर यह दावा निरस्त हो जाता है। जिनमें से कुछ प्रमाण इस प्रकार हैं प्रकीर्णकों के रचयिता १. गुणस्थान सिद्धान्त उमास्वाति के तत्त्वार्थसूत्र और आचारांगनियुक्ति प्रकीर्णक साहित्य के रचनाकाल के सम्बन्ध में विचार करते हुए Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - यतीन्दसूरिरमारकन्य-जेन आगम एवं साहित्य - हमने यह पाया है कि अधिकांश प्रकीर्णक ग्रन्थों के रचयिता के सन्दर्भ सौ वर्षों की सुदीर्घ अवधि में प्रकीर्णक साहित्य लिखा जाता रहा है। में कहीं कोई उल्लेख नहीं है। प्राचीन स्तर के प्रकीर्णकों में ऋषिभाषित, किन्तु इतना निश्चित है कि अधिकांश महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ ईसा की पाँचवींचन्द्रवेध्यक, आतुरप्रत्याख्यान, महाप्रत्याख्यान, मरणसमाधि, गणिविद्या, छठी शताब्दी तक लिखे जा चुके थे। वे सभी प्रकीर्णक जो नन्दीसूत्र संस्तारक आदि में लेखक के नाम का कहीं भी निर्देश नहीं है। मात्र में उल्लिखित हैं, वस्तुत: प्राचीन हैं और उनमें जैनों के सम्प्रदायगत देवेन्द्रस्तव और ज्योतिष्करण्डक दो ही प्राचीन प्रकीर्णक ऐसे हैं, जिनकी विभेद की कोई सूचना नहीं है। मात्र तित्थोगाली, सारावली आदि कुछ अन्तिम गाथाओं में स्पष्ट रूप से लेखक के नामों का उल्लेख हुआ परवर्ती प्रकीर्णकों में प्रकारान्तर से जैनों के साम्प्रदायिक मतभेदों की है। देवेन्द्रस्तव के कर्ता के रूप में ऋषिपालित और ज्योतिष्करण्डक किञ्चित् सूचना मिलती है। प्राचीन स्तर के इन प्रकीर्णकों में से अधिकांश के कर्ता के रूप में पादलिप्ताचार्य के नामों का उल्लेख कल्पसूत्र / मूलत: आध्यात्मिक साधना और विशेष रूप से समाधिमरण की साधना स्थविरावली में महावीर की पट्टपरम्परा में तेरहवें स्थान पर आता है के विषय में प्रकाश डालते हैं। ये ग्रन्थ निवृत्तिमूलक जीवनदृष्टि के और इस आधार पर वे ई० पू० प्रथम शताब्दी के लगभग के सिद्ध प्रस्तोता हैं। यह हमारा दुर्भाग्य है कि जैन-परम्परा के कुछ सम्प्रदायों होते हैं। पसूत्र स्थविरावली में इनके द्वारा कोटिकगण की में विशेष रूप से दिगम्बर, स्थानकवासी और तेरापंथी परम्पराओं में ऋषिपालित शाखा प्रारम्भ हुई, ऐसा भी उल्लेख है। इस सन्दर्भ में इनकी आगम रूप में मान्यता नहीं है, किन्तु यदि निष्पक्ष भाव से और विस्तार से चर्चा हमने देवेन्द्रस्तव प्रकीर्णक की भूमिका में की इन प्रकीर्णकों का अध्ययन किया जाय तो इनमें ऐसा कुछ भी नहीं है। 12 देवेन्द्रस्तव के कर्ता ऋषिपालित का समय लगभग ई० पू० प्रथम है जो इन परम्पराओं की मान्यता के विरोध में जाता हो। आगम-संस्थान, शताब्दी है। इस तथ्य की पुष्टि श्री ललित कुमार ने अपने एक शोध-लेख उदयपुर द्वारा इन प्रकीर्णकों का हिन्दी में अनुवाद करके जो महत्त्वपूर्ण में की है, जिसका निर्देश भी हम पूर्व में कर चुके हैं। ज्योतिष्करण्डक कार्य किया जा रहा है, आशा है, उसके माध्यम से ये ग्रन्थ उन परम्पराओं के कर्ता पादलिप्ताचार्य का उल्लेख हमें नियुक्ति-साहित्य में उपलब्ध / में भी पहुंचेंगे और उनमें इनके अध्ययन और पठन-पाठन की रुचि होता है। 