Book Title: Adhunik Jivan me Shramanachar ki Mahatta Author(s): Jivraj Jain Publisher: Z_Jinvani_Guru_Garima_evam_Shraman_Jivan_Visheshank_003844.pdf View full book textPage 1
________________ 10 जनवरी 2011 जिनवाणी 328 आधुनिक जीवन में श्रमणाचार की महत्ता डॉ. जीवराज जैन औद्योगिक क्रान्ति, आधुनिक सूचना तन्त्र तथा बदलते सामाजिक परिवेश के कारण श्रमण- श्रमणियों के आचार- पालन में उत्पन्न कठिनाइयों के कारण श्रमणाचार में यथोचित परिवर्तन की आवाजें उठती हैं। डॉ. जीवराज जैन उन समस्याओं को उठाकर भी अपने आलेख में श्रमणाचार के आगमसम्मत शुद्ध परिपालन को उचित ठहराया है। -सम्पादक श्रमणाचार के नियम एक श्रमण संपूर्ण हिंसा का त्यागी होता है। यानी वह छहों काया के जीवों का मन, वचन और काया से रक्षक होता है । वह स्व-कल्याण करते हुए ही पर-कल्याण की बात करता है। अपनी काया (देह) की रक्षा और उसका उपयोग इस भावना से करता है कि वह उसके सहारे अपने पूर्व बद्ध कर्मों का अधिक से अधिक क्षय कर सके। तथा इतनी जागरूकता रखता है कि नये कर्मों का कम से कम बंध हो । इसके लिए वह मार्ग में आने वाले परीषहों और उपसर्गों को समता भाव से सहन करने का प्रयास करता है । इतनी बड़ी साधना को अव्याबाध रूप से सम्पन्न कराने के लिए, धर्मग्रन्थों में उसकी प्रायः प्रत्येक क्रिया के लिए आवश्यक नियमों एवं मानकों का विधान रखा गया है। एक श्रमण को हर पल, सतत जागरूक रहकर, अपनी जीवनचर्या को चलाते समय उच्च कोटि का विवेक रखना होता है। तभी उसकी धर्माराधना निर्विघ्न रूप से सम्यक् श्रद्धा के साथ चल सकती है तथा अपने आत्म ध्यान, विश्लेषण, शोधन और विकास में वांछित सफलता हासिल कर सकता है । श्रमणाचार के नियमों में न केवल श्रमण की आवश्यकताओं को न्यूनतम रखा गया है, बल्कि ऐसे नियम बनाये गये हैं कि वे उसको सिंह प्रवृत्ति से, अपनी व्यवहारिक दिनचर्या को, फक्कड़ की तरह समभाव से चलाने में मार्गदर्शन दे व सहायता करे। इन कठिन नियमों की पूर्ण व्याख्या यानी पूरी आचार-संहिता तथा उनमें जाने-अनजाने में होने वाली विभिन्न प्रकार की स्खलनाओं के लिए प्रायश्चित्त आदि की व्यवस्थाओं को भी लिपिबद्ध रूप में उपलब्ध कराया गया है। नियमों में परिवर्तन का मुद्दा श्रमणों की यह आचार संहिता भगवान महावीर के जमाने में, तत्कालीन द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव को ध्यान में रखते हुए बनाई गई थी। चूँकि एक श्रमण आखिरकार श्रावक समाज के बीच रहकर ही अपनी साधना करता है, उन्हीं के साथ उसकी पारस्परिक क्रियाएँ होती हैं, तो क्या श्रावकों के बदले हुए सामाजिक परिवेश में Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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