Book Title: Agam Path Samshodhan Ek Samasya Ek Samadhan
Author(s): Dulahrajmuni
Publisher: Z_Kesarimalji_Surana_Abhinandan_Granth_012044.pdf

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Page 8
________________ 616 कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : पंचम खण्ड r r ore ... . . ..... .... . ...... .............. ............. ............. अपने आपको कृतकार्य मान लेता है तो उसकी सत्य-शोध की वृत्ति वहीं ठप्प हो जाती है और तब उसमें नए-नए अभिनिवेश घर कर जाते हैं / अब उसको सत्य-प्राप्त नहीं होता, सत्य का आभास मात्र उसको हस्तगत होता है। आज सद्यस्क आवश्यकता है कि शोध-विद्वान् आगम पाठों के निर्धारण में पूर्ण श्रम करें और पौर्वापर्य, अर्थसंगति, परम्परा और अन्यान्य आगमों में उसका उल्लेख .......... इन सारी बातों पर ध्यान दें। आगमों के अनुवाद आदि की आवश्यकता है किन्तु इससे पूर्व पाठ-निर्धारण का कार्य अत्यन्त अपेक्षित है। पाश्चात्य विद्वानों का यह अनुरोध है कि यह कार्य पहले हो और अन्यान्य कार्य बाद में। वि० सं० 2012 में औरंगाबाद में आचार्यश्री ने आगम सम्पादन और विवेचन की घोषणा की। उसी वर्ष कार्य प्रारम्भ हुआ। कार्य धीरे-धीरे चलता रहा / अन्यान्य प्रवृत्तियों के साथ यह कार्य आगे बढ़ता गया और कुछ ही वर्षों में यह मुख्य कार्य बन गया / अनुभव संचित हुए। कुछ आगम ग्रन्थ प्रकाश में आये। विद्वानों ने उनको सराहा। कार्य गतिशील रहा / भगवान् महावीर की पच्चीसवीं निर्वाण शताब्दी का प्रसंग आया तब ग्यारह अंगों का मूलपाठ अंगसुत्ताणि भाग 1, 2, 3 में प्रकाशित हुआ। आगमों का ऐसा विशद और सटिप्पण मूल पाठ को पाकर जैन समाज कृतकृत्य हुआ। हमारे पाठ-सम्पादन की एक मंजिल पूरी हुई। वर्तमान में प्राय: बत्तीस आगमों का पाठ सम्पादित हो चुका है। पाठ-सम्पादन की वैज्ञानिक पद्धति ने इस वाचना को देवद्धिगणी की वाचना से शृंखलित कर डालाऐसा कहा जा सकता है। आचार्यश्री का दृढ़ अध्यवसाय, वृद्धिंगत उत्साह, और अदम्य पुरुषार्थ तथा बहुश्रुत युवाचार्य महाप्रज्ञजी (मुनिश्री नथमलजी) की सूक्ष्म-मनीषा, गहरे में अवगाहन करने की क्षमता और पारगामी दृष्टि तथा साधुसाध्वियों के कार्यनिष्ठ भाव ने आगम के अपार-पारावार के अवगाहन को सुगम ही नहीं बनाया अपितु वह एक पथ-प्रदीप बना और आज भी उस दिशा में गतिशील संधित्सुओं का पथ प्रकाशित करने में सक्षम है। तेरापंथ धर्म-संघ ही नहीं, सारा जैन समाज आचार्यश्री के इस भगीरथ प्रयत्न के प्रति और उनके साधु-संघ की कर्तव्य निष्ठा के प्रति नत है। 0000 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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