Book Title: Adhyatma aur Vigyan
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Z_Shwetambar_Sthanakvasi_Jain_Sabha_Hirak_Jayanti_Granth_012052.pdf
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्यात्म और विज्ञान औपनिषदिक ऋषिगण, बुद्ध और महावीर भारतीय अध्यात्म परम्परा के उन्नायक रहे हैं। उनके आध्यात्मिक चिन्तन ने भारतीय मानस को आत्मतोष प्रदान किया है। किन्तु आज हम विज्ञान के युग में जीवन जी रहे हैं। वैज्ञानिक उपलब्धियाँ भी आज हमें उद्वेलित कर रही हैं। आज का मनुष्य दो तलों पर जीवन जी रहा है। यदि विज्ञान को नकारता है तो जीवन की सुख-सुविधा और समृद्धि के खोने का खतरा है। दूसरी ओर अध्यात्म को नकारने पर आत्म- शान्ति से वश्चित होता है आज आवश्यकता है इन ऋषि महर्षियों द्वारा प्रतिस्थापित आध्यात्मिक मूल्यों और आधुनिक विज्ञान की उपलब्धियों के समन्वय की निश्चय ही 'विज्ञान और अध्यात्म की चर्चा आज प्रासङ्गिक है। सामान्यतया आज विज्ञान और अध्यात्म को परस्पर विरोधी अवधारणाओं के रूप में देखा जाता है जहाँ अध्यात्म को धर्मवाद और पारलौकिकता के साथ जोड़ा जाता है, वहीं विज्ञान को भौतिकता और इहलौकिकता के साथ जोड़ा जाता है। आज दोनों में विरोध माना जाता है, लेकिन यह अवधारणा भी भ्रान्त है। प्राचीन युग में तो विज्ञान और अध्यात्म ये शब्द भी परस्पर भिन्न अर्थ के बोधक नहीं थे। महावीर ने आचाराङ्गसूत्र में कहा है कि जो आत्मा है वही विज्ञाता है और जो विज्ञाता है वही आत्मा है।" यहाँ आत्मज्ञान और विज्ञान दोनों एक ही हैं। वस्तुतः विज्ञान शब्द वि+ज्ञान से बना है, 'वि' उपसर्ग विशिष्टता का द्योतक है अर्थात् विशिष्ट शान ही विज्ञान है। आज जो विज्ञान शब्द केवल पदार्थ - ज्ञान के रूप में रूढ़ हो गया है, वह मूलतः विशिष्ट ज्ञान या आत्मज्ञान ही था। आत्मज्ञान ही विशन है। पुनः अध्यात्म शब्द भी अधि+आत्म से बना है 'अधि' उपसर्ग भी विशिष्टता काही सूचक है, जो आत्म की विशिष्टता है, वही अध्यात्म है। चूँकि आत्मा ज्ञान स्वरूप ही है, अतः ज्ञान की विशिष्टता ही अध्यात्म है और वही विज्ञान है। फिर भी आज विज्ञान पदार्थ- ज्ञान के अर्थ में और अध्यात्म आत्मज्ञान के अर्थ में रूढ़ हो गया है। मेरी दृष्टि में विज्ञान साधकों का ज्ञान है तो अध्यात्म साध्य का ज्ञान । प्रस्तुत निबन्ध में इन्हीं रूद्र अर्थों में विज्ञान और अध्यात्म शब्द का प्रयोग किया जा रहा है। एक हमें बाह्य जगत् में जोड़ता है तो दूसरा हमें आत्म-जगत् से दोनों ही 'योग' हैं। एक साधन योग है तो दूसरा साध्य योग एक हमें जीवन-शैली (Life style) देता है तो दूसरा हमें जीवन - साध्य (Goal of life) देता है। आज हमारा दुर्भाग्य यही है कि जो एक-दूसरे के पूरक हैं उन्हें हमने एक-दूसरे का विरोधी मान लिया है। आज आवश्यकता इस बात की है कि इनकी परस्पर पूरक शक्ति