Book Title: Adhunik Bharatiya Bhashao Ka Vikas Aur Prakrit Tatha Apbhramsa
Author(s): Devendra Jain
Publisher: Z_Jain_Vidya_evam_Prakrit_014026_HR.pdf

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Page 3
________________ ३०३ आधुनिक भारतीय भाषाओं का विकास और प्राकृत तथा अपभ्रंश 'ढोल्ला सांवल धण चंपअ वण्णी णाइ सुवण्णरेह कसवइट्ट दिण्णी' प्रिय श्याम है, और ( उसकी गोद में बैठी हुई ) धन्या (प्रिया ) चंपे के रंग की है, मानो कसौटी पर दी गई स्वर्णरेखा हो। ३. दामाद-इसके मूल में जामाता है, उससे दो रूप बनते हैं( १ ) जामाता>जाआंई > जवांई [ जमाई ] दूसरी विकास प्रक्रिया है--जमाता>जामादा> दामादा>दामाद । 'ज' का 'द' से विनिमय पाणिनि के समय में ही होने लगा था। जाया और पति के द्वन्द्व समास में जंपति और दंपति दोनों रूप बनते हैं। यह प्रवृत्ति मध्ययुग के कवियों की रचनाओं में सुरक्षित है जैसे कागज का कागद प्रयोग । दामाद फारसी का शब्द नहीं है। कुछ विद्वान् ‘दाभन्' से दामाद का विकास मानते हैं, जो शाब्दिक खींचतान है। ५. बरात - वरयात्रा वरआत्त बरात्त >बरात । बरात का 'महत्त्व' भारतीय समाज में है। उसे फारसी शब्द मानना ठीक नहीं। बरात का मूल भारतीय आर्य भाषा का शब्द वरयात्रा है। फारसी वारात से इसका सम्बन्ध नहीं। ६. सहिदानी-यह शब्द अब हिंदी में प्रयुक्त नहीं है । तुलसीदास के मानस में इसका प्रयोग है। 'यह मुद्रिका मातु मैं आनी दीन्हि राम तुम्ह कह सहिदानो' ५।५।१३ टोकाओं और शब्दकोशों में 'सहिदानी' का अर्थ निशानी या पहचान मिलता है, जब कि यह मुद्रिका का विशेषण है। व्युत्पत्ति है -साभिजानिका>साहिजानिका साहिजानिआ> सहिजानी>सहिदानी । ऊपर कहा जा चुका है कि 'ज' का विनिमय 'द' से होता है । सहिजानी और सहिदानी दोनों रूप संभव हैं, अर्थ होगा--पहिचान वाली, न कि पहिचान । प्राकृत अपभ्रश स्तर पर अभिज्ञान के दो रूप संभव हैं अहिजाण और अहिण्णाण । ७. जनेत--मूल शब्द है यज्ञयात्रा। भारतीय-संस्कृति में विवाह एक यज्ञ है, अतः यज्ञयात्रा > जण्ण आत्ता>जण्णत्तजन्नेत्त जनेत । जण्ण आत्ता से पूर्व असावर्ण्यभाव के नियम से जण्णे आत्त > जण्णेत्त> जनेत रूप भी संभव है। मानस में उल्लेख है 'पहुंची आई जनेत' । स्वयंभू ने इसी अर्थ में 'जण्णत्त' का प्रयोग किया है। 'पा स म' में यज्ञयात्रा का जण्णत्त रूप मिलता है। कुछ विद्वानों ने संस्कृत जन से जनेत का विकास माना है, जो गलत है। परिसंवाद-४ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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