Book Title: Acharya Hastimalji ki Den Sadhna ke Kshetra me Author(s): Chandmal Karnavat Publisher: Z_Jinvani_Acharya_Hastimalji_Vyaktitva_evam_Krutitva_Visheshank_003843.pdf View full book textPage 7
________________ श्राचार्य श्री हस्तीमलजी म. सा. रहा, निष्कर्ष सामने आया उसे स्वीकार कर ध्यान करने की स्वतन्त्रता भी साधकों को प्राप्त हुई । जीवन व्यवहार श्रौर साधना - साधना का अभ्यास केवल शिविरकाल में ही न होकर व्यापक रूपेण जीवन-व्यवहार में भी हो, इसकी प्रेरणा प्राचार्य प्रवर प्रदान किया करते । दैनिक जीवन को निर्दोष बनाने की दृष्टि से ऐसे अनेक नियम आचार्य प्रवर दिलाया करते थे । प्राचार्य प्रवर द्वारा साधकों को दिलाये गये दो नियम प्रमाणभूत हैं - एक नियम था 'किसी की निन्दा नहीं करना । यदि किसी के लिए कुछ कहना ही है तो उसे स्वयं ही कहना या संस्था की बात हो तो संस्था के उत्तरदायी पदाधिकारी को ही कहना' का जीवन में कितना महत्त्व है । यह अनुभव करके ही देखा जा सकता है । फिर ज्ञात होगा कि उक्त नियम से बहुत बड़े अनर्थ से बचा जा सकता है। इसी प्रकार 'विश्वासघात नहीं करना' का नियम भी जीवन में कितना आवश्यक है । इसी प्रकार 'धर्मस्थान में जाकर सामायिक करना, विवाह में ठहराव न करना, कुव्यसनों का त्याग' जैसे नियम उनकी सामाजिक उत्थान की उदार भावना के परिचायक हैं। साधना की आवश्यकता - स्वाध्याय प्रवृत्ति के पर्याय बने प्राचार्यश्री स्वाध्याय रूप श्रुतधर्म के साथ चारित्रधर्म के भी प्रबल पक्षधर रहे। उन्होंने क्रिया के बिना ज्ञान की पूर्ण सार्थकता नहीं मानी । गगन विहारी पक्षी का उदाहरण देकर उन्होंने बताया कि दो पंख उसके लिए आवश्यक हैं । एक भी पंख कटने पर पक्षी नहीं उड़ सकता, फिर मनुष्य को तो अनन्त ऊर्ध्व आकाश को पार करना है, जिसके लिए श्रुत एवं चारित्रधर्म दोनों की साधना आवश्यक है ।' अपने प्रवचनों में अन्यत्र भी साधना की आवश्यकता बताते हुए उन्होंने कहा था- 'तन की रक्षा और पोषण के लिए लोग क्या नहीं करते, परन्तु आत्मपोषण की ओर कोई विरला ही ध्यान देता है । पर याद रखना चाहिए कि तन यदि एक गाड़ी है तो श्रात्मा उसका चालक है। गाड़ी में पेट्रोल देकर चालक को भूखा रखने वाला धोखा खाता है । सारगर्भित शब्दों में 'जीवन को उन्नत बनाने एवं उसमें रही हुई ज्ञान-क्रिया की ज्योति जगाने के लिए आवश्यकता है साधना की । उनके प्रात्मिक अध्ययन एवं साधनामय जीवन के अनुभवों से निरत साधना की आवश्यकता को उक्त मार्मिक प्रतिपादन प्रत्येक साधक को साधनामय जीवन जीने की महती प्रेरणा देता है । १. जिनवाणी, फरवरी १६६१, पृ. ७ २. जिनवाणी, नवम्बर १६६०, पृ. ६ ३. प्राध्यात्मिक आलोक, पृ. ५ • १८६ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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