Book Title: Acharangsutra Ek Vishleshan
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Z_Shwetambar_Sthanakvasi_Jain_Sabha_Hirak_Jayanti_Granth_012052.pdf

View full book text
Previous | Next

Page 4
________________ ६४ जैन विद्या के नहीं रहता है। राग के गिर जाने पर वीतरागता का प्रकटन होता है, और मुक्ति का द्वार खुल जाता है। मन के पवित्रीकरण की मनोवैज्ञानिक विधि चित्त को अपवित्र नहीं होने देने के लिये मन की वृत्तियों को देखना जरूरी है, क्योंकि यह मन को दुष्प्रवृत्तियों से बचाने की एक मनोवैज्ञानिक पद्धति है आधुनिक मनोविज्ञान के अनुसार मन एक ही समय में द्रष्टा और कर्ता की दो भूमिकाओं का निर्वाह नहीं कर सकता है। उदाहरण के लिए वह अपने क्रोध का कर्ता एवं द्रष्टा एक साथ नहीं हो सकता। मन जब कर्ता से द्रष्टा की भूमिका में आता है तो मनोविकार स्वयं विलीन होने लगते हैं मन तो स्वतः ही वासना और विकार से मुक्त हो जाता है। इसलिये कहा गया है - अप्पमत्तो कामेहिं उवरतो - ११२।१। सव्वतो पमत्तस्स भयं— अप्पमत्तस्स नत्थि भयं - १।३।४। जो अप्रमत्त है वह कामनाओं से और पाप कर्मों से उपरत है, प्रमत्त को ही विषय विकार में फँसने का भय है अप्रमत को नहीं । अप्रमत्तता या सम्यग्द्रष्टा की अवस्था में पाप कर्म असम्भव हो जाता है, इसीलिये कहा गया है— सम्मत्तदंसी न करेइ पावं१।३।२ अर्थात् सम्यग्द्रष्टा कोई पाप नहीं करता है आचारांग में मन को जानने अथवा अप्रमत्त चेतना की जो बात बार-बार कही गई है, वह मन को वासनामुक्त करने का या मन के पवित्रीकरण का एक ऐसा उपाय है जिसकी प्रामाणिकता आधुनिक मनोविज्ञान के प्रयोगों से सिद्ध हो चुकी है। जब साधक अप्रमत्त चेतना से युक्त होकर द्रष्टाभाव में स्थित होता है तब सारी वासनायें और सारे आवेग स्वतः शिथिल हो जाते हैं। इसी प्रकार अन्यत्र यह कहकर कि "आयंकदंसी न करेइ पार्व - १०३।२।” पुनः एक मनोवैज्ञानिक सत्य को उजागर किया गया है। जो अपनी पीड़ा या वेदना को देख लेता है उसके लिये पाप कर्म में फँसना एक मनोवैज्ञानिक असम्भावना बन जाती है। जब व्यक्ति पापकर्म या हिंसा जनित पीड़ा का स्वयं आत्मनिष्ठ रूप में अनुभव करता है, हिंसा करना उसके लिये असम्भव हो जाता है। इस प्रकार हम देखते हैं कि सूत्रकार पाप से विरत होने के लिए मनोवैज्ञानिक सत्वों पर अधिष्ठित पद्धति प्रस्तुत करता है। - धर्म की मनोवैज्ञानिक व्याख्या आचारांग में अहिंसा, समाधि और प्रज्ञा को मोक्षमार्ग कहा गया है। इसमें अहिंसा को पूर्ण स्थान दिया गया है। यहाँ साधना का क्रम अन्दर से बाहर की ओर न होकर बाहर से अन्दर की ओर है, जो अधिक मनोवैज्ञानिक है। अहिंसा की साधना के द्वारा जब तक परिवेश एवं चित्तवृत्ति निराकुल नहीं बनेगी, समाधि नहीं होगी और जब तक समाधि नहीं आएगी प्रज्ञा का उदय नहीं होगा। इस सन्दर्भ में आचारांग के दृष्टिकोण में और परवर्ती जैन दर्शन के दृष्टिकोण में स्पष्ट अन्तर है। वह आचार-शुद्धि से विचार-शुद्धि की ओर बढ़ता है। आचारांग में धर्म क्या है? इसके दो निर्देश हमें उपलब्ध होते हैं। प्रथम श्रुतस्कन्ध के चतुर्थ अध्ययन के प्रथम उद्देशक के प्रारम्भ Jain Education International आयाम खण्ड ६ में अहिंसा को शाश्वत, में अहिंसा को शाश्वत, नित्य और शुद्ध धर्म कहा गया है, (सव्वे भूया, सव्वे जीवा सव्वे सत्ता न हंतव्वा---एस धम्मे सुद्धे, निइए, सासए समिच्च लोये खेयण्णेहिं पवेइए - १।