Book Title: Acharya Hastimalji ke Sahitya me Sadhna ka Swarup
Author(s): Keshrikishor Nalvaya
Publisher: Z_Jinvani_Acharya_Hastimalji_Vyaktitva_evam_Krutitva_Visheshank_003843.pdf

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________________ प्राचार्य श्री के साहित्य में साधना का स्वरूप श्री केशरीकिशोर नलवाया स्व. आचार्य श्री हस्तीमलजी म. सा. के सत्साहित्य में और 'प्रार्थना प्रवचन' में आत्म-साधना के विषय में यत्र-तत्र बहुमूल्य विचार-बिन्दु बिखरे पड़े हैं जो पठनीय तो हैं ही आचरणीय भी हैं । आचार्य श्री ने 'प्रार्थना प्रवचन' पृष्ठ १०२ पर निम्न विचार व्यक्त किये हैं- "आत्मा का सजातीय द्रव्य परमात्मा है । अतएव जब विचारशील मानव संसार के सुरम्य पदार्थों में और सुन्दर एवं मूल्यवान वैभव में शांति खोजतेखोजते निराश हो जाता है, तब उनसे विमुख होकर नितरते-नितरते पानी की तरह परमात्म स्वभाव में लीन होता है। वहीं उसे शांति और विश्रान्ति मिलती है ।" अनन्त काल के जिस क्षण में जड़-चेतन का संयोग हुआ होगा तब से अब तक यह आत्मा जन्म-मरण करते-करते थक गया है, श्रांत हो गया है. विश्रांति चाहता है । इसी बात को प्राचार्य श्री निम्न शब्दों प्रकट करते हुए फरमाते हैं कि "जो आत्मा अनन्त काल से अपने स्वरूप को न समझने के कारण जड़भाव में बह रहा है, उसमें जो मुकुलिता आ गई है। उसे जब परमात्मा के ध्यान से, चिन्तन से अपने वीतराग स्वरूप का ख्याल आता है तब उसकी सारी मुकुलित दशा समाप्त हो जाती है ।" आत्मा अपूर्ण और परमात्मा पूर्ण है । जहाँ अपूर्णता है वहाँ प्यास है, ख्वाइश है, प्रार्थना है, पूर्णको जहाँ पूर्णता दिखती है, वहीं वह जाता है ।" साधना के मार्ग में जो रुकावटें आती हैं उनके निराकरण के बारे में प्राचार्य श्री कहते हैं कि Jain Educationa International "दर्पण साफ है लेकिन एक पतला सा भी कपड़ा प्राड़ा आ जाय तो उसमें वह चमक पैदा नहीं हो सकेगी। कपड़ा भी हटा दिया जाय और दर्पण उलटा रख दिया जाय तब भी उसमें चमक नहीं आयेगी । दर्पण सीधा है, फिर यदि वह स्थिर नहीं है और चलायमान है तो क्या बराबर किरणों को For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org

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