Book Title: Adhyatmayogi Santa Shreshtha Jyeshthamalji
Author(s): Devendramuni Shastri
Publisher: Z_Pushkarmuni_Abhinandan_Granth_012012.pdf

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Page 9
________________ महास्थविर श्री ताराचन्दजी महाराज Anirmirmirmir................................................................. नहीं, मेरी स्वयं की इच्छा हैं । मेरी दीक्षा की बात को सुनकर माँ ने भी कहा कि यदि तू दीक्षा लेगा तो मैं भी दीक्षा लूंगी । दीक्षा की प्रेरणा देने वाला मैं स्वयं हूँ, माँ नहीं । हंसराजजी भण्डारी तो देखते ही रह गये । न्याय उनके विरुद्ध में हुआ कि बालक सहर्ष दीक्षा ले सकता है। तथापि उन्होंने अपना प्रयास नहीं छोड़ा। उन्होंने बालक को अपने पास ही रख लिया। माता ज्ञानकुंवर पुत्र के बिना छटपटाने लगी। अन्त में प्यारचन्दजी मेहता, जिनका महाराणा फतेहसिंह जी से बहुत ही मधुर सम्बन्ध था, उनके आदेश को लेकर वे उमड़ गांव पहुंचे और बालक हजारीमल को उदयपुर ले आये। ___ आचार्यप्रवर वर्षावास पूर्ण होने पर उदयपुर से विहार कर जालोर पधारे । पुत्र ने माँ से कहा-माँ, अपन आचार्यश्री की सेवा में पहुँचे और आर्हती दीक्षा ग्रहण कर अपने जीवन को साधना में लगावें । किन्तु उदयपुर से जालोर पहुँचना एक कठिन समस्या थी। क्योंकि उदयपुर से साठ मील चित्तौड़गढ़ था जहाँ तक बैलगाड़ी से जाना होता और वहाँ से ट्रेन के द्वारा समदडी पहुँचना और समदडी से बत्तीस मील जालोर तक ऊँट पर जाना कितना कठिन होगा । अतः वत्स, कुछ समय के पश्चात् अपन जायेंगे। बालक हजारीमल ने कहा-मां, शुभ कार्य में विलम्ब करना उचित नहीं है । विघ्न-बाधाओं से तो वह व्यक्ति भयभीत होता है जो कायर है। तुम तो वीरांगना हो । फिर यह कायरतापूर्ण बात क्यों करती हो ? पुत्र की प्रेरणा से प्यारचन्दजी मेहता की धर्मपत्नी के सहयोग से वे जालोर पहुँचे। आचार्यश्री के दर्शन कर अत्यन्त आह्लादित हुए और जब माता ज्ञानकुँवर को यह पूर्ण विश्वास हो गया कि मेरा पुत्र दीक्षा ग्रहण करने के लिए योग्य है तब उसने आज्ञापत्र लिखकर आचार्यप्रवर को समर्पित किया और स्वयं महासतीजी की सेवा में रहकर अध्ययन करने लगी। आचार्यप्रवर ने चैत्र सुदी दूज वि० सं० १६५० में ज्ञानकुंवर बहिन को दीक्षा प्रदान की और परम विदुषी महासती छगनकुंवर जी की शिष्या घोषित की । महासती ज्ञान कुंवरजी ने अपनी सद्गुरुणी के साथ विहार किया क्योंकि महासती गुलाबकुंवरजी उदयपुर में स्थानापन्न थीं। उनकी सेवा में रहना बहुत ही आवश्यक था। बालक हजारीमल ने आचार्यप्रवर के पास धार्मिक अध्ययन प्रारम्भ किया और वि० सं० १९५० के ज्येष्ठ शुक्ला तेरस रविवार को समदडी ग्राम में संघ के अत्याग्रह को सम्मान देकर आचार्यश्री ने दीक्षा प्रदान की और बालक हजारीमल का नाम मुनि ताराचन्द रखा गया । आपश्री का प्रथम चातुर्मास जोधपुर में हुआ। उस समय आचार्य पूनमचन्दजी महाराज के अतिरिक्त जोधपुर में अन्य सन्तों के भी चातुर्मास थे। किन्तु परस्पर में किसी भी प्रकार का मन-मुटाव नहीं था । जैसे वर्षा ऋतु में वर्षा की झड़ी लगती है, वैसी ही तप-जप, ज्ञान-ध्यान, संयम-सेवा की झड़ी लगती थी। नवदीक्षित बालक मुनि ताराचन्दजी मन लगाकर अध्ययन करने लगे। प्रतिभा की तेजस्विता से उन्होंने कुछ ही समय में आगमों का तथा स्तोक साहित्य का खासा अच्छा अध्ययन कर लिया। आचार्यश्री के चरणों में उन्हें अपूर्व आनन्द आ रहा था। उनके स्नेहाधिक्य से वे माता के वात्सल्य को और पिता के प्रेम को भूल गये । उनका द्वितीय चातुर्मास पाली में हुआ और तृतीय चातुर्मास जालोर में । महाकवि कालिदास ने कहा है-यह संसार बड़ा विचित्र है; यहाँ पर न किसी को एकान्त सुख मिलता है और न किसी को एकान्त दुःख ही । नियति का चक्र निरन्तर घूमता रहता है; कभी ऊपर और कभी नीचे । जन्म मानव का शुभ प्रसंग है और मृत्यु अशुभ प्रसंग है जो कभी टल नहीं सकते । जालोर वर्षावास में आनन्द की स्रोतस्विनी बह रही थी। सन्त समागम का अपूर्व लाभ जन मानस को मिल रहा था, और मुनिश्री ताराचन्दजी की श्रुत-आराधना भी अस्खलित गति से प्रवाहित थी । जैन संस्कृति का महापर्व पर्युषण का विशाल समारोह भी सानन्द सम्पन्न हो चुका था। आचार्यप्रवर को भाद्रपद शुक्ला चतुदर्शी के दिन वि० सं० १९५२ को तेज ज्वर ने आक्रमण किया। साथ ही अन्य व्याधियाँ भी उपस्थित हुईं। किन्तु आचार्य प्रवर समभाव पूर्वक उन्हें सह रहे थे। व्याधि का प्रकोप प्रतिपल-प्रतिक्षण बढ़ रहा था। मृत्यु सामने आकर नाचने लगी। तथापि आपश्री पूर्ण समाधिस्थ व शान्त थे। केवल उनके मन में एक विचार था-बालक मुनि ताराचन्द के व्यक्तित्व निर्माण का। अत: उन्होंने अपने प्रधान अन्तेवासी आत्मार्थी ज्येष्ठमलजी महाराज को और कविवर्य नेमिचन्दजी महाराज को कहा-मुनि ताराचन्द को तुम्हारे हाथ सौंप रहा हूँ। इसका विकास करना तुम्हारा काम है और स्वयं शान्त व स्थिर मन से आलोचना, संल्लेखना-संथारा कर पूर्ण समाधिस्थ हो गये। अरिहन्त, सिद्ध, साधु और केवली प्ररूपित धर्म इन चार महाशरण का स्मरण करते हुए उन्होंने पूर्णिमा के दिन देहत्याग किया। पूर्णिमा की चारु चन्द्रिका चमक रही थी, किन्तु वह ज्योतिपुञ्ज धरा से विलीन हो चुका था। बाल मुनिक ताराचन्दजी के हृदय को गुरु-वियोग का वज्र-आघात Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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