या अभ को समझा जाये। आज हम विज्ञान को पदार्थ विज्ञान मानते हैं। यद्यपि आज हमने 'पर' या 'अनात्म' के सन्दर्भ में इतना अधिक ज्ञान अर्जित कर लिया २ " है कि 'स्व' या 'आत्म' को विस्मृत कर बैठे हैं। हमने परमाणु के आवरण को तोड़कर उसके जरें जरें को जानने का प्रयास किया, किन्तु दुर्भाग्य यही है कि अपनी आत्मा के आचरण को भेदकर अपने आपको नहीं जान सके। हम परिधि को व्यापकता देने में केन्द्र को ही भुला बैठे। मनुष्य की यह परकेन्द्रितता ही उसे अपने आप से बहुत दूर ले गई है। यही आज के जीवन की त्रासदी है वह दुनिया को समझता है, जानता है, परखता है, किन्तु अपने प्रति तन्द्राग्रस्त है । उसे स्वयं यह बोध नहीं है कि मैं कौन हूँ? मेरा कर्तव्य क्या है? लक्ष्य क्या है? वह भटक रहा है, मात्र भटक रहा है। आज से २५०० वर्ष पूर्व महावीर ने मनुष्य की उस पीड़ा को समझा था । उन्होंने कहा था कि कितने ही लोग ऐसे हैं जो नहीं जानते कि मैं कौन हूँ? कहाँ से आया हूँ मेरा गन्तव्य क्या है? यह केवल महावीर ने कहा हो ऐसी बात नहीं है । बुद्ध ने भी कहा था 'अदानं गवेस्सेथ' अपने को खोजो । औपनिषदिक ऋषियों ने कहा- 'आत्मानं विद्धि' अपने आपको जानो यही जीवन परिशोध का मूलमन्त्र है। आज हमें पुनः इन्हीं प्रश्नों के उत्तर को खोजना है। आज का विज्ञान आपको पदार्थ जगत् के सन्दर्भ में सूक्ष्मतम सूचनायें दे सकता है किन्तु वे सूचनायें हमारे लिए ठीक उसी तरह अर्थहीन हैं जिस प्रकार जब तक आँख न खुली हो, प्रकाश का कोई मूल्य नहीं । विज्ञान प्रकाश है, किन्तु अध्यात्म की आँख के बिना उसकी कोई सार्थकता नहीं है। आचार्य भद्रबाहु ने कहा थाअंधे व्यक्ति के सामने करोड़ों दीपक जलाने से क्या लाभ? जिसकी आँख खुली हो उसके लिए एक ही दीपक पर्याप्त है। आज के मनुष्य की भी यही स्थिति है। वह विज्ञान और तकनीक के सहारे बाह्य जगत् में चकाचौध विद्युत फैला रहा है किन्तु अपने अन्तर्चक्षु का उन्मीलन नहीं कर पा रहा है। प्रकाश की चकाचौंध में हम अपने को ही नहीं देख पा रहे हैं। यह सत्य है कि प्रकाश आवश्यक है, किन्तु आँखें खोले बिना उसका कोई मूल्य नहीं है। विज्ञान ने मनुष्य को शक्ति दी है। आज वह ध्वनि से भी अधिक तीव्र गति से यात्रा कर सकता है। किन्तु स्मरण रहे विज्ञान जीवन के लक्ष्य का निर्धारण नहीं कर सकता। लक्ष्य का निर्धारण तो अध्यात्म ही कर सकता है। विज्ञान साधन देता है, लेकिन उनका उपयोग किस दिशा में करना होगा यह बतलाना अध्यात्म का कार्य है। पूज्य विनोबा जी के शब्दों में 'विज्ञान में दोहरी शक्ति होती है एक विनाश-शक्ति और दूसरी विकास शक्ति वह सेवा भी कर सकता है और संहार भी अग्नि नारायण की खोज हुई तो उससे रसोई भी बनाई जा सकती है और उससे आग भी लगाई जा सकती है। अग्नि का प्रयोग घर फूँकनें में करना या चूल्हा जलाने में यह अक्ल विज्ञान में नहीं है। अक्ल तो आत्मशान में है।" आगे वे कहते हैं— आत्मज्ञान है— आँख और विज्ञान है— पांव । अगर मानव को आत्मज्ञान नहीं है तो वह अन्धा है । कहाँ चला जायेगा - - . Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४२ जैन विद्या के आयाम खण्ड-६ कुछ पता नहीं। दूसरे शब्दों में कहें तो अध्यात्म देखता तो है, लेकिन के साथ जुड़ेगा तो वह समृद्धि और शान्ति लायेगा, किन्तु जब उसका चल नहीं सकता। उसमें लक्ष्य बोध तो है, किन्तु गति की शक्ति नहीं। गठबन्धन हिंसा से होगा तो संहारक होगा और अपने ही हाथों अपना विज्ञान में शक्ति तो है किन्तु गति की शक्ति नहीं। विज्ञान में शक्ति विनाश करेगा। तो है किन्तु आँख नहीं है, लक्ष्य का बोध नहीं है। जिस प्रकार अन्धे आज विज्ञान के सहारे मनुष्य ने इतना पाशविक बल संगृहीत और लंगड़े दोनों ही परस्पर सहयोग के अभाव में दावानल में जल कर लिया है कि वह उसका रक्षक न होकर कहीं भक्षक न बन जाय, मरते हैं, ठीक इसी प्रकार यदि आज विज्ञान और अध्यात्म परस्पर यह उसे सोचना है। महावीर ने स्पष्ट रूप से कहा था- 'अस्थि सत्येन एक दूसरे के पूरक नहीं होंगे तो मानवता अपने ही द्वारा लगाई गई परंपरं, नत्थि असत्येन परंपरं।' शस्त्र एक से बढ़कर एक हो सकता विस्फोटक शस्त्रों की इस आग में जल मरेगी। बिना विज्ञान के संसार है किन्तु अहिंसा से बढ़कर अन्य कुछ नहीं हो सकता। आज सम्पूर्ण में सुख नहीं आ सकता और बिना अध्यात्म के शान्ति नहीं आ सकती। मानव समाज को यह निर्णय लेना होगा कि वे वैज्ञानिक शक्तियों का मानव समाज की सुख (Pleasure) और शांति (Peace) के लिए दोनों प्रयोग मानवता के कल्याण के लिए करना चाहते हैं या उसके संहार का परस्पर होना आवश्यक है। वैज्ञानिक शक्तियों का उपयोग के लिए। आज तकनीकी प्रगति के कारण मनुष्य-मनुष्य के बीच की मानव-कल्याण में हो या मानव-संहार में, इस बात का निर्धारण विज्ञान दूरी कम हो गई है। आज विज्ञान ने मानव समाज को एक-दूसरे के से नहीं, आत्मज्ञान या अध्यात्म से करना होगा। अणु शक्ति का उपयोग निकट लाकर खड़ा कर दिया है। आज हम परस्पर इतने निर्भर बन मानव के संहार में हो या मानव के कल्याण में, यह निर्णय करने गये हैं कि एक-दूसरे के बिना खड़े भी नहीं रह सकते। किन्तु दूसरी का अधिकार उन वैज्ञानिकों को भी नहीं है, जो सत्ता, स्वार्थ और ओर आध्यात्मिक दृष्टि के अभाव के कारण हमारे हृदयों की दूरी अधिक समृद्धि के पीछे अन्धे राजनेताओं के दास हैं। यह निर्णय तो मानवीय विस्तीर्ण हो गई है। हृदय की इस दूरी को पाटने का काम विज्ञान विवेक सम्पन्न नि:स्पृह साधकों को ही करना होगा। यह सत्य है कि नहीं अध्यात्म ही कर सकता है। विज्ञान के सहयोग से तकनीक का विकास हुआ है और उसने मानव विज्ञान का कार्य है- विश्लेषित करना और अध्यात्म का कार्य के भौतिक दुःखों को बहुत कुछ कम कर दिया है, किन्तु दूसरी ओर