Book Title: Adhyatmayogi Santa Shreshtha Jyeshthamalji
Author(s): Devendramuni Shastri
Publisher: Z_Pushkarmuni_Abhinandan_Granth_012012.pdf

View full book text
Previous | Next

Page 12
________________ १३४ श्री पुष्करमुनि अभिनन्दन ग्रन्थ : अष्टम खण्ड •mmmm.......+man+++++marnerriornmerammmmmmmmmmm.. शिक्षा के प्रति आपश्री की स्वाभाविक अभिरुचि थी। स्वयं आपने तो पण्डित से डेढ़ दिन ही पढ़ा था। क्योंकि वह युग ऐसा था जिस युग में पंडितों से पढ़ना उचित नहीं माना जाता था। केवल गुरुओं से अध्ययन किया जाता था। किन्तु समय ने करवट बदली; आपश्री ने देखा, संस्कृत, प्राकृत भाषा का जब तक गहरा अध्ययन नहीं होगा तब तक आगमों के रहस्य स्पष्ट नहीं हो सकते। अतः आपश्री ने अपने सुयोग्य शिष्य भी पुष्कर मुनि जी महाराज को संस्कृत-प्राकृत भाषा का अध्ययन ही नहीं करवाया अपितु किंग्स कालेज बनारस की और कलकत्ता असोसियेशन की काव्यतीर्थ, न्यायतीर्थ आदि परीक्षाएँ भी दिलवायीं। अपने अन्य शिष्य और प्रशिष्यों को भी तथा सती वन्द को भी अध्ययन की दिशा में आगे बढ़ने के लिए प्रेरणा दी। आपश्री को एक बार प्रातःकाल स्वप्न आया था कि मेरे शिष्य-शिष्याएँ प्रकाश की ओर बढ़ रही हैं। आपश्री ने उसका यही अर्थ लगाया कि ज्ञान के क्षेत्र में ये प्रगति करेंगे। ज्ञान के साथ ही आचार पर आपका बहुत अधिक बल था । आप स्वयं कम बोलते थे और गृहस्थों से निरर्थक वार्तालाप नहीं किया करते थे। आपका यह मानना था कि सन्तों को गृहस्थों का सम्पर्क कम से कम करना चाहिए। अधिक सम्पर्क से श्रमणों के जीवन में साधना की दृष्टि से न्यूनता आती है। मक्खन लम्बे समय तक छाछ में रहेगा तो मक्खन का ही नुकसान है, छाछ का नहीं। साधना की उत्कृष्टता के लिए आचार की निर्मलता अपेक्षित है। जितना आचार शुद्ध होगा उतना ही साधक के जीवन का प्रभाव बढ़ेगा। आपके जीवन पर अध्यात्मयोगी ज्येष्ठमलजी महाराज के जीवन का प्रभाव था। यही कारण है आपको जप-साधना अत्यधिक प्रिय थी। मैंने स्वयं देखा है कि जीवन की सान्ध्यवेला में प्रमाद आ जाता है । सूर्य का तेज भी कम हो जाता है। किन्तु आपश्री जप-साधना के क्षेत्र के प्रतिक्षण आगे बढ़ते ही रहे। एक दिन मैंने पूछा- गुरुदेव, आप प्रतिदिन चौदह-पन्द्रह घण्टे तक जप करते हैं। आपने आज दिन तक कितना जप किया है ? आपने कहा-"देवेन्द्र ! जप अपने लिए किया जाता है। जप में हिसाब की मनोवृत्ति नहीं होती। मैं नमस्कार मन्त्र का जाप करता हूँ। आपश्री ने बात टालने का प्रयास किया। किन्तु मेरे बालहठ के कारण अन्त में आपने कहा सवा करोड़ से भी अधिक जप हो चुका है।" मैं सोचने लगा सवा करोड़ का जप करना कितना