४।१) और प्रथम श्रुतस्कन्ध के आठवें अध्याय के तीसरे उद्देशक में समता को धर्म कहा गया है. समिया धम्मे आरियेहिं पवेइए (१।८।३) वस्तुतः धर्म की ये दो व्याख्याएँ दो दृष्टिकोणों का प्रतिनिधित्व करती हैं। अहिंसा व्यावहारिक समाज सापेक्ष धर्म है, जबकि वैयक्तिक एवं आन्तरिक दृष्टि से समभाव ही धर्म है। सैद्धांतिक दृष्टि से अहिंसा और समभाव में अभेद है. किन्तु व्यावहारिक दृष्टि से वे अलग हैं। समभाव की बाह्य अभिव्यक्ति अहिंसा बन जाती है और यही अहिंसा जब स्वकेन्द्रित (स्वदया) होती है तो समभाव बन जाती है। समत्व या समता धर्म क्यों? यह प्रश्न स्वाभाविक रूप से उत्पन्न होता है कि समता को धर्म क्यों माना जावे? जैन परम्परा के परवर्ती ग्रन्थों में धर्म की व्याख्या 'वत्यु-सहावो धम्मो' के रूप में की गई है, अतः समता को तभी धर्म माना जा सकता है जबकि वह प्राणीय स्वभाव सिद्ध हो जावे, जरा इस प्रश्न पर मनोवैज्ञानिक दृष्टि से विचार करें। जैन दर्शन में मानव प्रकृति एवं प्राणीय प्रकृति का गहन विश्लेषण किया गया है। महावीर से जब यह पूछा गया कि आत्मा क्या है ? आत्मा का साध्य या आदर्श क्या है? तब महावीर ने इस प्रश्न का जो उत्तर दिया था वह आज भी मनोवैज्ञानिक दृष्टि से सत्य है। महावीर ने कहा था- आत्मा समत्व रूप है और समत्व ही आत्मा का साध्य है ( आयाए सामाइए आया सामाइस्स अट्ठे- भगवतीसूत्र ) । वस्तुतः जहाँ भी जीवन है, चेतना है, वहाँ समत्व के संस्थापन के अनवरत प्रयास चल रहे हैं। परिवेशजन्य विषमताओं को दूर कर समत्व के लिये प्रयासशील बने, यह जीवन या चेतना का मूल स्वभाव है। शारीरिक एवं मानसिक स्तर पर समत्व का संस्थापन ही जीवन का लक्षण है। डा० राधाकृष्णन् के शब्दों में 'जीवन गतिशील सन्तुलन है' (जीवन की आध्यात्मिक दृष्टि, पृ० २५९) । स्पेन्सर के अनुसार परिवेश में निहित तथ्य जीवन के संतुलन को भंग करते रहते हैं और जीवन अपनी क्रियाशीलता के द्वारा पुनः इस संतुलन को बनाने का प्रयास करता है। यह संतुलन बनाने का प्रयास ही जीवन की प्रक्रिया है (फस्ट प्रिंसिपल्स - स्पेन्सर, पृ०६६) । विकासवादियों ने इसे ही अस्तित्व के लिये संघर्ष कहा है, किन्तु मेरी अपनी दृष्टि में इसे अस्तित्व के लिये संघर्ष कहने की अपेक्षा समत्व के संस्थापन का प्रयास कहना ही अधिक उचित है। समत्व के संस्थापन एवं समायोजन की प्रक्रिया ही जीवन का महत्त्वपूर्ण लक्षण है। इस प्रकार जैन दर्शन में समभाव या वीतराग दशा को ही नैतिक जीवन का आदर्श माना गया है। यह बात मनोवैज्ञानिक दृष्टि से भी सही उतरती है। संघर्ष नहीं, अपितु समत्व ही जीवन का आदर्श हो सकता है, क्योंकि यही हमारा स्वभाव है और जो स्व स्वभाव है वही आदर्श है। स्वभाव से भिन्न आदर्श की कल्पना अयथार्थ है । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.

Loading...

Page Navigation
1 2 3 4 5 6 7 8 9 10 11 12 13 14 15 16 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41