Book Title: Acharya Hastimalji Vachan aur Pravachan Author(s): Mahendrasagar Prachandiya Publisher: Z_Jinvani_Acharya_Hastimalji_Vyaktitva_evam_Krutitva_Visheshank_003843.pdf View full book textPage 2
________________ · १२८ सन्त प्रायः मूर्च्छा-मुक्त रहता है । यम, नियम पूर्वक उठाये गये चरण वस्तुत: सदाचरण का प्रवर्तन करते हैं । उनकी जीवन-चर्या यम, नियमों, आचार संहिता की प्रयोगशाला होती है । ज्ञानपूर्वक जो 'वचन' प्रयोग शाला में आकर परिमार्जित होता है, उसकी अभिव्यक्ति वस्तुतः 'प्रवचन' का रूप धारण करती है । 'वचन' जब 'प्रवचन बन जाते हैं तब बौद्धिक प्रदूषरण समाप्त हो जाता है । • व्यक्तित्व एवं कृतित्व आचार्य श्री हस्तीमलजी म० सा० जैन संतों में एक जागरूक, क्रांतिकारी सन्त के रूप में समाहत रहे हैं । वे सदा लीक से हटकर चले और उन्होंने सदा भोगे हुए यथार्थ को आडम्बर विहीन अर्थात् आर्जवी चर्या में चरितार्थ किया । चरित्रवान पूज्यात्मानों की वाणी विमल और विशिष्ट हुआ करती है । वाणी चरित्र की प्रतिध्वनि हुआ करती है । प्राचार्य श्री की वाणी सदा संयत और सार्थ हुआ करती थी । असंयत आलाप शस्त्र की वाणी को जन्म देता है जबकि संयत और सधे हुए वचन - प्रवचन शास्त्र की वाणी कहलाते हैं । आचार्य श्री हस्तीमलजी महाराज की वाणी शास्त्र की वाणी है । उसमें प्राणी मात्र के कल्याण की भावना और कामना विद्यमान है । प्रवचन शाला में उनकी वाणी को जिन्होंने सुना, वे धन्य हो गये और जिन्होंने उसको जीवन में उतारा वे वस्तुत: अनन्य हो गये । उनके समग्र प्रवचन को जितने प्रमाण और परिमाण में संकलन किया, वह सारा का सारा शास्त्र बन गया । उसी के आधार पर उनकी प्रवचन- पटुता का संक्षेप में अनुशीलन करना यहाँ हमारा मूल अभिप्रेत है । 'गजेन्द्र व्याख्यान माला' भाग ३ में आचार्य श्री द्वारा पर्युषण काल में दिये गये सात प्रवचनों का संकलन है । दर्शन से लेकर दान पर्यन्त आपने जिस बारीकी के साथ धार्मिक लक्षणों पर विवेचन किया है, वस्तुतः वह अन्यत्र दुर्लभ ही है । प्रस्तुत प्रवचनों में प्रत्येक साधक को प्रारम्भिक साधना से लेकर चरम लक्ष्य प्राप्त कराने वाली साधना तक का मार्गदर्शन मिलेगा । इसके साथ ही उसमें आदर्श गृहस्थ बनने, आदर्श समाज का निर्माण करने और धर्म की आधारशिला को सुदृढ़ एवं सुदीर्घ काल तक स्थायी बनाने के उपायों पर भी विशद प्रकाश डाला गया है | 'बोध करो, बंधन को तोड़ो' नामक प्रसंग में आचार्य श्री फरमाते हैं"बोध करो कि भगवान महावीर ने बंधन किसे कहा है और किन-किन बातों को जानकर उस बंधन को तोड़ा जाता है । बंधन और बंधन को तोड़ने का ज्ञान प्राप्त कर बंधन को तोड़ो। सचित्त अथवा प्रचित्त वस्तु को पकड़ कर जो कोई थोड़े से भी परिग्रह को लेता है, उस पर मूर्च्छा ममता करता है अथवा उस पर Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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