Book Title: Acharya Siddhasen Gani aur Tattvarthbhashya Vrutti
Author(s): Amra Jain
Publisher: Z_Rajendrasuri_Janma_Sardh_Shatabdi_Granth_012039.pdf

View full book text
Previous | Next

Page 6
________________ जैनेतर दर्शन का ज्ञान सिद्धसेनगणि भारतीय दर्शनों के अध्येता हैं / सिद्धसेनगणि ने सौत्रान्तिक, वैशेषिक, सांख्य आदि मतों के अनेक सिद्धान्तों का खण्डन-कार्य में उपयोग किया है / जैनेतर आचार्य शबर, कणाद, दत्ततभिक्षु, धर्मकीति, दिग्नाग, कपिल, आदि का नामोल्लेख तथा इनमें से किन्हीं आचार्यों के मतों को पूर्वपक्ष रूप में तत्वार्थभाष्यवृत्ति में कहा है। गणितज्ञ सिद्धसेनगणि गणित में भी निपुण हैं / तत्वार्थसूत्र 3-11 की भाष्यवृत्ति उनके गणित ज्ञान का सुन्दर उदाहरण हैं / त.सू. 3-9 की भाष्यवृत्ति में सिद्धसेनगणि ने तत्वार्थभाष्यकार के गणित-ज्ञान को भी नकारा हैं।66 आगमिक प्रवृत्ति सिद्धसेनगणि तत्वार्थभाष्यवृत्ति में दार्शनिक तथा तार्किक चर्चा करते हुए भी अन्त आगमिक परंपरा का ही पोषण करते हैं। उनकी तत्वार्थभाष्यवृत्ति भाष्यानुसारी है, भाष्यगत प्रत्येक शब्द की विवेचना तत्वार्थभाष्यवृत्ति में की गई है। तदपि तत्वार्थभाष्य का जो वाक्य आगम विरुद्ध जाता है अथवा उसका भाव आगम में नहीं मिलता है तो सिद्धसेनगणि स्पष्टतया कहते हैं कि अमुक कथन आगमविरोधी है अथवा आगम में उसकी लेशमात्र सूचना है, और अन्त में वह आगमिक परंपरा का ही समर्थन करते हैं / यथा, तत्वार्थसूत्र 3-3 के भाष्य में नारकियों के शरीर की ऊंचाई बताई गई है / सिद्धसेनगणि उसी प्रसंग में कहते हैं-"भाष्यकार द्वारा कही गई नारकियों के शरीर की अवगाहना मैंने किसी आगम में नहीं देखी है 168 तत्वार्थसूत्र 4-26 के भाष्य में तत्वार्थभाष्यकार ने लोकान्तिक देवों के आठ भेद कहे हैं / परन्तु सिद्धसेनगणि के अनुसार लोकान्तिक देव के नौ भेद हैं / क्योंकि आगम में भी नौ भेद ही कहे गए हैं / सिद्धसेनगणि की आगमिक प्रवृत्ति के परिचायक अनेकानेक स्थल तत्वार्थभाष्यवृत्ति में हैं / ___ संक्षेप में, सिद्धसेनगणि श्वेताम्बर आगम-परंपरा के समर्थक, भारतीय दर्शनों के ज्ञाता, द्वादशांगी के विशिष्ट अध्येता, गणितशास्त्र में निपुण तथा इतिहासज्ञ हैं / 67. उमास्वामी, तत्वार्थाधिगमभाष्य, बम्बई, सन् 1932, पृ. 145 68. सिद्धसेनगणि, तत्वार्थभाष्यवृत्ति, भाग प्रथम, पृ. 240 उक्तमतिदेशतो भाष्यकारेणास्ति चैतत् न तु मया क्वचिदागमे दृष्टं प्रतरादिभेदेन नारकाणाम् शरीरावगाहनमिति / 69. वही, पृ. ३०७-भाष्यकृता चाष्टाइति मुद्रिता / नन्वेवमेते नवभेदाः सन्ति-आगमे तुनवच्यैवाधीताइति। / 70. वही, पृ० 71, 138, 139, 153, 154, 184, 269, 266, 283 56. वही, भाग प्रथम, पृ. 354 57. वही, पृ. 376 58. वही, पृ. 88, भाग दो, पृ. 67, 100 59. सिद्धसेनगणि, तत्वार्थभाष्यवृत्ति, भाग प्रथम, पृ. 360 60. वही, पृ. 359, भाग दो, पृ. 100 61. वही, भाग प्रथम, पृ 357 62. वही, पृ. 388, 397 63. वही, पृ. 397 64. वही, पृ. 32 65. वही, पृ. 258-260 66. वही, पृ. २५२-एषा च परिहाणिराचार्योक्ता न मनागपि गणितप्रक्रिया सड्गच्छन्ते, गणितशास्त्रविदो हि परिहाणिभन्यथा वर्णयन्त्याषनिसारिणः / 'जो विद्वत्ता ईर्ष्या, कलह, उद्वेग उत्पन्न करने वाली है, वह विद्वत्ता नहीं, महान् अज्ञानता है; इसलिये जिस विद्वत्ता से आत्म कल्याण हो, उस विद्वत्ता को प्राप्त करने में सदा अप्रमत्त हना चाहिये। --राजेन्द्र सूरि वी. नि. सं. 2503 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 4 5 6