Book Title: Adhyatmik yoga aur Pranshakti Author(s): Navmal Publisher: Z_Pushkarmuni_Abhinandan_Granth_012012.pdf View full book textPage 4
________________ आध्यात्मिक योग और प्राणशक्ति ६१ . कि नदी को पार करना हो तो नौका से उसे पार कर लो । नौका पड़ी है। क्या आवश्यकता है दूसरी चीजों की ?' दूसरे ने समझाया, पर वह नहीं माना । उसने नौका को खोला । अकेला ही उसमें बैठ गया। पानी की एक हिलोर आयी और नौका आगे बहने लगी। नौका तैराने वाली थी पर आज वह उस यात्री के डूबने का कारण बन गयी । जो तराने वाला होता है, वह कभी-कभी डुबोने वाला भी हो जाता है । वास्तव में तैराने वाला और डुबोने वाला-दो नहीं होते, एक ही होते हैं । जो तैराने वाला है वही डुबोने वाला है और जो डुबोने वाला है वही तैराने वाला है। ये दो हैं नहीं वास्तव में। यह तो संयोग का अन्तर है। वह नौका चली। आदमी शांत बैठा है। पानी का बहाव तेज था, धारा तेज थी। नौका डगमगाने लगी। कुछ दूर जाकर नौका उलट गयी। यात्री पानी में डब गया। यह बात तो ठीक है कि नौका पार ले जाती है। किन्तु इसका अर्थ यह नहीं कि कोरी नौका, अकेली नौका पार ले जाती है। इसके साथ कुछ और सामग्री भी चाहिए। जो व्यक्ति एक अंश को पकड़ता है, शेष की उपेक्षा करता है उसके लिए तैराने वाली वस्तु भी डुबोने वाली हो जाती है। ठीक ऐसा ही हमारे जीवन में घटित होता है। हम समझते हैं कि ॐकार बड़ा मन्त्र है । 'अहम्' महत्वपूर्ण मन्त्र है। णमो अरहताणं' बडा मन्त्र है। इनका जाप करें. सारे काम सिद्ध होंगे। बात तो ठीक है और यह भी ठीक नौका जैसी ही बात है कि नौका में बैठो, पार पहुंच जाओगे । मन्त्र का जप करो, सब सिद्ध हो जायेगा। बात तो सही है। कोरे मन्त्र को पकड़ लिया और बरसों तक जाप करते चले गये, कुछ भी नहीं हुआ, कुछ अनुभव नहीं हुआ, काम सिद्ध नहीं हुआ। ऐसी स्थिति में लोग कहने लग जाते हैं-इतने बरसों तक मन्त्र का जप किया, माला फेरी, पर कुछ भो चमत्कार नहीं हुआ। कुछ भी नहीं हुआ। यानी वह नौका तैरा नहीं रही है, लगता है डुबोने के प्रयत्न में है या डुबो रही है। कुछ कहते हैं- इतने दिन तक तो हमने विश्वास के साथ माला फेरी, मन्त्र का जप किया, अमुक-अमुक अनुष्ठान किये, पर लगा नहीं कि कुछ हो रहा है तब हमने माला छोड़ दी, जप छोड़ दिया। मन में विश्वास ही नहीं रहा उन पर। इसका अर्थ है कि वे व्यक्ति स्वयं मझधार में आकर डुब जाते हैं। ऐसा क्यों होता है ? ऐसा इसलिए होता है कि हम पूरी बात को नहीं जानते, पूरी बात को नहीं पकड़ते । हमें पूरी बात को जानना चाहिए, पूरी बात को पकड़ना चाहिए । मन्त्र में शक्ति है, यह बात ठीक है । मन्त्र तैराने वाला है, किन्तु सब कुछ केवल मन्त्र से ही तो नहीं होगा। इसके साथ कुछ और भी चाहिए। सबसे पहले आप इस बात पर ध्यान दें कि मन्त्र के साथ आपके मन का योग हुआ है या नहीं? आप मन्त्र का जप तो कर रहे हैं, किन्तु मन उसमें संयुक्त नहीं है तो कुछ नहीं होगा। अर्थात् नदी को पार करने से पूर्व, नौका में बैठने से पूर्व आपको देखना होगा कि नाविक है या नहीं? नाविक भी नहीं है और आप स्वयं नौका को खेना तक नहीं जानते तो निश्चित ही वह नौका आपको पार नहीं पहुंचा पायेगी, बीच में ही डुबो देगी। मन्त्र में शक्ति है, पर आपका मन यदि उसमें संयुक्त नहीं है, आपके मन का योग उसमें नहीं है, उसे चला नहीं रहा है, खे नहीं रहा है तो वह मन्त्र भी गड़बड़ी पैदा कर देगा। हमें पूरी बात पकड़नी चाहिए। पहली बात है मन के योग की। मन के योग के बिना जो भी काम किया जाता है, वह पूरा नहीं होता, अधूरा ही रह जाता है। आदमी खाता है और यदि मन खाने में संयुक्त नहीं है तो उसका खाना भी अधूरा है। आदमी चलता है और यदि मन साथ नहीं है तो उसका चलना भी अधूरा है। अधरे मन से चलता है, पूरे मन से नहीं। आप स्वयं इस तथ्य का अनुभव करें। क्या आप कभी पूरे मन से खाते हैं ? कभी नहीं। क्या आप ऐसा करते हैं कि खाते समय खाते ही हैं और कुछ नहीं करते ? न सोचते हैं, न बोलते हैं और न इशारा करते हैं। क्या आपका मन पूर्णरूप से खाने में ही लगा रहता है ? नहीं, कभी नहीं। खाते-खाते आप सैकड़ों काम कर लेते हैं। कहाँ से कहाँ चले जाते हैं ? कितनी यात्राएँ कर लेते हैं ? कितनी कल्पनाएँ कर लेते हैं ? कितनी योजनाएँ बना लेते हैं ? आप पूरे मन से नहीं खाते, अधूरे मन से खाते हैं । इसका तात्पर्य है कि मन का एक कोना खाने में काम आता है और शेष हजारों कोने अलग-अलग काम करते चले जाते हैं। चलते हैं तो भी पूरे मन से नहीं चलते। चलते हैं तब मन का एक भाग चलने में सहयोग दे रहा है, चलने में संयुक्त है और शेष हजारों भाग न जाने कहाँ-कहाँ उड़ानें भरते रहते हैं । यही बात मन्त्र-जप में लागू होती है। पूरे मन से मन्त्र-जप कहाँ होता है ? मन का एक भाग मन्त्र-जप में लगा हुआ है और शेष हजारों भाग अन्यान्य कल्पनाओं में व्यस्त हैं। ___ एक भाई कह रहा था कि जब अन्यान्य कामों में लगा रहता हूँ तब मेरा मन. प्रायः उसी कार्य में संलग्न रहता है किन्तु ज्योंही मैं माला फेरने या जप करने बैठता हूँ, अनगिनत कल्पनाएँ मन में आने लगती हैं। दिमाग भर जाता है उन कल्पनाओं से। पूरे मन से कोई काम नहीं होता। यही तो हमारी साधना की कमी है। साधना का अर्थ क्या है ? साधना में आप और कुछ सीखें या न सीखें, यह अवश्य सीख लें कि जो भी काम करना है वह पूरे मन से करना है। समग्रता Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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