है- संश्लेषित करना। विज्ञान तोड़ता है, अध्यात्म जोड़ता है। विज्ञान उसने मारक शक्ति के विकास के द्वारा भय या संत्रास की स्थिति उत्पन्न वियोजक है तो अध्यात्म संयोजक। विज्ञान पर-केन्द्रित है तो अध्यात्म कर मानव की शान्ति को भी छीन लिया है। आज मनुष्य जाति भयभीत आत्म-केन्द्रित। विज्ञान सिखाता है कि हमारे सुख-दुःख का केन्द्र वस्तुएँ और संत्रस्त है। आज वह विस्फोटक अस्त्रों के ज्वालामुखी पर खड़ी हैं, पदार्थ हैं, इसके विपरीत अध्यात्म कहता है कि सुख-दुःख का है, जो कब विस्फोट कर हमारे अस्तित्व को निगल लेगी, यह कहना केन्द्र आत्मा है। विज्ञान की दृष्टि बाहर देखती है, अध्यात्म अन्दर कठिन है। आज हमारे पास जिन संहारक अस्त्रों का संग्रह है, वे पृथ्वी में देखता है। विज्ञान की यात्रा अन्दर से बाहर की ओर है तो अध्यात्म के सम्पूर्ण जीवन को अनेक बार समाप्त कर सकते हैं। की यात्रा बाहर से अन्दर की ओर। मनुष्य को आज यह समझना है _ पूज्य विनोबा जी लिखते हैं- 'जो विज्ञान एक ओर क्लोरोफार्म कि यदि यात्रा बाहर की ओर होती रही तो वह शान्ति, जिसकी उसे की खोज करता है जिससे करुणा का कार्य होता है, वही विज्ञान अणु खोज है, कभी नहीं मिलेगी। क्योंकि बहिर्मुखी यात्री शान्ति की खोज अस्त्रों की खोज करता है जिससे भयङ्कर संहार होता है। एक बाजू वहाँ करता है जहाँ वह नहीं है। शान्ति अन्दर है उसकी खोज बाहर सिपाही को जख्मी करता है दूसरा बाजू उसको दुरुस्त करता है, ऐसा व्यर्थ है। गोरखधन्धा आज विज्ञान की मदद से चल रहा है। इस हालत में इस सम्बन्ध में एक रूपक याद आता है। एक वृद्धा शाम के विज्ञान का सारा कार्य उसको मिलने वाले मार्गदर्शन पर आधारित __ समय कुछ सी रही थी। संयोग से अंधेरा बढ़ने लगा और सुई उसके है। उसे जैसा मार्गदर्शन मिलेगा, वह वैसा कार्य करेगा। हाथ से छूटकर कहीं गिर पड़ी। महिला की झोपड़ी में प्रकाश का यदि विज्ञान पर सत्ता के आकांक्षियों का, राजनीतिज्ञों का और साधन नहीं था और प्रकाश के बिना सुई की खोज असम्भव थी। अपने स्वार्थ की रोटी सेंकने वालों का अधिकार होगा तो वह मनुष्य-जाति बुढ़िया ने सोचा क्या हुआ, अगर प्रकाश बाहर है तो सूई को वहीं का संहारक ही बनेगा। किन्तु इसके विपरीत यदि विज्ञान पर मानव-मङ्गल खोजा जाये। वह उस प्रकाश में सूई खोजती रही, खोजती रही, किन्तु के द्रष्टा अनासक्त ऋषियों-महर्षियों का अधिकार होगा, तो वह मानव सूई वहाँ कब मिलने वाली थी, क्योंकि वह वहाँ थी ही नहीं। प्रात: के विकास में सहायक होगा। आज हम विज्ञान के माध्यम से तकनीकी होने वाला था कि कोई यात्री उधर से निकला, उसने वृद्धा से उसकी प्रगति की ऊँचाई तक पहुँच चुके हैं जहाँ से लौटना भी सम्भव नहीं परेशानी का कारण पूछा। उसने पूछा- अम्मा सूई गिरी कहाँ थी? है। आज मनुष्य उस दोराहे पर खड़ा है, जहाँ पर उसे हिंसा और वृद्धा ने उत्तर