Book Title: Acharang Sutra Author(s): Surendra Bothra Publisher: Surendra Bothra View full book textPage 1
________________ आचाराग सत्र - सुरेंद्र बाथरा आचारांग सूत्र वह ग्रंथ है, जिसमें अहँत महावीर द्वारा प्रतिपादित अहिंसा की तर्कसंगत परिभाषा की आधारभूत अवधारणा का स्पष्ट और प्राचीनतम रूप ही नहीं, उसकी व्यापकता और सार्वभौमिकता स्थापित करने के सशक्त सूत्र उपलब्ध हैं। अहिंसा की आधारशिला रखते हुए उन्होंन कहा --सर्वप्रथम मनीषियों को अपने-अपने सिद्धांतों में स्थापित करवाकर मैं पूछता हूँ-हे मनीषियों! आपको दुःख प्रिय है या अप्रिय?(4/2/25) यदि आप कहें, हमें दुःख प्रिय नहीं है, तो आपका सिद्धांत सम्यग् है। मैं आपसे कहना चाहता हूं कि जैसे आपको दुख प्रिय नहीं है, वैसे ही सब प्राणी, भूत, जीव और सत्त्वों के लिए दुख अप्रिय, अशांतिजनक और महाभयंकर है। (4/2/26) मैं कहता हूँ जो अर्हत् अतीत में हुए हैं, वर्तमान में हैं और भविष्य में होंगे वे सब ऐसा आख्यान करते हैं, ऐसा भाषण करते हैं, ऐसा प्रज्ञापन करते हैं और ऐसा प्ररूपण करते हैं --किसी भी प्राणी, भूत, जीव और सत्त्व का हनन नहीं करना चाहिए, उन पर शासन नहीं करना चाहिए, उन्हें दास नहीं बनाना चाहिए, उन्हें परिताप नहीं देना चाहिए, उनका प्राण-विनियोजन नहीं करना चाहिए। (4/1/1) यह अहिंसा धर्म शुद्ध, नित्य और शाश्वत है। आत्मज्ञ अर्हतों ने लोक को जानकर इसका प्रतिपादन किया। (4/1/2) जिसे तू हनन योग्य मानता है, वह तू ही है। जिसे तू आज्ञा में रखने योग्य मानता है, वह तू ही है। जिसे तू परिताप देने योग्य मानता है, वह तू ही है। जिसे तू दास बनाने योग्य मानता है, वह तू ही है। जिसे तू मारने योग्य मानता है, वह तू ही है। (5/5/101) आचारांग में श्रमण के आदर्श आचार का निरूपण किया गया है, जो जनसामान्य के आचरण का भी आधार है। महावीर ने सम्यक आचार का प्रतिपादन कर प्रकृति एवं समाज में अहिंसा पर आधारित जीवन-शैली का सर्वांगीण विवरण प्रस्तुत किया है। आचारांग दो श्रुत-स्कंधों में विभक्त है। प्रत्येक श्रुत-स्कंध का अध्ययनों तथा प्रत्येक अध्ययन का उद्देशों या चूलिकाओं में विभाजन है। प्रथम श्रुत-स्कंध में नौ अध्ययन एवं चौंवालीस उद्देश हैं। मूलत, यह गद्य रचना है, जिसमें कहीं-कहीं पद्यांशों का प्रयोग हुआ है। आचारांग के प्रथम श्रुत-स्कंध में समता, अहिंसा और संयम की साधना का विवेचन है। यह साधना आत्मा (ब्रह्म) की ओर प्रेरित होने से इसका अपरनाम ब्रह्मचर्य भी है। प्रथम अध्ययन (शस्त्र-परिज्ञा)-- हिंसा के बाह्य और आंतरिक साधनों के स्वरूप का सम्यक् बोध ही इसका विषय है। इस अध्ययन में सात उद्देशक हैं। प्रथम व द्वितीय उद्देशकों में आत्म-अस्तित्व की जिज्ञासा और इस जटिल संसार में निरापद रूप से जीते हुए उचित दिशा में बढ़ने संबंधी उहापोह है। अस्तित्व के साथ ही क्रिया की, और बंधन से अछूते रहने के लिएPage Navigation
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