Book Title: Adhyatma aur Vigyan Author(s): Sagarmal Jain Publisher: Z_Shwetambar_Sthanakvasi_Jain_Sabha_Hirak_Jayanti_Granth_012052.pdf View full book textPage 1
________________ अध्यात्म और विज्ञान औपनिषदिक ऋषिगण, बुद्ध और महावीर भारतीय अध्यात्म परम्परा के उन्नायक रहे हैं। उनके आध्यात्मिक चिन्तन ने भारतीय मानस को आत्मतोष प्रदान किया है। किन्तु आज हम विज्ञान के युग में जीवन जी रहे हैं। वैज्ञानिक उपलब्धियाँ भी आज हमें उद्वेलित कर रही हैं। आज का मनुष्य दो तलों पर जीवन जी रहा है। यदि विज्ञान को नकारता है तो जीवन की सुख-सुविधा और समृद्धि के खोने का खतरा है। दूसरी ओर अध्यात्म को नकारने पर आत्म- शान्ति से वश्चित होता है आज आवश्यकता है इन ऋषि महर्षियों द्वारा प्रतिस्थापित आध्यात्मिक मूल्यों और आधुनिक विज्ञान की उपलब्धियों के समन्वय की निश्चय ही 'विज्ञान और अध्यात्म की चर्चा आज प्रासङ्गिक है। सामान्यतया आज विज्ञान और अध्यात्म को परस्पर विरोधी अवधारणाओं के रूप में देखा जाता है जहाँ अध्यात्म को धर्मवाद और पारलौकिकता के साथ जोड़ा जाता है, वहीं विज्ञान को भौतिकता और इहलौकिकता के साथ जोड़ा जाता है। आज दोनों में विरोध माना जाता है, लेकिन यह अवधारणा भी भ्रान्त है। प्राचीन युग में तो विज्ञान और अध्यात्म ये शब्द भी परस्पर भिन्न अर्थ के बोधक नहीं थे। महावीर ने आचाराङ्गसूत्र में कहा है कि जो आत्मा है वही विज्ञाता है और जो विज्ञाता है वही आत्मा है।" यहाँ आत्मज्ञान और विज्ञान दोनों एक ही हैं। वस्तुतः विज्ञान शब्द वि+ज्ञान से बना है, 'वि' उपसर्ग विशिष्टता का द्योतक है अर्थात् विशिष्ट शान ही विज्ञान है। आज जो विज्ञान शब्द केवल पदार्थ - ज्ञान के रूप में रूढ़ हो गया है, वह मूलतः विशिष्ट ज्ञान या आत्मज्ञान ही था। आत्मज्ञान ही विशन है। पुनः अध्यात्म शब्द भी अधि+आत्म से बना है 'अधि' उपसर्ग भी विशिष्टता काही सूचक है, जो आत्म की विशिष्टता है, वही अध्यात्म है। चूँकि आत्मा ज्ञान स्वरूप ही है, अतः ज्ञान की विशिष्टता ही अध्यात्म है और वही विज्ञान है। फिर भी आज विज्ञान पदार्थ- ज्ञान के अर्थ में और अध्यात्म आत्मज्ञान के अर्थ में रूढ़ हो गया है। मेरी दृष्टि में विज्ञान साधकों का ज्ञान है तो अध्यात्म साध्य का ज्ञान । प्रस्तुत निबन्ध में इन्हीं रूद्र अर्थों में विज्ञान और अध्यात्म शब्द का प्रयोग किया जा रहा है। एक हमें बाह्य जगत् में जोड़ता है तो दूसरा हमें आत्म-जगत् से दोनों ही 'योग' हैं। एक साधन योग है तो दूसरा साध्य योग एक हमें जीवन-शैली (Life style) देता है तो दूसरा हमें जीवन - साध्य (Goal of life) देता है। आज हमारा दुर्भाग्य यही है कि जो एक-दूसरे के पूरक हैं उन्हें हमने एक-दूसरे का विरोधी मान लिया है। आज आवश्यकता इस बात की है कि इनकी परस्पर पूरक शक्ति या अभ को समझा जाये। आज हम विज्ञान को पदार्थ विज्ञान मानते हैं। यद्यपि आज हमने 'पर' या 'अनात्म' के सन्दर्भ में इतना अधिक ज्ञान अर्जित कर लिया Jain Education