________________ - यतीन्दसूरिरमारकन्य-जेन आगम एवं साहित्य - हमने यह पाया है कि अधिकांश प्रकीर्णक ग्रन्थों के रचयिता के सन्दर्भ सौ वर्षों की सुदीर्घ अवधि में प्रकीर्णक साहित्य लिखा जाता रहा है। में कहीं कोई उल्लेख नहीं है। प्राचीन स्तर के प्रकीर्णकों में ऋषिभाषित, किन्तु इतना निश्चित है कि अधिकांश महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ ईसा की पाँचवींचन्द्रवेध्यक, आतुरप्रत्याख्यान, महाप्रत्याख्यान, मरणसमाधि, गणिविद्या, छठी शताब्दी तक लिखे जा चुके थे। वे सभी प्रकीर्णक जो नन्दीसूत्र संस्तारक आदि में लेखक के नाम का कहीं भी निर्देश नहीं है। मात्र में उल्लिखित हैं, वस्तुत: प्राचीन हैं और उनमें जैनों के सम्प्रदायगत देवेन्द्रस्तव और ज्योतिष्करण्डक दो ही प्राचीन प्रकीर्णक ऐसे हैं, जिनकी विभेद की कोई सूचना नहीं है। मात्र तित्थोगाली, सारावली आदि कुछ अन्तिम गाथाओं में स्पष्ट रूप से लेखक के नामों का उल्लेख हुआ परवर्ती प्रकीर्णकों में प्रकारान्तर से जैनों के साम्प्रदायिक मतभेदों की है। देवेन्द्रस्तव के कर्ता के रूप में ऋषिपालित और ज्योतिष्करण्डक किञ्चित् सूचना मिलती है। प्राचीन स्तर के इन प्रकीर्णकों में से अधिकांश के कर्ता के रूप में पादलिप्ताचार्य के नामों का उल्लेख कल्पसूत्र / मूलत: आध्यात्मिक साधना और विशेष रूप से समाधिमरण की साधना स्थविरावली में महावीर की पट्टपरम्परा में तेरहवें स्थान पर आता है के विषय में प्रकाश डालते हैं। ये ग्रन्थ निवृत्तिमूलक जीवनदृष्टि के और इस आधार पर वे ई० पू० प्रथम शताब्दी के लगभग के सिद्ध प्रस्तोता हैं। यह हमारा दुर्भाग्य है कि जैन-परम्परा के कुछ सम्प्रदायों होते हैं। पसूत्र स्थविरावली में इनके द्वारा कोटिकगण की में विशेष रूप से दिगम्बर, स्थानकवासी और तेरापंथी परम्पराओं में ऋषिपालित शाखा प्रारम्भ हुई, ऐसा भी उल्लेख है। इस सन्दर्भ में इनकी आगम रूप में मान्यता नहीं है, किन्तु यदि निष्पक्ष भाव से और विस्तार से चर्चा हमने देवेन्द्रस्तव प्रकीर्णक की भूमिका में की इन प्रकीर्णकों का अध्ययन किया जाय तो इनमें ऐसा कुछ भी नहीं है। 12 देवेन्द्रस्तव के कर्ता ऋषिपालित का समय लगभग ई० पू० प्रथम है जो इन परम्पराओं की मान्यता के विरोध में जाता हो। आगम-संस्थान, शताब्दी है। इस तथ्य की पुष्टि श्री ललित कुमार ने अपने एक शोध-लेख उदयपुर द्वारा इन प्रकीर्णकों का हिन्दी में अनुवाद करके जो महत्त्वपूर्ण में की है, जिसका निर्देश भी हम पूर्व में कर चुके हैं। ज्योतिष्करण्डक कार्य किया जा रहा है, आशा है, उसके माध्यम से ये ग्रन्थ उन परम्पराओं के कर्ता पादलिप्ताचार्य का उल्लेख हमें नियुक्ति-साहित्य में उपलब्ध / में भी पहुंचेंगे और उनमें इनके अध्ययन और पठन-पाठन की रुचि होता है। 