Book Title: Agam Sahitya ka Paryalochan
Author(s): Kanhaiyalal Maharaj
Publisher: Z_Hajarimalmuni_Smruti_Granth_012040.pdf

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Page 15
________________ Jain Educama मुनि कन्हैयालाल 'कमल' : आगम साहित्य का पर्यालोचन: ८२३ जिनका उन्मूलन अनेक मुनि सम्मेलनों के संगठित प्रयत्नों के पश्चत् भी नहीं हुआ. तीर्थंकर का वचनातिशय और कतिपय सन्देहजनक शब्द - तीर्थकरों का एक अतिशय ' ऐसा है कि जिसके प्रभाव से देव, दानव, मानव और पशु सभी अपनी अपनी भाषा में जिनवाणी को परिणत कर लेते हैं. जिनवाणी से श्रोताओं की शंकाओं का उन्मूलन हो जाता है, किन्तु उपलब्ध अंगादि आगमों में मांस, मत्स्य, अस्थिक, कपोत, मार्जार और जिनपडिमा, चैत्य, सिद्धालय आदि शब्दों के प्रयोग सन्देहजनक हैं. यद्यपि टीकाकारों ने इन भ्रान्तिमूलक शब्दों का समाधान किया है फिर भी इन शब्दों के सम्बन्ध में यदा-कदा विवाद खड़े हो ही जाते हैं. प्रश्न यह है कि सर्वज्ञकथित एवं गणधर ग्रथित आगमों में इन शब्दों के प्रयोग क्यों हुए ? क्योंकि सूत्र सदा असंदिग्ध होते हैं. आगमों का लेखनकाल स्थानकवासी समाज में आगमों का लेखनकाल लिए और ज्ञानभण्डारों के लिए आगमों की प्रतिलिपियां कराने वालों ने आदि की जैसी प्रतियाँ दी वैसी ही प्रतिलिपियों का सर्वत्र प्रचार हुआ. इतिहास से यह निश्चित है कि १४ वीं शताब्दी तक आगमों की जितनी प्रतिलिपियाँ हुईं वे सब चैत्यवासियों की देखरेख में हुई और आगमों के व्याख्या-ग्रन्थ भी इसी परम्परा के लिखे हुये थे. आरम्भ में स्थानकवासी परम्परा को आगमों की जितनी प्रतियाँ मिलीं वे सब चैत्यवासी विचारधारा से अनुप्राणित थीं. लोंकाशाह लिखित आगमों की प्रतियां – लोंकाशाह लेखक थे और शास्त्रज्ञ भी थे. वे प्रतिमा पूजा के विरोधी थे किन्तु उनके लिखे हुए आगमों की या उनकी मान्यता की व्याख्या करने वाले आगमों की प्रतियां किसी भी संग्रहालय में आज तक उपलब्ध नहीं हुई हैं. अतः वादविवाद के प्रसंगों में स्थानकवासी मान्यता समर्थक प्राचीन प्रतियों का अभाव अखरता है. स्थानकवासी परम्परा के दीक्षा आदि पावन प्रसंगों पर लेखकों से श्वेताम्बर मूर्तिपूजक मान्यता की व्याख्या वाली होती हैं. वास्तव में प्रचार व प्रसार के लिये संगठित प्रयत्न हुआ ही नहीं. विक्रम की १६ वीं शताब्दी है. स्वाध्याय के व्यवसायी लेखकों को मूल, टीका, टब्बा आगमों की दरियापुरी प्रतियां - गुजरात की दरियापुरी प्रतियाँ प्रायः सभी ज्ञानभण्डारों में मिलती हैं किन्तु उनमें भी विवादास्पद स्थानों की स्थानकवासी मान्यता की व्याख्या नहीं मिलती, इसलिये आगामी मुनि सम्मेलनों में इस संबंध में विचार-विनिमय होना आवश्यक है. जो आगमों की प्रतियां ली जाती हैं वे सब प्रायः स्थानकवासी मान्यता की व्याख्या वाली प्रतियों के जैनागमों का मुद्रणकाल — स्थानकवासी समाज में सर्वप्रथम आगमबत्तीसी (हिंदी अनुवाद सहित ) का मुद्रण दानवीर सेठ ज्वालाप्रसाद जी ने करवाया. LCH सम्पूर्ण बत्तीसी का हिंदी अनुवाद स्व० पूज्य श्री अमोलख ऋषि जी म० ने किया. श्वेताम्बर मूर्तिपूजक समाज में दानवीर सेठ धनपतराय जी ने सर्वप्रथम जैनागमों का मुद्रण करवाया. आचार्य सागरानन्द सूरि ने आगमोदय समिति द्वारा अधिक से अधिक आगमों की टीकाओं का प्रकाशन करवाया. पुप्फ भिक्खु द्वारा सम्पादित सुत्तागमे का प्रकाशन हुआ है किन्तु मांस-परक और जिनप्रतिमा सम्बन्धी कई पाठों को निकाल देने से इस प्रकाशन की प्रामाणिकता नहीं रही है. १. तेईसवां अतिशय २. प्रश्नव्याकरण द्वितीय संवर द्वारा अनुयोगद्वार, व्याख्याप्रज्ञप्ति देखें. Littl Mary.org

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