Book Title: Abhishapta Nalanda Author(s): Ganesh Lalwani Publisher: Z_Jain_Vidyalay_Hirak_Jayanti_Granth_012029.pdf View full book textPage 5
________________ यह सुनकर उत्पल खड़ा न रह सका, न ही विहार के ऐश्वर्य की रक्षा करने को उद्यत हुआ, न ही वेनु एवं उसके साथी को नैतिक पतन से बचाने की सोच सका। पर यह स्मरण अवश्य हो आया यह वेनु राजगृह से किसी कार्योपलक्ष में आया था। एक वेदना तीक्ष्ण सूचि की भांति उसे विद्ध करने लगी। पुन: एकबार दोहरा उठा- 'भगवान् तथागत, आपकी अभिरुचि ही पूर्ण हो।' किन्तु उत्पल जिस कार्य के लिए आया था वह असम्भव था। ग्रन्थागार के भिक्षुओं ने प्रथम तो उसकी रक्षा के लिए चेष्टा की। किन्तु जब अवस्था उनके सामर्थ्य के बाहर हो गई वे निरस्त हो गए। उत्पल उनके पास आकर खड़ा हो गया। देखा, बहुदिन सयत्न संग्रहित पुस्तकें जल-जलकर भस्म हो रही थीं। उत्क्षिप्त धूम्र ऊर्ध्वगमन कर रहा था। उस पर प्रवाहित वायु भी उस ताण्डव को सहयोग दे रहा था। ज्वलन्त अंगार एवं भस्म उड़-उड़कर चतुर्दिक गिर रही थी। भूमिकम्प तो बन्द हो गया था किन्तु वह किसी भी क्षण पुन: प्रारम्भ हो जाएगा। यह सम्भावना बनी हुई थी। उत्पल सोचने लगा- भूमिकम्प होना तो स्वाभाविक है, पर यह अग्निकांड ? ग्रन्थागार में अग्नि लगी तो कैसे? यज्ञाग्नि ? किन्तु इस पर विश्वास करने की इच्छा नहीं होती। तब कौन सा कारण हो सकता है ? किसी ने अग्नि-संयोग तो नहीं कर दिया। उत्पल ग्रन्थागार के संरक्षकों के निषेध की अवहेलना करता हुआ उस अग्नि वृष्टि के मध्य अग्रसर होने लगा। देखा-अग्नि की लपलपाती हुई लपटें और प्रोज्ज्वल होती जा रही थीं। कभी वह शिखा घननील, कभी पाण्हुर, कभी रक्तवर्ण हो रही थी अयुत नागिन के फणों की भांति सिर उठाए वे नृत्य कर रही थीं। कभी-कभी मन्द हो जाती, पर मात्र द्विगुण वेग से जल उठने के लिए ही। अनेक भिक्षु एवं विद्यार्थी वहिर के बाहर चले गए। जैसे वे मृत्यु के ही बाहर हो गए हों। अत: उन्मुक्त से कलरव कर रहे थे। इसीलिए यह कोई सोच नहीं सका कि विहार के अन्यान्य अंश की अग्निदाह से रक्षा की जा सकती थी। उन्होंने तो बस सोच ही लिया था कि वह विहार का अन्तिम दिन था। उत्पल अग्रसर होता गया। किन्तु अब और अधिक अग्रसर होना असम्भव था। धूम्र और वाष्प ने उसके चक्षुओं को अवरुद्ध कर दिया। प्रज्ज्वलित अंगार उड़-उड़कर चतुर्दिक जो कुछ भी दाह्य पदार्थ था सब जला रहे थे। उत्पल ने ज्योंहि सम्मुख कदम रखा उसके पद आघात से कोई आर्तनाद कर उठा। वह चमक कर एक ओर हो गया। बोला- 'कौन ?' उत्तर न पाकर वह नीचे झुककर देखने लगा। 'अरे! मनुष्य-देह ही तो है!' पूछा- 'कौन हो तुम?' वह देह कुछ हिल उठी। बोली- 'ब्राह्मण!' उसका अर्द्धदग्ध मुख विकृत हो रहा था। अत: पहचान तो नहीं सका, पर उस शब्द ने सब कुछ सुबोध कर दिया। बोला- 'क्या तुम्हीं ने ग्रन्थागार में अग्नि संयोग किया था? तुम्हारे पाप की सीमा नहीं है। किन्तु, बुद्ध तुम्हें क्षमा करेंगे।' फिर कुछ रुककर बोला, 'लगता है तुम्हारे प्राण बच सकते हैं। तुम मेरा अवलम्बन लेकर उठ सकते हो?' ब्राह्मण से प्रत्युत्तर पाने के पूर्व ही पृथ्वी पुन: एक बार कांप उठी। वह कम्पन इतना प्रचण्ड था कि धरापृष्ठ स्थान-स्थान पर फट गया। बौद्ध विहार का सब कुछ रसातल में धंसने लगा। उत्पल ब्राह्मण को निरापद स्थान में ले जाने की चेष्टा कर रहा था पर लड़खड़ाकर गिर पड़ा और कभी न उठ सका। समस्त धरती और आकाश भिक्षुओं एवं विद्यार्थियों के आर्त चीत्कार से पुन: एकबार भर पृथ्वी तब भी कांप रही थी, मरणोन्मत्त वेग से कांप रही थी कहीं कुछ नीचे धंस रहा था, कहीं जल और कर्दम ऊपर की ओर उछल रहा था। भिक्षुगण विक्षिप्त से दौड़ा भागी कर रहे थे। ...पर कहां था आश्रय। कोई धंसान के साथ नीचे जा रहा था। कोई कीचड़ के साथ ऊपर जाकर पुन: खड्ड में गिर रहा था। चारों ओर अग्नि-व्याप्त हो रही थी। दूसरे दिन जब फिर सूर्य उदित हुआ उस विहार का कोई चिह्न ही अवशेष नहीं था। पृथ्वी ने पूर्णत: ग्रास कर लिया था उस विराट् विहार को। किन्तु हां, धरती के उस आलोड़न के परिणाम-स्वरूप जो कुछ उठना, धंसना परिवर्तन हुआ वह प्रकृति की उस निष्ठुर लीला की जैसे साक्षी दे रहा था। हीरक जयन्ती स्मारिका विद्वत् खण्ड / 111 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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