13 आर्यरक्षित के समकालिक होने से वे लगभग ईसा की विकसित होगी। वस्तुत: प्रकीर्णक साहित्य की उपेक्षा प्राकृत साहित्य प्रथम शताब्दी के ही सिद्ध होते हैं। उनके व्यक्तित्व के सन्दर्भ में भी के एक महत्त्वपूर्ण पक्ष की उपेक्षा है। इस दिशा में आगम-संस्थान, चूर्णि-साहित्य और परवर्ती प्रबन्धों में विस्तार से उल्लेख मिलता है। उदयपुर ने साम्प्रदायिक आग्रहों से ऊपर उठकर इनके अनुवाद को __कुसलाणुबंधि अध्ययन और भक्तपरिज्ञा के कर्ता के रूप में भी प्रकाशित करने की योजना को अपने हाथ में लिया और इनका प्रकाशन आचार्य वीरभद्र का ही उल्लेख मिलता है। 14 वीरभद्र के काल के सम्बन्ध / करके अपनी उदारवृत्ति का परिचय दिया है। प्रकीर्णक साहित्य के में अनेक प्रवाद प्रचलित हैं जिनकी चर्चा हमने गच्छाचार प्रकीर्णक समीक्षात्मक अध्ययन के उद्देश्य को लेकर इनके द्वारा प्रकाशित 'प्रकीर्णक की भूमिका में की है। हमारी दृष्टि में वीरभद्र ईसा की दसवीं शताब्दी साहित्य : अध्ययन एवं समीक्षा' नामक पुस्तक प्रकीर्णकों के विषय के उत्तरार्द्ध और ग्यारहवीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध के आचार्य हैं। में विस्तृत जानकारी देती है। आशा है सुधीजन संस्था के इन प्रयत्नों इस प्रकार निष्कर्ष रूप में हम यह कह सकते हैं कि ईस्वी पूर्व को प्रोत्साहित करेंगे, जिसके माध्यम से प्राकृत-साहित्य की यह अमूल्य चतुर्थ शताब्दी से लेकर ईसा की दसवीं शताब्दी तक लगभग पन्द्रह निधि जन-जन तक पहुँचकर उनके आत्म-कल्याण में सहायक बनेगी। सन्दर्भ 1. 'अंगबाहिरचोद्दसपइण्णयज्झाया'-धवला, पुस्तक 13, खण्ड 5, 2 भाग ५,सूत्र 48, पृ० 267, उद्धृत-जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश, पृ०७०। वही, पृ० 70 / नन्दीसूत्र, सम्पा०-मुनि मधुकर, आगम प्रकाशन समिति, ब्यावर, - 1982, सूत्र 81 / / उद्धृत-पइण्णयसुत्ताई, सम्पा०-मुनि पुण्यविजय, महावीर जैन विद्यालय, बम्बई, 1984, भाग 1, प्रस्तावना, पृ०२१। 5. वही,प्रस्तावना, पृ० 20-21 / / छक). स्थानाङ्गसूत्र, सम्पा०-मधुकरमुनि, आगम प्रकाशन समिति, ब्यावर, 1981, स्थान 10, सूत्र 116 / (ख) समवायाङ्गसूत्र, सम्पा०-मुनि मधुकर, आगम प्रकाशन समिति, ब्यावर, 1982, समवाय 44, सूत्र 258 / 7. देविदत्थओ (देवेन्द्रस्तव), आगम, अहिंसा-समता एवं प्राकृत संस्थान, उदयपुर, 1988, भूमिका, पृ० 18-22 / 8. Sambodhi, L.D. Institute of Indology, Ahmedabad, Vol. XVIII, Year 1992-93, pp. 74-76 9. आराधनापताका (आचार्य वीरभद्र), गाथा 987 / 10. दशवैकालिक चूर्णि, पृ० 3, पं०१२-उद्धृत पइण्णयसुत्ताई, भाग 1, प्रस्तावना, पृ०१९।। 11. (क) देवेन्द्रस्तव प्रकीर्णक, गाथा 310 / (ख) ज्योतिष्करण्डक प्रकीर्णक, गाथा 403-406 / 12. देविंदत्थओ, भूमिका, पृ० 18-22 / 13. पिंडनियुक्ति, गाथा 498 / 14. (क) कुसलाणुबंधि अध्ययन प्रकीर्णक, गाथा 63 / (ख) भक्तपरिज्ञा प्रकीर्णक, गाथा 172 / 15. गच्छायार पइण्णय (गच्छाचार-प्रकीर्णक), आगम,अहिंसा-समता एवं प्राकृत संस्थान, उदयपुर, 1994, भूमिका, पृ०२०-२१। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org