13 आर्यरक्षित के समकालिक होने से वे लगभग ईसा की विकसित होगी। वस्तुत: प्रकीर्णक साहित्य की उपेक्षा प्राकृत साहित्य प्रथम शताब्दी के ही सिद्ध होते हैं। उनके व्यक्तित्व के सन्दर्भ में भी के एक महत्त्वपूर्ण पक्ष की उपेक्षा है। इस दिशा में आगम-संस्थान, चूर्णि-साहित्य और परवर्ती प्रबन्धों में विस्तार से उल्लेख मिलता है। उदयपुर ने साम्प्रदायिक आग्रहों से ऊपर उठकर इनके अनुवाद को __कुसलाणुबंधि अध्ययन और भक्तपरिज्ञा के कर्ता के रूप में भी प्रकाशित करने की योजना को अपने हाथ में लिया और इनका प्रकाशन आचार्य वीरभद्र का ही उल्लेख मिलता है। 14 वीरभद्र के काल के सम्बन्ध / करके अपनी उदारवृत्ति का परिचय दिया है। प्रकीर्णक साहित्य के में अनेक प्रवाद प्रचलित हैं जिनकी चर्चा हमने गच्छाचार प्रकीर्णक समीक्षात्मक अध्ययन के उद्देश्य को लेकर इनके द्वारा प्रकाशित 'प्रकीर्णक की भूमिका में की है। हमारी दृष्टि में वीरभद्र ईसा की दसवीं शताब्दी साहित्य : अध्ययन एवं समीक्षा' नामक पुस्तक प्रकीर्णकों के विषय के उत्तरार्द्ध और ग्यारहवीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध के आचार्य हैं। में विस्तृत जानकारी देती है। आशा है सुधीजन संस्था के इन प्रयत्नों इस प्रकार निष्कर्ष रूप में हम यह कह सकते हैं कि ईस्वी पूर्व को प्रोत्साहित करेंगे, जिसके माध्यम से प्राकृत-साहित्य की यह अमूल्य चतुर्थ शताब्दी से लेकर ईसा की दसवीं शताब्दी तक लगभग पन्द्रह निधि जन-जन तक पहुँचकर उनके आत्म-कल्याण में सहायक बनेगी। सन्दर्भ 1. 'अंगबाहिरचोद्दसपइण्णयज्झाया'-धवला, पुस्तक 13, खण्ड 5, 2 भाग ५,सूत्र 48, पृ० 267, उद्धृत-जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश, पृ०७०। वही, पृ० 70 / नन्दीसूत्र, सम्पा०-मुनि मधुकर, आगम प्रकाशन समिति, ब्यावर, - 1982, सूत्र 81 / / उद्धृत-पइण्णयसुत्ताई, सम्पा०-मुनि पुण्यविजय, महावीर जैन विद्यालय, बम्बई, 1984, भाग 1, प्रस्तावना, पृ०२१। 5. वही,प्रस्तावना, पृ० 20-21 / / छक). स्थानाङ्गसूत्र, सम्पा०-मधुकरमुनि, आगम प्रकाशन समिति, ब्यावर, 1981, स्थान 10, सूत्र 116 / (ख) समवायाङ्गसूत्र, सम्पा०-मुनि मधुकर, आगम प्रकाशन समिति, ब्यावर, 1982, समवाय 44, सूत्र 258 / 7. देविदत्थओ (देवेन्द्रस्तव), आगम, अहिंसा-समता एवं प्राकृत संस्थान, उदयपुर, 1988, भूमिका, पृ० 18-22 / 8. Sambodhi, L.D. Institute of Indology, Ahmedabad, Vol. XVIII, Year 1992-93, pp. 74-76 9. आराधनापताका (आचार्य वीरभद्र), गाथा 987 / 10. दशवैकालिक चूर्णि, पृ० 3, पं०१२-उद्धृत पइण्णयसुत्ताई, भाग 1, प्रस्तावना, पृ०१९।। 11. (क) देवेन्द्रस्तव प्रकीर्णक, गाथा 310 / (ख) ज्योतिष्करण्डक प्रकीर्णक, गाथा 403-406 / 12. देविंदत्थओ, भूमिका, पृ० 18-22 / 13. पिंडनियुक्ति, गाथा 498 / 14. (क) कुसलाणुबंधि अध्ययन प्रकीर्णक, गाथा 63 / (ख) भक्तपरिज्ञा प्रकीर्णक, गाथा 172 / 15. गच्छायार पइण्णय (गच्छाचार-प्रकीर्णक), आगम,अहिंसा-समता एवं प्राकृत संस्थान, उदयपुर, 1994, भूमिका, पृ०२०-२१।