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आगम सूत्र ३१, पयन्नासूत्र-८, 'गणिविद्या' सूत्र - १८-२०
सन्ध्यागत नक्षत्र में तकरार होती है और विलम्बी नक्षत्र में विवाद होता है । विड्डेर में सामनेवाले की जय हो और आदित्यगत में परमदुःख प्राप्त होता है । संग्रह नक्षत्र में निग्रह हो, राहुगत में मरण हो और ग्रहभिन्न में लहू की उल्टी होती है । सन्ध्यागत, राहुगत और आदित्यगत नक्षत्र, कमझोर और रूखे हैं । सन्ध्यादि चार से और ग्रहनक्षत्र से विमुक्त बाकी के नक्षत्र ताकतवर जानने । सूत्र-२१-२८
पुष्य, हस्त, अभिजित, अश्विनी और भरणी नक्षत्र में पादपोपगमन करना । श्रवण, घनिष्ठा और पुनर्वसु में निष्क्रमण(दीक्षा) नहीं करना, शतभिषा, पुष्य, हस्त नक्षत्र में विद्यारंभ करना चाहिए । मृगशीर्ष, आर्द्रा, पुष्य, तीन पूर्वा, मूल, आश्लेषा, हस्त, चित्रा यह दस ज्ञान के वृद्धिकारक नक्षत्र हैं । हस्त आदि पाँच वस्त्र के लिए प्रशस्त हैं। पुनर्वसु, पुष्य, श्रवण और घनिष्ठा यह चार नक्षत्र में लोचकर्म करना । तीन उत्तरा और रोहिणी में नव दीक्षित को निष्क्रमण (दीक्षा), उपस्थापना (बड़ी दीक्षा) और गणि या वाचक की अनुज्ञा करना । गणसंग्रह करना, गणधर स्थापना करना । अवग्रह वसति, स्थान में स्थिरता करना। सूत्र - २९, ३०
पुष्य, हस्त, अभिजित, अश्विनी, यह चार नक्षत्र कार्य आरम्भ के लिए सुन्दर और समर्थ हैं । (कौन से कार्य वो बताते हैं)। ..... विद्या धारण करना, ब्रह्मयोग साधना, स्वाध्याय, अनुज्ञा, उद्देश और समुद्देश । सूत्र - ३१-३२
अनुराधा, रेवती, चित्रा और मृगशीर्ष यह चार मृदु नक्षत्र हैं, उसमें मृदु कार्य करने चाहिए । भिक्षाचरण से पीड़ित को ग्रहण धारण करना चाहिए । बच्चे और बुढ़ों के लिए संग्रह-उपग्रह करना चाहिए। सूत्र - ३३-३४
आर्द्रा, आश्लेषा, ज्येष्ठा और मूल यह चार नक्षत्र में गुरुप्रतिमा और तपकर्म करना । देव-मानव-तिर्यंच का उपसर्ग सहना, मूलगुण-उत्तरगुण पुष्टी करना । सूत्र - ३५-३६
मधा, भरणी, पूर्वा तीनों उग्र नक्षत्र हैं । उसमें बाह्य अभ्यन्तर तप करना । ३६० तप कर्म हैं । उग्र नक्षत्र के योग में उससे दूसरे तप करने चाहिए। सूत्र - ३७-३८
कृतिका और विशाखा यह दोनों उष्ण नक्षत्र में लेपन और सीवण एवं संथारा-उपकरण, भाँड़ आदि, विवाद, अवग्रह और वस्त्र (धारण करना) आचार्य द्वारा उपकरण और विभाग करना । सूत्र- ३९-४१
घनिष्ठा, शतभिषा, स्वाति, श्रवण और पुनर्वस इस नक्षत्र में गुरुसेवा, चैत्यपूजन, स्वाध्यायकरण करना, विद्या और विरति करवाना, व्रत-उपस्थापना गणि और वाचक की अनुज्ञा करना । गणसंग्रह, शिष्यदीक्षा, गणावच्छेदक द्वारा संग्रह आदि करना । सूत्र -४२-४३
बव, बालव, कोलव, स्त्रिलोचन, गर - आदि, वणिज विष्टी, शुक्ल पक्ष के निशादि करण हैं; शकुनि, चतुष्पाद, नाग, किंस्तुघ्न ध्रुव करण हैं । कृष्ण चौदश की रात को शकुनिकरण होता है। सूत्र-४४
तिथि को दुगुना करके अंधेरी रात न गिनते हुए सात से हिस्से करने से जो बचे वो करण । (सामान्य व्यवहार में एक तिथि के दो करण बताए हैं।)
मुनि दीपरत्नसागर कृत् “(गणिविद्या)” आगम सूत्र-हिन्दी अनुवाद"
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