Book Title: Adhunik Hindi Mahakavyo me Karm evam Punarjanma ki Avdharna Author(s): Devdatta Sharma Publisher: Z_Jinvani_Karmsiddhant_Visheshank_003842.pdf View full book textPage 2
________________ २३० ] [ कर्म सिद्धान्त सष्टि में जो आश्चर्यजनक वैचित्र्य परिलक्षित होता है, वह नाम कर्म के कारण है तथा जिस कर्म के प्रभाव से जीव प्रतिष्ठित अथवा अप्रतिष्ठित कुल में जन्म लेता है, वह गौत्रकर्म है । अभीष्ट की प्राप्ति में व्यवधान डालने वाला अन्तराय कर्म है। जैन दर्शन में कर्मों की दस मुख्य अवस्थाएं या कर्मों में होने वाली दस मुख्य क्रियाएँ बतलाई गई हैं जिन्हें 'करण' कहते हैं। ये दस अवस्थाएँ हैंबन्ध, उत्कर्षण, अपकर्षण, सत्ता, उदय, उदीरणा, संक्रमण, उपशम, निधत्ति और निकाचना। कर्म पुद्गलों का जीव के साथ सम्बन्ध होने को बन्ध कहते हैं। कर्म की यह प्रथम अवस्था है । इसके बिना अन्य कोई अवस्था नहीं हो सकती। इसके चार भेद हैं—प्रकृतिबन्ध, स्थितिबन्ध, अनुभागबन्ध और प्रदेशबन्ध । स्थिति और अनुभाग के बढ़ने को उत्कर्षण कहते हैं और स्थिति और अनुभाग के घटने को अपकर्षण कहते हैं । इस उत्कर्षण और अपकर्षण के कारण ही कोई कर्म शीघ्र तो कोई विलम्ब से, कोई तीव्र तो कोई मन्द फल प्रदान करता है । यदि कोई जीव बुरे कर्मों का बंध्य हो जाने के उपरान्त भी अच्छे कर्म करता है तो पूर्व में बंधे बुरे कर्मों की फलदान शक्ति अच्छे कर्मों के प्रभाव से घट जाती है। यदि कोई जीव बुरे कर्मों का बन्ध करके और बुरे कर्म करता है तो पहले बाँधे हुए बुरे कर्मों की शक्ति अधिक बढ़ जाती है । इसी प्रकार यदि पहले अच्छे कर्मों का बंध करके बुरे कर्म करता है तो शुभ कर्मों का फल घट जाता है। कर्मों का बन्धन हो जाने के तुरन्त बाद ही कोई कर्म अपना फल प्रदान नहीं करता । इसका कारण यह है कि बन्धने के बाद कर्म सत्ता में रहता है। दूसरे शब्दों में कर्मों के बन्ध होने और उनके फलोदय होने के बीच कर्म आत्मा में विद्यमान रहते हैं । जैन शास्त्रों में इस अवस्था को 'सत्ता' कहा गया है। कर्म के फल देने को उदय कहते हैं। यह दो तरह का होता है-फलोदय और प्रदेशोदय । जब कर्म अपना फल देकर नष्ट हो जाता है तो वह फलोदय होता है और जब कर्म बिना फल दिये ही नष्ट हो जाता है तो उसे प्रदेशोदय कहते हैं। नियत समय से पहले कर्मों का विपाक हो जाना उदीरणा कहलाता है।' जैसे अकाल मृत्यु आयुकर्म की उदीरणा है । एक कर्म का दूसरे सजातीय कर्मरूप हो जाने को संक्रमण कहते हैं तथा कर्म को उदय में आ सकने के अयोग्य कर देना उपशम है । कर्मों का संक्रमण और उदय न हो सकना निधत्ति है तथा उसमें उत्कर्षण, अपकर्षण, संक्रमण और उदीरणा का न हो सकना निकाचना है। जो कर्म आत्मा की जिस शक्ति को नष्ट करता है उसके क्षय से वही Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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