Book Title: AcharyaKund kund ka Maulik Chintan
Author(s): Rushabhchand Jain
Publisher: Z_Vijyanandsuri_Swargarohan_Shatabdi_Granth_012023.pdf

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Page 3
________________ तत्व - यतीन्द्रसूरि स्मारकग्रन्थ - जैन दर्शन - पंचास्तिकाय और षडद्रव्य लोकव्यवस्था के आधार हैं। भी इनका स्वरूप कहा गया है। इनमें से बहिरात्मा को हेय और विविध गुणों और पर्यायों सहित जिनमें अस्ति स्वभाव है, वे अंतरात्मा एवं परमात्मा को उपादेय बताया गया है। उत्तरवर्ती अस्तिकाय कहलाते हैं। वे ही अस्तिकाय त्रैकालिक भावरूप कुमार कार्तिकेय पूज्यपाद, योगीन्दु प्रभृत्ति अनेक आचार्यों ने में परिणमित होते हैं तथा नित्य हैं और परिवर्तन लिंग से युक्त कुन्दकुन्द का अनुकरण किया है। काल सहित द्रव्यभाव को प्राप्त होते हैं। इन्हीं से त्रैलोक्य निष्पन्न है। नियमसार में तत्त्वार्थ के रूप में द्रव्यों का व्याख्यान स्वभाव-विभाव पर्याय -- इस तथ्य की ओर संकेत है कि प्राचीन परंपरा में पंचास्तिकाय द्रव्यों का परिणमन पर्याय रूप में होता है। आचार्य कुन्दकुन्द और षड्द्रव्य को तत्त्वार्थ कहा जाता है। इसलिए नियमसार में ने सर्वप्रथम पर्याय के स्वभाव और विभावरूप परिणमन का इन्हीं का श्रद्धान सम्यक्त्व कहा गया है। पंचास्तिकाय संग्रह से कथन किया है, जिसे पश्चात्कालीन अधिकांश दार्शनिकों ने भी इस तथ्य का समर्थन होता है। अपनाया है। कुन्दकुन्द कहते हैं कि कर्मजन्य उपाधियों से रहित जीव की जो निरपेक्ष शुद्ध पर्याय है, वह स्वभाव पर्याय है और तत्त्व या पदार्थ बंध-मोक्ष के आधार हैं। आचार्य कुन्दकुन्द कर्मफल के कारण जीव की जो नर, नारक, तिर्यंच और देव के समय तक इन तत्त्वों, पदार्थों की मान्यता विकसित हो चुकी रूप पर्याय होती है, वह विभाव पर्याय है।३। अन्य निरपेक्ष थी। इसलिए उन्होंने समयसार में विस्तृत रूप से तत्त्वों या पदार्थों परमाणु पुद्गल की स्वभाव पर्याय है और पुद्गल का स्कन्ध का व्याख्यान किया। पंचास्तिकाय संग्रह के उत्तरार्द्ध में भी नौ । रूप परिणमन विभाव पर्याय है। जीव और पुद्गल को छोड़कर पदार्थों का कथन किया है। इससे यह सिद्ध है कि कुन्दकुन्द ने अपने ग्रन्थों में प्राचीन और समकालीन दोनों ही परंपराओं को शेष धर्मादि चार द्रव्यों की केवल स्वभाव पर्याय होती है, क्योंकि अपनाया है। उनका विभाव परिणमन नहीं होता है। पुदगल परमाणु आत्मत्रय पुद्गल द्रव्य के प्रसंग में कुंदकुंद ने परमाणु का स्वरूप आचार्य कुन्दकुन्द ने आत्मस्वरूप को व्यक्त करते हुए इस प्रकार कहा है-- आत्मा के परमात्मा, अंतरात्मा और बहिरात्मा ये तीन भेद किए हैं। नियमसार में सम्यग्दर्शन के प्रसंग में कहा गया है कि क्षुधा, अत्तादि अत्तमझं अत्तंतं व इंदिए गेज्झं। तृषा आदि समस्त दोषों से रहित और केवल ज्ञान, केवल दर्शन, अविभागी जं दव्वं परमाणु तं विआणाहि।। केवल वीर्य और केवल सुखरूप अनन्त चतुष्टय से युक्त आत्मा __नियमसार-२६ ही परमात्मा कहलाता है, इससे विपरीत परमात्मा नहीं हो सकता। अर्थात् स्वयं परमाणु ही जिसका आदि, मध्य और अंत अरिहंत और सिद्ध परमेष्ठी परमात्मा कहलाते हैं। चार घातिया है, जो इंद्रियों द्वारा ग्राह्य नहीं है तथा जो अविभागी द्रव्य है। उसे कर्मों से रहित, केवल ज्ञानादि विशेष गुणों और चौतीस अतिशयों परमाणु जानो। से युक्त, अरिहंत होते हैं तथा चार घातिया और चार अघातिया उन्होंने परमाणु के दो भेद किए हैं--१. कारण परमाणु ऐसे आठ कर्मों का नाश करने के कारण आठ महागुणों से युक्त और २. कार्य परमाण१६। जो पृथ्वी, जल, तेज और वायु इन परम, नित्य, लोकाग्र अर्थात् सिद्धशिला पर स्थित रहने वाले, चारों धातुओं का कारण है, वह कारण परमाणु है। इन धातुओं सिद्धपरमात्मा हैं। का निर्माण अनेक परमाणुओं के मेल से होता है, इसलिए ये जो श्रमण आवश्यकों से युक्त, अंतः और बाह्य जल्पों से स्कन्धरूप हैं। इन स्कन्धों के निर्माण में जो परमाणु कारण होता रहित, धर्मध्यान और शुक्ल ध्यान में संलग्न होता है, वह अंतरात्मा है, उसे कारण परमाणु कहा गया है। स्निग्ध और रूक्ष गुणों के कहा गया है। आवश्यकों से हीन, अंततः और बाह्य जल्पों में कारण परमाणुओं का बन्ध होता है, उनके इस गुण का हास होने प्रवृत्त तथा ध्यान से रहित श्रमण, बहिरात्मा है१२। मोक्खपाहुड में के कारण स्कन्धों में विघटन होता है। इस विघटन क्रिया से माना Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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