Book Title: Acharang Sutra
Author(s): Surendra Bothra
Publisher: Surendra Bothra

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Page 3
________________ पाँचवां अध्ययन (लोकसार) यह बताता है कि लोक का सार धर्म है, धर्म का सार ज्ञान है, ज्ञान का सार संयम और संयम का सार मोक्ष है। इस अध्ययन में छ उद्देशक हैं। छठे अध्ययन (धूत) में राग-द्वेष आदि मानसिक विकार या अशुद्धि को दूर कर आत्म-शुद्धि करने का स्पष्ट निर्देश है। इस अध्ययन में पाँच उद्देशक हैं। सातवां अध्ययन महापरिज्ञा है। वर्तमान में यह अध्ययन अनुपलब्ध है। आठवें अध्ययन (विमोक्ष) में आठ उद्देशक हैं। इनमें विशेषतः श्रमण के दैनंदिन आचार और शुद्ध समाधि की ओर प्रेरित त्यागमय जीवन का वर्णन हुआ है। नवें अध्ययन (उपधानश्रुत) में भगवान महावीर के साधना काल का सबसे मार्मिक, प्रेरणास्पद, प्राचीन और प्रामाणिक वर्णन है। द्वितीय श्रुतस्कंध (परिशिष्टात्मक) में श्रमण आचार के नियमों का पर्याप्त स्पष्टता एवं विस्तार के साथ विवेचन हुआ है तथा तप-ध्यान और समभाव की साधना एवं मानसिक शुद्धि के उपाय बताए गए हैं। द्वितीय श्रुत-स्कंध में तीन चूलिकाएं हैं, जो 16 अध्ययनों में विभाजित हैं। द्वितीय श्रुत-स्कंध में श्रमण के लिए निर्देशित व्रतों व तत्संबद्ध भावनाओं का स्वरूप भिक्षु-चर्या, आहार-पान-शुद्धि, शय्या-संस्तरण-ग्रहण, विहार-चर्या, चातुर्मास्य-प्रवास, भाषा, वस्त्र, पात्र, आदि उपकरण, मल-मूल-विसर्जन आदि के संबंध में नियम-उपनियम आदि का विवेचन किया गया है। आचारांग श्वेतांबर मान्यता के अनुसार भगवान महावीर के उपदेश के गणधरों द्वारा संकलित बारह अंग-शास्त्रों (श्रुत अथवा गणिपिटक) का प्रथम अंग है। इसका प्रथम श्रुत-स्कंध अशोककालीन प्राकृत अभिलेखों से भी प्राचीन है। आचारांग की सूत्रात्मक शैली उसे उपनिषदों का निकटवर्ती और स्वयं भगवान महावीर की वाणी होने की ओर इंगित करती है। भाव, भाषा और शैली तीनों के आधार पर यह सम्पूर्ण पालि और प्राकृत साहित्य में प्राचीनतम है। जर्मनी के प्रसिद्ध भारतीय विद्या-वत्ता डॉ० हेरमान याकोबी ने भी इसका काल निर्धारण करते हुए, छंद आदि की दृष्टि से अध्ययन करके, यह निश्चय किया था कि आचारांग के प्राचीन अंश ई०पू० चौथी शताब्दी के अंत से लेकर ई०पू० तीसरी शताब्दी के प्रारंभ से प्राचीन नहीं लगते। उसके द्वितीय श्रुत-स्कंध के रूप में जो आचारचूला जोड़ी गई है, वह ई०पू० दूसरी या प्रथम शती से परवर्ती नहीं है। आचारांग वास्तव में द्वादशांगात्मक वाङ्मय में सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण और संपूर्ण जैन आचार का प्रतिनिधि ग्रंथ है। आचारांग पर आचार्य भद्रबाहु द्वारा नियुक्ति, श्री जिनदासगणि द्वारा चूर्णि, श्री शीलांकाचार्य द्वारा टीका तथा श्री जिनहंस द्वारा दीपिका की रचना की गई। जैन वाङमय के प्रख्यात अध्येता डॉ० हेरमान याकोबी ने इसका अंग्रेजी में अनुवाद किया तथा इसकी गवेषणापूर्ण प्रस्तावना लिखी। आचारांग के प्रथम श्रुत-स्कंध का प्रसिद्ध जर्मन विद्वान् प्रो० वाल्टर शूबिंग ने संपादन किया तथा सन् 1910 ई० में लिप्ज़िग से इसका प्रकाशन किया। आधुनिक विद्वानों ने भी इस शास्त्र पर विभिन्न भाषाओं में प्रचुर कार्य किया है और कर रहे हैं।

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