दिया- 'बेटा' सूई तो झोपड़ी में थी, किन्तु उजाला अहिंसा दो राहों में से किसी एक को चुनना है। आज उसे यह समझना नहीं था अत: वहाँ खोजना सम्भव नहीं था। उजाला बाहर था, इसलिए है कि वह विज्ञान के साथ किसको जोड़ना चाहता है, हिंसा को या मैं यहाँ खोज रही थी। यात्री ने उत्तर दिया- यह सम्भव नहीं है अहिंसा को। आज उसके सामने दोनों विकल्प प्रस्तुत हैं। अम्मा! जो चीज जहाँ नहीं है वहाँ खोजने पर मिल जाये। सूर्य का विज्ञान अहिंसा विकास। विज्ञान हिंसा विनाश। जब विज्ञान अहिंसा प्रकाश होने को है उस प्रकाश में सूई वहीं खोजें जहाँ गिरी है। आज Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्यात्म और विज्ञान मानव समाज की स्थिति भी उसी वृद्धा के समान है। हम शान्ति की खोज वहाँ कर रहे हैं, जहाँ वह होती ही नहीं शान्ति आत्मा में है, अन्दर है। विज्ञान के सहारे आज शान्ति की खोज के प्रयत्न उस बुढ़िया के प्रयत्नों के समान निरर्थक ही होंगे विज्ञान, साधन दे सकता है, शक्ति दे सकता है किन्तु लक्ष्य का निर्धारण तो हमें ही करना होगा। आज विज्ञान के कारण मानव के पूर्वस्थापित जीवन मूल्य समाप्त हो गये हैं। आज श्रद्धा का स्थान तर्क ने ले लिया है। आज मनुष्य पारलौकिक उपलब्धियों के स्थान पर इहलौकिक उपलब्धियों को चाहता है। आज के तर्कप्रधान मनुष्य को सुख और शान्ति के नाम पर बहलाया नहीं जा सकता, लेकिन दुर्भाग्य यह है कि आज हम अध्यात्म के अभाव में नये जीवन मूल्यों का सृजन नहीं कर पा रहे हैं। आज विज्ञान का युग है। आज उस धर्म को, जो पारलौकिक जीवन की सुख-सुविधाओं के नाम पर मानवीय भावनाओं का शोषण कर रहा है, जानना होगा। आज तथाकथित वे धर्म परम्परायें जो मनुष्य को भविष्य के सुनहरे सपने दिखाकर फुसलाया करती थीं, अब तर्क की पैनी छेनी के आगे अपने को नहीं बचा सकतीं। अब स्वर्ग में जाने के लिए नहीं जीना है अपितु स्वर्ग को धरती पर लाने के लिए जीना होगा। विज्ञान ने हमें वह शक्ति दे दी है, जिससे स्वर्ग को धरती पर उतारा जा सकता है। अब यदि हम इस शक्ति का उपयोग धरती पर स्वर्ग उतारने के स्थान पर, धरती को नरक बनाने में करेंगे तो इसकी जवाबदेही हम पर ही होगी। आज वैज्ञानिक शक्तियों का उपयोग इस दृष्टि से करना है कि वे मानव कल्याण में सहभागी बनकर इस धरती को ही स्वर्ग बना सकें। विनोबा जी ने सत्य ही कहा है- आज विज्ञान का तो विकास हुआ किन्तु वैज्ञानिक उत्पन्न ही नहीं हुआ क्योंकि वैज्ञानिक वह है जो निरपेक्ष होता है। आज का वैज्ञानिक राजनीतिज्ञों और पूँजीपतियों के इशारे पर चलने वाला व्यक्ति है वह पैसे से खरीदा जा सकता है। यह तो वैज्ञानिक की गुलामी है। ऐसे लोग अवैज्ञानिक हैं यदि वैज्ञानिक (Scientist) वैज्ञानिक (Scientific) नहीं बना तो विज्ञान मनुष्य के लिए ही घातक सिद्ध होगा। आज विज्ञान का उपयोग कैसे किया जाय इसका उत्तर