Book Title: Acharya Hastimalji ki Den Sadhna ke Kshetra me
Author(s): Chandmal Karnavat
Publisher: Z_Jinvani_Acharya_Hastimalji_Vyaktitva_evam_Krutitva_Visheshank_003843.pdf

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Page 8
________________ • १६० साधना का स्वरूप - आचार्यश्री के विचार से साधना की सामान्यत: तीन कोटियाँ हैं (i) समझ को सुधारना ( या सम्यग्दर्शन की प्राप्ति ) । साधक का प्रथम कर्तव्य है कि वह धर्म को अधर्म व सत्य को असत्य न माने । देव • देव, संत संत ( साधु - प्रसाधु) की पहचान भी साधक के लिए आवश्यक है । पाप नहीं छोड़ने की स्थिति में उसे बुरा मानना और छोड़ने की भावना रखना साधना की प्रथम श्रेणी है । (ii) देश विरति या अपूर्ण त्याग । इसमें पापों की मर्यादा बँध जाती है अथवा सम्पूर्ण त्याग की असमर्थता में यह प्रांशिक त्याग है तथा श्रावक जीवन है । (iii) सम्पूर्ण त्याग या साधु जीवन | आचार्यश्री ने साधना में प्रथम स्थान अहिंसा और द्वितीय स्थान सत्य को दिया । निश्चय ही आचार्यश्री का अभिप्रेत हिंसादि पाँचों आस्रवों के त्याग का रहा होगा । क्योंकि आचार्य प्रवर की सेवा में जब भी साधक शिविर आयोजित हुए, वे हमेशा साधकों को पाँच प्रास्रवों का और अठारह पापों का त्याग करवाकर दयाव्रत में रहते हुए ध्यानादि साधना की प्रेरणा देते थे । व्यक्तित्व एवं कृतित्व ध्यान, साधना स्वरूप की चचां अन्यत्र भी हुई है जहाँ प्रातः काल जीवन का निरीक्षण एवं संकल्प ग्रहण के साथ परीक्षण एवं प्रतिक्रमण के द्वारा संशोधन इस प्रकार अनुशासनपूर्वक दिनचर्या बाँधकर कार्य करना । मन को शान्त एवं स्वस्थ रखने हेतु आचार्य प्रवर ने ब्रह्ममुहूर्त में निद्रा त्याग, चित्त शुद्धि के लिए देवाधिदेव अरिहंतों के गुणों का भक्तिपूर्वक १२ बार वन्दन, त्रिकाल सामायिक और आत्म-निरीक्षण, हितमित और सात्विक आहार, द्रष्टा भाव का अभ्यास और सदा प्रसन्न रहने के अभ्यास को आवश्यक बताया । शरीर की चंचलता की कमी हेतु कायोत्सर्ग एवं ध्यान - कायोत्सर्ग में शिथिलीकरण, एक श्वास में जितने नवकार मंत्र जप सकें, जपें तथा मन की साधनार्थ अनित्यादि भावनाओं का चिंतन | १. जिनवाणी, जनवरी १९६१, पृ. ३-४ २. आध्यात्मिक आलोक, पृ. ५५ साधक संघ के सदस्यों को घर पर नियमित साधना करने हेतु जिस समग्र एवं समन्वित साधना का आचार्यश्री ने निर्देश दिया वह इस प्रकार है- (i) प्रातः उठकर अरिहंत को १२ वंदन, चार लोगस्स का ध्यान, चौदह नियम एवं तीन मनोरथ का चिंतन (ii) १५ मिनिट का ध्यान (iii) कषाय विजय का अभ्यास (iv) प्रतिदिन एक घण्टा मौन (v) प्रतिदिन एक विगय का त्याग (vi) ब्रह्मचर्य का पालन ( अपनी-अपनी मर्यादानुसार) (vii) प्रतिमाह उपवास, दयावत और पौषध ( अलग-अलग साधकों की श्रेणी अनुसार ) (viii) प्रतिदिन आधा घण्टा स्वाध्याय (ix) समाज सेवा के लिए महीने में २ दिन या अधिक ( साधक श्रेणी के अनुसार ) । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org

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