International २ " है कि 'स्व' या 'आत्म' को विस्मृत कर बैठे हैं। हमने परमाणु के आवरण को तोड़कर उसके जरें जरें को जानने का प्रयास किया, किन्तु दुर्भाग्य यही है कि अपनी आत्मा के आचरण को भेदकर अपने आपको नहीं जान सके। हम परिधि को व्यापकता देने में केन्द्र को ही भुला बैठे। मनुष्य की यह परकेन्द्रितता ही उसे अपने आप से बहुत दूर ले गई है। यही आज के जीवन की त्रासदी है वह दुनिया को समझता है, जानता है, परखता है, किन्तु अपने प्रति तन्द्राग्रस्त है । उसे स्वयं यह बोध नहीं है कि मैं कौन हूँ? मेरा कर्तव्य क्या है? लक्ष्य क्या है? वह भटक रहा है, मात्र भटक रहा है। आज से २५०० वर्ष पूर्व महावीर ने मनुष्य की उस पीड़ा को समझा था । उन्होंने कहा था कि कितने ही लोग ऐसे हैं जो नहीं जानते कि मैं कौन हूँ? कहाँ से आया हूँ मेरा गन्तव्य क्या है? यह केवल महावीर ने कहा हो ऐसी बात नहीं है । बुद्ध ने भी कहा था 'अदानं गवेस्सेथ' अपने को खोजो । औपनिषदिक ऋषियों ने कहा- 'आत्मानं विद्धि' अपने आपको जानो यही जीवन परिशोध का मूलमन्त्र है। आज हमें पुनः इन्हीं प्रश्नों के उत्तर को खोजना है। आज का विज्ञान आपको पदार्थ जगत् के सन्दर्भ में सूक्ष्मतम सूचनायें दे सकता है किन्तु वे सूचनायें हमारे लिए ठीक उसी तरह अर्थहीन हैं जिस प्रकार जब तक आँख न खुली हो, प्रकाश का कोई मूल्य नहीं । विज्ञान प्रकाश है, किन्तु अध्यात्म की आँख के बिना उसकी कोई सार्थकता नहीं है। आचार्य भद्रबाहु ने कहा थाअंधे व्यक्ति के सामने करोड़ों दीपक जलाने से क्या लाभ? जिसकी आँख खुली हो उसके लिए एक ही दीपक पर्याप्त है। आज के मनुष्य की भी यही स्थिति है। वह विज्ञान और तकनीक के सहारे बाह्य जगत् में चकाचौध विद्युत फैला रहा है किन्तु अपने अन्तर्चक्षु का उन्मीलन नहीं कर पा रहा है। प्रकाश की चकाचौंध में हम अपने को ही नहीं देख पा रहे हैं। यह सत्य है कि प्रकाश आवश्यक है, किन्तु आँखें खोले बिना उसका कोई मूल्य नहीं है। विज्ञान ने मनुष्य को शक्ति दी है। आज वह ध्वनि से भी अधिक तीव्र गति से यात्रा कर सकता है। किन्तु स्मरण रहे विज्ञान जीवन के लक्ष्य का निर्धारण नहीं कर सकता। लक्ष्य का निर्धारण तो अध्यात्म ही कर सकता है। विज्ञान साधन देता है, लेकिन उनका उपयोग किस दिशा में करना होगा यह बतलाना अध्यात्म का कार्य है। पूज्य विनोबा जी के शब्दों में 'विज्ञान में दोहरी शक्ति होती है एक विनाश-शक्ति और दूसरी विकास शक्ति वह सेवा भी कर सकता है और संहार भी अग्नि नारायण की खोज हुई तो उससे रसोई भी बनाई जा सकती है और उससे आग भी लगाई जा सकती है। अग्नि का प्रयोग घर फूँकनें में करना या चूल्हा जलाने में यह अक्ल विज्ञान में नहीं है। अक्ल तो आत्मशान में है।" आगे वे कहते हैं— आत्मज्ञान है— आँख और विज्ञान है— पांव । अगर मानव को आत्मज्ञान नहीं है तो वह अन्धा है । कहाँ चला जायेगा - For Private & Personal Use Only - www.jainelibrary.org.Page Navigation
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