विज्ञान के पास नहीं अध्यात्म के पास है। विनोबा जी लिखते हैं कि आज युग की माँग से विज्ञान की जितनी ही शक्ति बढ़ेगी। आत्मज्ञान को उतनी ही शक्ति बढ़ानी होगी। आज अमेरिका इसलिए दुःखी है कि वहां विज्ञान तो है, पर अध्यात्म है नहीं, अतः सुख तो है, शान्ति नहीं इसके विपरीत भारत में आध्यात्मिक विकास के कारण मानसिक शान्ति तो है, किन्तु समृद्धि नहीं । आज जहाँ समृद्धि है वहाँ शान्ति नहीं और जहाँ शान्ति है वहाँ समृद्धि नहीं। इसका समाधान आध्यात्म और विज्ञान के समन्वय में निहित है। अध्यात्म शान्ति देगा तो विज्ञान समृद्धि । जब समृद्धि और शान्ति दोनों ही एक साथ उपस्थित होंगी, मानवता अपने विकास के परम शिखर पर होगा। मानव स्वयं अतिमानव के रूप में विकसित हो जायगा । किन्तु इसके लिए प्रयत्न करना होगा। बिना अडिग आस्था और सतत पुरुषार्थ के यह सम्भव नहीं । ३४३ आज विज्ञान ने मनुष्य को सुख-सुविधा और समृद्धि तो प्रदान कर दी है, फिर भी मनुष्य भय और तनाव की स्थिति में जी रहा है। उसे आन्तरिक शान्ति उपलब्ध नहीं है उसकी समाधि भंग हो चुकी है। यदि विज्ञान के माध्यम से कोई शान्ति आ सकती है तो वह केवल श्मशान की शान्ति होगी। बाहरी साधनों से न कभी आन्तरिक शान्ति मिली है, न उसका मिलना सम्भव ही है। इस प्रसंग में उपनिषदों का एक प्रसंग याद आ रहा है— नारद जीवन भर वेद-वेदांग का अध्ययन करते रहे। उन्होंने अनेक विद्यायें (भौतिक विद्यायें ) प्राप्त कर ली, किन्तु उनके मन को कहीं सन्तोष नहीं मिला। वे सनत्कुमार के पास आये और कहने लगे मैने अनेक शास्त्रों का अध्ययन किया। मैं शास्त्रविद् तो हूँ किन्तु आत्मविद् नहीं। आज के वैज्ञानिक भी नारद की भाँति ही हैं। वे शास्त्रविद् तो हैं, किन्तु आत्मविद् नहीं। आत्मविद् हुए बिना शांति को नहीं पाया जा सकता। यद्यपि मेरे कहने का तात्पर्य यह नहीं है कि हम विज्ञान और उसकी उपलब्धियों को तिलांजलि दे दें। वैज्ञानिक उपलब्धियों का परित्याग न तो सम्भव है, न औचित्यपूर्ण है। किन्तु अध्यात्म या मानवीय विवेक को इनका अनुशासक होना चाहिए। अध्यात्म ही विज्ञान का अनुशासक हो तभी एक समग्रता या पूर्णता आयेगी और मनुष्य एक साथ समृद्धि और शान्ति को पा सकेगा। ईशावास्योपनिषद् में जिसे हम पदार्थ ज्ञान या विज्ञान कहते हैं उसे अविद्या कहा गया है और जिसे हम अध्यात्म कहते हैं विद्या कहा गया है। उपनिषद्कार दोनों के सम्बन्ध को उचित बताते हुए कहता है— जो पदार्थ विज्ञान या अविद्या की उपासना करता है वह अन्धकार में, तमस में प्रवेश करता है, क्योंकि विज्ञान या पदार्थ विज्ञान अन्धा है। किन्तु साथ ही वह यह भी चेतावनी देता है कि जो केवल विद्या में रत हैं, वे उससे अधिक अन्धकार में चले जाते हैं अन्ध तमः प्रविशन्ति येऽविद्यामुपासते । ततो भूय इव ते तमो य उ विद्यायां रता: ")।" वस्तुतः वह जो अविद्या और विद्या