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जैन विद्या के आयाम खण्ड-६ कुछ पता नहीं। दूसरे शब्दों में कहें तो अध्यात्म देखता तो है, लेकिन के साथ जुड़ेगा तो वह समृद्धि और शान्ति लायेगा, किन्तु जब उसका चल नहीं सकता। उसमें लक्ष्य बोध तो है, किन्तु गति की शक्ति नहीं। गठबन्धन हिंसा से होगा तो संहारक होगा और अपने ही हाथों अपना विज्ञान में शक्ति तो है किन्तु गति की शक्ति नहीं। विज्ञान में शक्ति विनाश करेगा। तो है किन्तु आँख नहीं है, लक्ष्य का बोध नहीं है। जिस प्रकार अन्धे आज विज्ञान के सहारे मनुष्य ने इतना पाशविक बल संगृहीत
और लंगड़े दोनों ही परस्पर सहयोग के अभाव में दावानल में जल कर लिया है कि वह उसका रक्षक न होकर कहीं भक्षक न बन जाय, मरते हैं, ठीक इसी प्रकार यदि आज विज्ञान और अध्यात्म परस्पर यह उसे सोचना है। महावीर ने स्पष्ट रूप से कहा था- 'अस्थि सत्येन एक दूसरे के पूरक नहीं होंगे तो मानवता अपने ही द्वारा लगाई गई परंपरं, नत्थि असत्येन परंपरं।' शस्त्र एक से बढ़कर एक हो सकता विस्फोटक शस्त्रों की इस आग में जल मरेगी। बिना विज्ञान के संसार है किन्तु अहिंसा से बढ़कर अन्य कुछ नहीं हो सकता। आज सम्पूर्ण में सुख नहीं आ सकता और बिना अध्यात्म के शान्ति नहीं आ सकती। मानव समाज को यह निर्णय लेना होगा कि वे वैज्ञानिक शक्तियों का मानव समाज की सुख (Pleasure) और शांति (Peace) के लिए दोनों प्रयोग मानवता के कल्याण के लिए करना चाहते हैं या उसके संहार का परस्पर होना आवश्यक है। वैज्ञानिक शक्तियों का उपयोग के लिए। आज तकनीकी प्रगति के कारण मनुष्य-मनुष्य के बीच की मानव-कल्याण में हो या मानव-संहार में, इस बात का निर्धारण विज्ञान दूरी कम हो गई है। आज विज्ञान ने मानव समाज को एक-दूसरे के से नहीं, आत्मज्ञान या अध्यात्म से करना होगा। अणु शक्ति का उपयोग निकट लाकर खड़ा कर दिया है। आज हम परस्पर इतने निर्भर बन मानव के संहार में हो या मानव के कल्याण में, यह निर्णय करने गये हैं कि एक-दूसरे के बिना खड़े भी नहीं रह सकते। किन्तु दूसरी का अधिकार उन वैज्ञानिकों को भी नहीं है, जो सत्ता, स्वार्थ और ओर आध्यात्मिक दृष्टि के अभाव के कारण हमारे हृदयों की दूरी अधिक समृद्धि के पीछे अन्धे राजनेताओं के दास हैं। यह निर्णय तो मानवीय विस्तीर्ण हो गई है। हृदय की इस दूरी को पाटने का काम विज्ञान विवेक सम्पन्न नि:स्पृह साधकों को ही करना होगा। यह सत्य है कि नहीं अध्यात्म ही कर सकता है। विज्ञान के सहयोग से तकनीक का विकास हुआ है और उसने मानव विज्ञान का कार्य है- विश्लेषित करना और अध्यात्म का कार्य के भौतिक दुःखों को बहुत कुछ कम कर दिया है, किन्तु दूसरी ओर है- संश्लेषित करना। विज्ञान तोड़ता है, अध्यात्म जोड़ता है। विज्ञान उसने मारक शक्ति के विकास के द्वारा भय या संत्रास की स्थिति उत्पन्न वियोजक है तो अध्यात्म संयोजक। विज्ञान पर-केन्द्रित है तो अध्यात्म कर मानव की शान्ति को भी छीन लिया है। आज मनुष्य जाति भयभीत आत्म-केन्द्रित। विज्ञान सिखाता है कि हमारे सुख-दुःख का केन्द्र वस्तुएँ
