Book Title: Adhyatmik yoga aur Pranshakti Author(s): Navmal Publisher: Z_Pushkarmuni_Abhinandan_Granth_012012.pdf View full book textPage 9
________________ 66 श्री पुष्करमुनि अभिनन्दन प्रन्थ : नवम खण्ड हमारा ध्येय होगा कि हमें अहंत बनना है / अर्हत् वीतराग होते हैं। अर्हत् वे होते हैं जिनमें सारी अर्हताएँ, क्षमताएँ, शक्तियाँ, योग्यताएं विकसित हो जाती हैं। कुछ भी अविकसित नहीं रहता। उस आत्मा की उपलब्धि का नाम है-अर्हत् / हमें भी अर्हत् होना है। इसीलिए हम णमो अरहताणं' का जप करते हैं। जप को प्रारम्भ करने से पूर्व हमारे मन में यह भावना होनी चाहिए, यह संकल्प होना चाहिए कि 'मैं अर्हत् हूँ, मैं अर्हत् हूँ'। फिर जप करते समय यह धारणा हो कि 'मैं अर्हत् बन रहा हूँ, मैं अर्हत् बन रहा हूँ'। यह धारणा कर ली, यह भावना कर ली। इसके बाद हमें णमो अरहंताणं' का जाप करना चाहिए / मैं नमस्कार अर्हत को नहीं कर रहा हूँ, मैं स्वयं अर्हत् बनने के लिए आगे बढ़ रहा हूँ। तो अहंत की पूरी प्रतिमा, पूरा चित्र हमारे मस्तिष्क में इस प्रकार स्थिर हो जाये, स्थित हो जाये और फिर उसके आस-पास हमारा शब्द चलता रहे तो वे शब्द की तरंगें वास्तव में हमें अर्हत् के रूप में हमारे पर्याय को बदलने लग जायेंगी। हम स्वयं अर्हत् के रूप में बदलने लग जायेंगे और कुछ दिनों के बाद आपको पता लगेगा कि राग कम हो रहा है, द्वेष कम हो रहा है, वासनाएं कम हो रही हैं, अर्हताएं जाग रही है, शक्तियाँ विकसित हो रही हैं / तब समझना चाहिए कि जप हो रहा है। पूरी सामग्री प्राप्त है। नौका है, नाविक भी मिला है, डांड भी मिला है। सारे उपकरण प्राप्त है। नौका को ठीक खेया जा रहा है। यदि सामग्री में कुछ कमी रहती है, कोई विकलता रहती है तो आप जप को दोष देते चले जाइए, जप आपको पीछे छोड़ता चला जायेगा। स्वात्मानं स्वात्मनि स्वेन, ध्याते स्वस्मै स्वतो यतः / षट्कारकमयस्तस्माद्, ध्यानमात्मैव निश्चयात् // ---तत्त्वानुशासन 74 आत्मा का, आत्मा में, आत्मा द्वारा, आत्मा के लिए, आत्मा से ही ध्यान करना चाहिए। निश्चयदृष्टि से षट्कारकमय यह आत्मा ही ध्यान है। 00 O Jain Education International For Private & Personal Use Only * www.jainelibrary.orgPage Navigation
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