दोनों की एक साथ उपासना करता है वह अविद्या द्वारा मृत्यु को पार करता है अर्थात् वह सांसारिक कष्टों से मुक्ति पाता है और विद्या द्वारा अमृत प्राप्त करता है । विद्या चाविद्यां च यस्तवेदोमयं सह अविद्यया मृत्यु तीर्त्वा विद्ययामृतमश्नुते ।। " वस्तुत: यह अमृत आत्म-शान्ति या आत्मतोष ही है। अतः जब विज्ञान और अध्यात्म का समन्वय होगा तभी मानवता का कल्याण होगा। विज्ञान जीवन के कष्टों को समाप्त कर देगा और अध्यात्म आन्तरिक शान्ति को प्रदान करेगा। आचारांगसूत्र में महावीर ने अध्यात्म के लिए 'अज्झत्व' शब्द का प्रयोग किया है और यह बताया है कि इसी के द्वारा आत्म-विशुद्धि को प्राप्त किया जा सकता है। वस्तुतः अध्यात्म कुछ नहीं है, वह आत्म-उपलब्धि या आत्म-विशुद्धि की ही एक प्रक्रिया है; उसका प्रारम्भ आत्मज्ञान से है और उसकी परिनिष्पत्ति आध्यात्मिक मूल्यों के प्रति अटूट निष्ठा में है। वस्तुतः आज जितनी मात्रा में पदार्थ विज्ञान विकसित हुआ है उतनी ही मात्रा में आत्मज्ञान को विकसित होना चाहिए। विज्ञान की दौड़ में अध्यात्म पीछे रह गया है। पदार्थ को जानने के प्रयत्नों में हम अपने को भुला बैठे है मेरी दृष्टि में आत्मज्ञान कोई अमूर्त तात्विक आत्मा की खोज नहीं है, बल्कि अपने . Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 344 जैन विद्या के आयाम खण्ड-६ आपको जानना है। अपने आपको जानने का तात्पर्य अपने में निहित हेतु शोषण और संग्रह जैसी सामाजिक बुराइयों को जन्म देता है, वासनाओं और विकारों को देखना है। आत्मज्ञान का अर्थ होता है जिससे वह स्वयं तो संत्रस्त होता ही है, साथ ही साथ समाज को हम यह देखें कि हमारे जीवन में कहाँ अहंकार छिपा पड़ा है और भी संत्रस्त बना देता है। इसके विपरीत अध्यात्मवाद हमें यह सिखाता कहाँ किसके प्रति घृणा-विद्वेष के तत्त्व पल रहे हैं। आत्मज्ञान कोई है कि सुख का केन्द्र वस्तु में न होकर आत्मा में है। सुख-दुःख हौव्वा नहीं है, वह तो अपने अन्दर झांककर अपनी वृत्तियों और आत्म-केन्द्रित है। आत्मा या व्यक्ति ही अपने सुख-दुःख का कर्ता वासनाओं को पढ़ने की कला है। विज्ञान द्वारा प्रदत्त तकनीक के सहारे और भोक्ता है। वही अपना मित्र और वही अपना शत्रु है। सुप्रतिष्ठित हम पदार्थों का परिशोधन करना तो सीख गये और परिशोधन से कितनी अर्थात् सद्गुणों में स्थित आत्मा मित्र है और दुःप्रतिष्ठित अर्थात् दुर्गुणों किसे शक्ति प्राप्त होती है यह भी जान गये, किन्तु आत्मा के परिशोधन में स्थित आत्मा शत्रु है। वस्तुत: आध्यात्मिक आनन्द की उपलब्धि की जो कला अध्यात्म के नाम से हमारे ऋषि-मुनियों ने दी, आज पदार्थों में न होकर सद्गुणों में स्थित आत्मा में होती है। अध्यात्मवाद हम उसे भूल चुके हैं। के अनुसार देहादि सभी आत्मेतर पदार्थों के प्रति ममत्वबुद्धि का विसर्जन फिर भी विज्ञान ने आज हमारी