कठिन है। उसके लिए कितना धैर्य अपेक्षित है। मैंने स्वयं यह देखा कि जप के कारण आपश्री को वचनसिद्धि भी हो गयी थी। किन्तु विस्तारभय से मैं वे सारे प्रसंग यहाँ नहीं दे रहा हूँ। आपश्री एक फक्कड़ सन्त थे । चाहे धनवान हो चाहे गरीब, सभी के प्रति समतापूर्ण व्यवहार था। धनवानों को देखकर आपने कभी उनका विशेष आदर करना पसन्द नहीं किया और निर्धनों को देखकर कभी अनादर नहीं किया। जयपुर वर्षावास में सेठ विनयचन्द दुर्लभजी जौहरी जब भी दर्शन के लिए आते तब पूज्य गुरुदेवश्री की सेवा में घण्टाआधा घण्टा बैठते थे, किन्तु गुरुदेव उनसे कभी भी बातचीत नहीं करते थे। वे अपनी जप-साधना में ही तल्लीन रहते थे। विनयचन्दभाई ने अनेकों बार पूज्य गुरुदेवश्री से प्रार्थना की कि मुझे कुछ सेवा का लाभ दीजिए। किन्तु गुरुदेव ने सदा यही कहा कि मुझे किसी भी वस्तु की आवश्यकता नहीं है। अन्त में पूज्य गुरुदेवश्री की स्मृति-सभा में बोलते हुए विनयचन्दभाई ने कहा-''मैंने ताराचन्दजी महाराज जैसे निस्पृह सन्त नहीं देखे जो मेरे द्वारा बीसों बार प्रार्थना करने पर भी कभी किसी वस्तु की या संस्था के लिए दान दिलवाने हेतु इच्छा व्यक्त नहीं की। सेठ सोहनलालजी दुग्गड जो महान, दानवीर थे, वे आपश्री के दर्शन हेतु कलकत्ता से जयपुर आये। उस समय पूज्य गुरुदेवश्री शौच के लिए बाहर पधारे हुए थे। दुग्गडजी गुरुदेव के साथ दो मील तक चलकर लाल भवन आये। उन्होंने गुरुदेवश्री से अत्यधिक प्रार्थना की कि मुझे अवश्य ही लाभ दें। मैं कलकत्ता से ही यह संकल्प करके आया हूँ कि आप जहाँ भी फरमाएँगे वहाँ मुझे अर्थ-सहयोग देना है। आपश्री ने कहा-जहाँ आपको सुख उत्पन्न होता हो वहाँ पर आप दान दे सकते हैं। मुझे कहीं पर भी नहीं दिलवाना । और आपश्री अपनी जप-साधना में लग गये। सेठ सोहनलानजी दुग्गड गुरुदेव के चरणों में डेढ़ घन्टे तक बैठे रहे । पुनः पुनः प्रार्थना करने पर भी आपश्री ने कुछ भी नहीं फरमाया । आपश्री के स्वर्गवास के पश्चात् श्रमण-संघ के उपाचार्य श्रीगणेशीलालजी महाराज तथा उपाध्याय हस्तीमलजी महाराज के सामने सेठ सोहनलालजी दुग्गड ने कहा कि मैं अपने जीवन में जैन, बौद्ध और वैदिक परम्परा के साधु-सन्तों के और आचार्यों के सम्पर्क में आया किन्तु जैसा निस्पृह सन्त महास्थविर ताराचन्दजी महाराज को मैंने देखा वैसा अन्य सन्त मुझे दिखायी नहीं दिया। भारत के प्रधानमन्त्री जवाहरलाल नेहरू ४ दिसम्बर, १९५४ को पूज्य गुरुदेवश्री से मिले थे, अन्य सन्त गण उनसे पचपन मिनट तक बातें करते रहे; किन्तु आपथी उस समय भी जप-साधना में तल्लीन थे। आपश्री की 00 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 10 11 12 13 14 15