Book Title: Adhunik Yug aur Dharm Author(s): Vasishtha Narayn Sinha Publisher: Z_Jaganmohanlal_Pandit_Sadhuwad_Granth_012026.pdf View full book textPage 3
________________ २ ] आधुनिक युग और धर्म ६३ भारतीय परम्परा में मानव जीवन की उपलब्धियाँ दो प्रकार की मानी गई हैं-लौकिक तथा पारलौकिक । लोक यानी समाज में रहते हुए सुख शान्ति प्राप्त करना लौकिक उपलब्धियां मानी जाती हैं तथा सांसारिक जीवन के बाद अर्थात् मृत्यु हो जाने पर स्वर्ग प्राप्त करना, मोक्ष पाना पारलौकिक उपलब्धियाँ समझी जाती हैं । धर्मं लौकिक करता है । इसलिए हमारे यहाँ व्यक्ति अपने लौकिक जीवन की जीवन में तो सहायक होता ही है, पारलौकिक पुरुषार्थ - धर्म, अर्थ, काम एवं मोक्ष को महत्त्व तो समुचित व्यवस्था कर ही लेता है, साथ ही पारलौकिक जीवन के लिए भी साधना कर लेता है । जीवन के लिए भी सहायता प्रदान दिया गया है। इनके माध्यम से धर्मं विश्वास है, आस्था है। इसमें तर्क-वितर्क को कम महत्त्व दिया जाता है । धार्मिक व्यक्ति गुरु के वचनों को सुनता है अथवा शास्त्रों में पढ़ता है और उन्हें सत्यरूप में ग्रहण कर लेता है । प्रमाण के क्षेत्र में इसे शब्द - प्रमाण अथवा श्रुतज्ञान के रूप में स्थान मिला है । देश और काल के अनुसार धर्म में परिवर्तन देखे जाते हैं । चूंकि धर्म व्यक्ति के जीवन को धारण करता है, इसलिए ठण्ड तथा गर्म प्रदेशों में रहने वाले लोगों के धर्मं बिलकुल एक ही हों, ऐसा नहीं हो सकता। गर्म प्रदेश के वासियों के धर्माचार में नित्य स्नान करके अर्चना-वन्दना करने का विधान देखा जाता है । किन्तु यही आचार यदि ठण्डे प्रदेश के रहने वालों के लिए भी निर्धारित हो, तब तो यह धर्माचार जीवन का पोषक नहीं, बल्कि नाशक साबित होगा । अहिंसा को परम धर्म मानते हुए मांसभक्षण का विरोध किया जाता है, किन्तु जंगल में रहने वालों के लिए यदि यही धर्म - व्यबस्था हो, तब तो वे भूखे मर जायेंगे और धर्म उनके लिए घातक सिद्ध होगा । प्राचीन काल में भारतीय समाज में वर्णाश्रम व्यवस्था थी । चार वर्णो ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य तथा शूद्र में बैठने-उठने, खान-पान, शादी आदि के बहुत ही कठिन नियम थे, जिन्हें न मानने पर समाज व्यक्ति को कठोर दण्ड देता था । आज भी वर्णों के विविध रूप देखे जाते हैं, किन्तु प्राचीन नियमों को लेकर चलने वाला व्यक्ति आज के समाज में रह नहीं सकता । इसी तरह समयानुसार नियमों के अपवादों या परिवर्तनों के कारण हो जैनधर्म में दिगम्बर तथा श्वेताम्बर, बौद्धधर्म में हीनयान तथा महायान, ईसाई धर्म में कैथोलिक तथा प्रोटेस्टेण्ट, इस्लाम धर्म में शिया और सुन्नी शाखाएँ बनीं । काल के अनुसार यदि घर्मं में परिवर्तन न हो तो धर्म हमें क्या धारण करेगा, हम ही उसे धारण करने में असमर्थ हो जायेंगे । धर्म के मूल्य सत्यं शिवं तथा सुन्दरं सर्वोत्कृष्ट एवं सर्वमान्य मूल्य हैं । इन्हें हम धर्म के मूल्य कहें अथवा मानव जीवन के मूल्य कहें । इनसे अलग होकर मानव जीवन, मानव जीवन नहीं रह जाता और न कोई धर्मं धर्मं बन पाता है । ये तीन मूल्य एक दूसरे के पूरक हैं। जो सत्य होता है, वह शिव यानी कल्याण रूप तथा सुन्दर होता है । जो कल्याणकारी होता है, वह सत्य होता है, सुन्दर होता है तथा जो सुन्दर होता है, वही कल्याणकारी और सत्य होता है । कभी-कभी सामान्य जीवन में इनके कुछ अपवाद भी देखे जाते हैं, किन्तु यदि सही अर्थ में मूल्य के रूप में इन्हें समझने की कोशिश करेंगे, तो अवश्य ही इन्हें एक दूसरे के पूरक के रूप में पायेंगे । चूंकि ये ही परम मूल्य हैं, इसलिए जहाँ कहीं भी ये होते हैं, वहीं पर धर्म होता है। धर्म की सुदृढ़ता इन्हीं पर निर्भर करती है । विज्ञान और धर्म आज के वैज्ञानिक चमत्कारों को देखकर धार्मिक आस्थाएँ डगमगाने लग जाती हैं और धार्मिक व्यक्ति किंकर्तव्य विमूढ़-सा हो जाता है । चाँद जिसे वैदिक परम्परा ही नहीं, बल्कि इस्लाम परम्परा में भी महत्त्व दिया गया हैं, साहित्य Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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