Book Title: Acharya Siddhasen Gani aur Tattvarthbhashya Vrutti
Author(s): Amra Jain
Publisher: Z_Rajendrasuri_Janma_Sardh_Shatabdi_Granth_012039.pdf

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Page 1
________________ आचार्य सिद्धसेनगणि और तत्त्वार्थभाष्यवृत्ति श्रीमती डॉ. अमरा जैन आचार्य सिद्धसेनगणि श्वेताम्बर जैन परंपरा के मुनि हैं । इनके जीवन के विषय में कोई विशेष जानकारी नहीं मिलती है। इन्होंने जैनधर्म के शिरोमणि ग्रन्थ "तत्वार्थसूत्र" पर "तत्वार्थभाष्यवृत्ति" लिखी है । इनका अन्य कोई ग्रन्थ उपलब्ध नहीं है । जीवन-परिचय तत्वार्थभाष्यवृत्ति में प्राप्य अन्य ग्रन्थों के अवतरण तथा जैन तथा जैनेतर विद्वानों के नामोल्लेख से ही सिद्धसेनगणि के जीवन के विषय में थोड़ी-बहुत जानकारी प्राप्त होती है। इसके अतिरिक्त तत्वार्थभाष्यवृत्ति के अंत में पाए जाने वाले नौ शलोकों से पता चलता है कि सिद्धसेनगणि भास्वामी के शिष्य थे । भास्वामी सिंहसूरि के शिष्य थे और सिंहसूरि दिन्नगणि क्षामाक्षमण के शिष्य थे ।। सिद्धसेनगणि आगम-परंपरावादी किसी गुरुवंश से संबन्धित थे, ऐसा उनके अथाह आगम-विश्वास से प्रतीत होता है । क्योंकि सिद्धसेन दिवाकर के अन्यतम तार्किक निष्कर्ष के स्थान पर भी सिद्धसेनगणि आगम-वाक्य को सर्वोपरि मानते हैं । तत्वार्थभाष्यवृत्ति के अंत में पाए जाने वाले नौ श्लोकों में से द्वितीय श्लोक में कहा गया है कि दिन्नगणि, जो सिद्धसेनगणि के तृतीय पूर्वज थे, ने अपने शिष्यों के लिए पुस्तक की सहायता के बिना प्रवचन किया । इससे भी प्रतीत होता है कि सिद्धसेनगणि आगम की उस प्राचीन शुरु-शिष्य परंपरा से संबन्ध रखते हैं, जिसमें शिष्य गुरु के चरणों में बैठ कर विद्यार्जन करता था। प्रज्ञाचक्षु पं. सुखलालजी ने सिद्धसेनगणि को ही गन्धहस्ती माना है । अतः पं. सुखलालजी के अनुसार सिद्धसेनगणि की दो रचनाएँ हैं एक, तत्वार्थसूत्र पर रचे तत्वार्थभाष्य की उपलब्ध बड़ी वृत्ति, दूसरी आचारांग विवरण, जो, अनुपलब्ध है । तत्वार्थभाष्यवृत्ति में उज्जयिनी तथा पाटलीपुत्र' नामक शहरों का उल्लेख है । संभव है, सिद्धसेनगणि ने इन स्थलों पर विहार किया हो अथवा यहां स्व ग्रंथ रचना की हो । सिद्धसेनगणि का समय __ सिद्धसेनगणि ने तत्वार्थभाष्यवृत्ति में "धर्मकीति" नामक विद्वान् का उल्लेख किया है ।' धर्मकीति का समय उन सभी विद्वानों, जिनका उल्लेख सिद्धसेनगणि की तत्वार्थभाष्यवृत्ति में है, में अर्वाचीन है। धर्मकीति का समय ईस्वी सातवीं शताब्दी है। अत: सिद्धसेनगणि का समय सातवीं शताब्दी के पश्चात् है।' पं० सुखलालजी के विचार में सिद्धसेनगणि विक्रम की सातवी शताब्दी के अंतिम पाद से विक्रम की आठवीं शताब्दी के मध्यकाल ३. पं० सुखलाल, तत्वार्थसूत्र (हिन्दी) बनारस, सन् १९५२, द्वितीय संस्करण, परिचय, पृ० ४० ४. वही, पृ० ४१ ५. सिद्धसेनगणि, तत्वार्थभाष्यवृत्ति, भाग प्रथम पृ० २१ - 'इतोऽष्टयोजन्यामुज्जयिनी वर्तते . . . ६ वही पृ० २७ · · · पाटलिपुत्रगामिभार्गवन्मोक्षमार्ग . . . . ७. वही पृ० ३९७.... भिक्षुवरधर्मकीर्तिनापि विरोधः उक्त..... ८. वही, भाग दो, प्रस्ता० (अंग्रेजी), पृ० ६४, वाचस्पति गैरेला, संस्कृत साहित्य का इतिहास, वाराणसी, सन् १९६० पृ० ४४२ ९. तुलनीय, सिद्धसेनगणि, तत्वार्थभाष्यवृत्ति, भाग दो, प्रस्ता० (अंग्रेजी) पृ० ६४ १. सिद्धसेनगणि, तत्वार्थभाष्यवृत्ति, संपादक हीरालाल रसिकदास कापडिया बम्बई, मन् १९३०, भाग दो, पृ० ३२७-२८ सिद्धसेनगणि, तत्वार्थभाष्यवृत्ति. संपादक' हीरालाल रसिकदास कापडिया बम्बई, सन् १९२९, भाग प्रथम पृ० १११ व १५२-१५३ । राजेन्द्र-ज्योति Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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