सुख-सुविधा प्रदान करने के साधना का मूल उत्स है। ममत्व का विसर्जन और ममत्व का सृजन अतिरिक्त जो सबसे बड़ा उपकार किया है, वह यह कि धर्मवाद के यही जीवन का परम मूल्य है। जैसे ही ममत्व का विसर्जन होगा समत्व नाम पर जो अन्धश्रद्धा और अन्धविश्वास पल रहे थे उन्हें तोड़ दिया का सृजन होगा, और जब समत्व का सृजन होगा तो शोषण और है। इसका टूटना आवश्यक भी था, क्योंकि परलोक की लोरी सुनाकर संग्रह की सामाजिक बुराइयां समाप्त होंगी। परिमाणत: व्यक्ति आत्मिक मानव समाज को अधिक समय तक भ्रम में रखना सम्भव नहीं था। शान्ति का अनुभव करेगा। अध्यात्मवादी समाज में विज्ञान तो रहेगा विज्ञान ने अच्छा ही किया हमारा यह भ्रम तोड़ दिया। किन्तु हमें किन्तु उसका उपयोग संहार में न होकर सृजन में होगा, मानवता के यह भी स्मरण रखना होगा कि भ्रम का टूटना ही पर्याप्त नहीं है। कल्याण में होगा। इससे जो रिक्तता पैदा हुई है उसे आध्यात्मिक मूल्यनिष्ठा के द्वारा अन्त में पुन: मैं यही कहना चाहूँगा कि विज्ञान के कारण जो ही भरना होगा। यह आध्यात्मिक मूल्यनिष्ठा उच्च मूल्यों के प्रति निष्ठा एक संत्रास की स्थिति मानव समाज में दिखाई दे रही है उसका मूलभूत है, जो जीवन को शान्ति और आत्मसंतोष प्रदान करते हैं। कारण विज्ञान नहीं, अपितु व्यक्ति की संकुचित और स्वार्थवादी दृष्टि अध्यात्म और विज्ञान का संघर्ष वस्तुत: भौतिकवाद और ही है। विज्ञान तो निरपेक्ष है, वह न अच्छा है और न बुरा। उसका अध्यात्मवाद का संघर्ष है। अध्यात्म की शिक्षा यही है कि भौतिक अच्छा या बुरा होना उसके उपयोग पर निर्भर करता है और इस उपयोग सुख-सुविधाओं की उपलब्धि ही अन्तिम लक्ष्य नहीं है। दैहिक एवं का निर्धारण व्यक्ति के अधिकार की वस्तु है। अत: आज विज्ञान को आत्मिक मूल्यों से परे सामाजिकता और मानवता के उच्च मूल्य भी नकारने की आवश्यकता नहीं है। आवश्यकता है उसे सम्यक्-दिशा हैं। महावीर की दृष्टि में अध्यात्मवाद का अर्थ है पदार्थ को परम मूल्य में नियोजित करने की और यह सम्यक्-दिशा अन्य कुछ नहीं, यह न मानकर आत्मा को ही परम मूल्य मानना। भौतिकवादी दृष्टि के सम्पूर्ण मानवता के कल्याण की व्यापक आकांक्षा ही है और इस आकांक्षा अनुसार सुख और दुःख वस्तुगत तथ्य हैं। अत: भौतिकवादी सुखों की पूर्ति अध्यात्म और विज्ञान के समन्वय में है। काश मानवता इन की लालसा में वह वस्तुओं के पीछे दौड़ता है तथा उनकी उपलब्धि दोनों में समन्वय कर सके बल्कि यही कामना है। सन्दर्भ: 1. जे आया से विण्णाया, जे विण्णाया से आया। -आचाराङ्गसूत्र, संपा० मधुकर मुनि, श्री आगम प्रकाशन समिति, ब्यावर, 1980, 2/5/5 / 2. वही, 1/1/1 / 3. आत्मज्ञान और विज्ञान (बिनोवा)। 4. वही / 5. वही / 6. अप्पा खलु मित्तं अमित्तं च सुपट्ठिओ दुपट्ठिओ। 7. ईशावास्योपनिषद्, (गीताप्रेस, गोरखपुर, वि०सं० 2017).9 / 8. वही, 11 /