और संत्रस्त है। आज वह विस्फोटक अस्त्रों के ज्वालामुखी पर खड़ी हैं, पदार्थ हैं, इसके विपरीत अध्यात्म कहता है कि सुख-दुःख का है, जो कब विस्फोट कर हमारे अस्तित्व को निगल लेगी, यह कहना केन्द्र आत्मा है। विज्ञान की दृष्टि बाहर देखती है, अध्यात्म अन्दर कठिन है। आज हमारे पास जिन संहारक अस्त्रों का संग्रह है, वे पृथ्वी में देखता है। विज्ञान की यात्रा अन्दर से बाहर की ओर है तो अध्यात्म के सम्पूर्ण जीवन को अनेक बार समाप्त कर सकते हैं।
की यात्रा बाहर से अन्दर की ओर। मनुष्य को आज यह समझना है _ पूज्य विनोबा जी लिखते हैं- 'जो विज्ञान एक ओर क्लोरोफार्म कि यदि यात्रा बाहर की ओर होती रही तो वह शान्ति, जिसकी उसे की खोज करता है जिससे करुणा का कार्य होता है, वही विज्ञान अणु खोज है, कभी नहीं मिलेगी। क्योंकि बहिर्मुखी यात्री शान्ति की खोज अस्त्रों की खोज करता है जिससे भयङ्कर संहार होता है। एक बाजू वहाँ करता है जहाँ वह नहीं है। शान्ति अन्दर है उसकी खोज बाहर सिपाही को जख्मी करता है दूसरा बाजू उसको दुरुस्त करता है, ऐसा व्यर्थ है। गोरखधन्धा आज विज्ञान की मदद से चल रहा है। इस हालत में इस सम्बन्ध में एक रूपक याद आता है। एक वृद्धा शाम के विज्ञान का सारा कार्य उसको मिलने वाले मार्गदर्शन पर आधारित __ समय कुछ सी रही थी। संयोग से अंधेरा बढ़ने लगा और सुई उसके है। उसे जैसा मार्गदर्शन मिलेगा, वह वैसा कार्य करेगा। हाथ से छूटकर कहीं गिर पड़ी। महिला की झोपड़ी में प्रकाश का
यदि विज्ञान पर सत्ता के आकांक्षियों का, राजनीतिज्ञों का और साधन नहीं था और प्रकाश के बिना सुई की खोज असम्भव थी। अपने स्वार्थ की रोटी सेंकने वालों का अधिकार होगा तो वह मनुष्य-जाति बुढ़िया ने सोचा क्या हुआ, अगर प्रकाश बाहर है तो सूई को वहीं का संहारक ही बनेगा। किन्तु इसके विपरीत यदि विज्ञान पर मानव-मङ्गल खोजा जाये। वह उस प्रकाश में सूई खोजती रही, खोजती रही, किन्तु के द्रष्टा अनासक्त ऋषियों-महर्षियों का अधिकार होगा, तो वह मानव सूई वहाँ कब मिलने वाली थी, क्योंकि वह वहाँ थी ही नहीं। प्रात: के विकास में सहायक होगा। आज हम विज्ञान के माध्यम से तकनीकी होने वाला था कि कोई यात्री उधर से निकला, उसने वृद्धा से उसकी प्रगति की ऊँचाई तक पहुँच चुके हैं जहाँ से लौटना भी सम्भव नहीं परेशानी का कारण पूछा। उसने पूछा- अम्मा सूई गिरी कहाँ थी? है। आज मनुष्य उस दोराहे पर खड़ा है, जहाँ पर उसे हिंसा और वृद्धा ने उत्तर दिया- 'बेटा' सूई तो झोपड़ी में थी, किन्तु उजाला अहिंसा दो राहों में से किसी एक को चुनना है। आज उसे यह समझना नहीं था अत: वहाँ खोजना सम्भव नहीं था। उजाला बाहर था, इसलिए है कि वह विज्ञान के साथ किसको जोड़ना चाहता है, हिंसा को या मैं यहाँ खोज रही थी। यात्री ने उत्तर दिया- यह सम्भव नहीं है अहिंसा को। आज उसके सामने दोनों विकल्प प्रस्तुत हैं। अम्मा! जो चीज जहाँ नहीं है वहाँ खोजने पर मिल जाये। सूर्य का विज्ञान अहिंसा विकास। विज्ञान हिंसा विनाश। जब विज्ञान अहिंसा प्रकाश होने को है उस प्रकाश में सूई वहीं खोजें जहाँ गिरी है। आज
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