Book Title: Abhishapta Nalanda Author(s): Ganesh Lalwani Publisher: Z_Jain_Vidyalay_Hirak_Jayanti_Granth_012029.pdf View full book textPage 1
________________ गणेश ललवानी अभिशप्त नालन्दा पूर्व दिन सन्ध्या होते ही हवा जैसे एक बारगी ही बन्द हो गई थी एवं एक असह्य उत्ताप ने पृथ्वी को मानो वेष्टन कर रख दिया था । दूसरे दिन प्रभात हुआ । किन्तु, प्रकृति की उस शब्दहीन, रुद्ध श्वांस प्रतीक्षा का अवसान नहीं हुआ। सूर्य उदित हुआ, पर वह सूर्य प्रतिि का सूर्य नहीं था । उसका रंग था जैसे ताम्र । स्थविर मुदितभद्र विहार के एक प्रकोष्ठ में बैठकर धम्मपद का पाठ कर रहे थे। भिक्षु श्रमण उत्पल ने उनके चरणों के समीप आकर प्रणाम किया। विनीत स्वर मैं बोला- 'बन्दे ।' स्थविर मुख उठाकर आशीर्वाद की भंगिमा में हस्त उत्तोलित करते हुए बोले- 'आरोग्य' उत्पल ताम्रवर्ण सूर्य की ओर उनकी दृष्टि आकृष्ट करता हुआ बोला- 'थेर ! लगता है ब्राह्मणों का अभिचार आज सफल होगा । ' स्थविर उठकर कुछ क्षण तक सूर्य की ओर अपलक देखते रहे । फिर यथा स्थान उपवेशित होकर उत्पल की ओर देखते बोलेहुए 'भगवान तथागत की जैसी अभिरुचि ।' उत्पल द्वादश वर्ष पूर्व की एक घटना की ओर इंगित कर रहा था । घटना इस प्रकार थी : आज से ठीक बारह वर्ष पूर्व इसी भांति की प्रभात बेला में स्थविर जिस समय धर्मोपदेश दे रहे थे, दो तार्किक ब्राह्मणों ने सहसा उपस्थित होकर स्थविर को तर्क के लिए आह्वान किया। स्थविर भी उनकी अभिलाषानुसार तर्क में प्रवृत्त हो गए। किन्तु वे ब्राह्मण यथार्थतः तर्क हीरक जयन्ती स्मारिका - Jain Education International का उद्देश्य लेकर नहीं आए थे। वे आए थे, स्थविर का अपमान करने। अतः तर्क में प्रवृत्त होते ही स्थविर पर कटूक्ति करने लगे। स्थविर तो क्षमाशील थे पर वह कटूक्ति पीड़ा का कारण बन गई श्रमणों एवं विद्यार्थियों के लिए। तरुण विद्यार्थियों के लिए तो वह इतनी असह्य हो गई कि क्रोधावेश में वे वस्त्र प्रक्षालित जल दोनों ब्राह्मणों के मस्तक पर निक्षेप कर बैठे। फलतः दोनों ब्राह्मणों ने कुपित होकर विहार का परित्याग तो कर दिया पर परित्याग के पूर्व बिहारवासियों को बलपूर्वक कहा— 'आज से हमलोग सूर्योपासना करते हुए द्वादशवर्षीय अनि यज्ञ अनुष्ठान करेंगे और उस यज्ञ में आहुति रूप में प्रदान करेंगे नालन्दा विहार को । परिणामत: भस्मीभूत होकर धरापृष्ठ होता हुआ निश्चिह्न हो जाएगा यह नालन्दा । ' मुदितभद्र भगवान तथागत की अभिरुचि कहकर पुनः धम्मद पाठ प्रवृत्त हो गए। कोई अन्य होता तो दीर्घ निःश्वास फेंकता हुआ आत्म-रक्षा के लिए उद्यत हो जाता। किन्तु मुक्तिभद्र ने ऐसा कुछ नहीं किया। क्योंकि, वे दीर्घ साधना में अपनी इच्छा को सम्पूर्णतया विसर्जित कर बुद्ध की अभिरुचि की ही शेष नियामक के रूप में ग्रहण करने के अभ्यस्त हो चुके थे । अतः कोई किसी भी प्रकार से उनके चित्त की स्थिरता को नष्ट करने में सक्षम नहीं हो पाता। यदि ब्राह्मण का अभिचार आज सफल ही हो जाए तो क्या ? मुदितभद्र का धैर्य उससे अणुमात्र भी विचलित नहीं हो सकता । मुदितभद्र का धैर्य तो विचलित नहीं हुआ किन्तु विचलित हो गया अन्यान्य भिक्षु एवं विद्यार्थियों का धैर्य । वे तत्क्षण स्व-स्व प्रकोष्ठ परित्याग कर बाहर प्रांगण में आ खड़े हुए। उनके मुख पर भय और उद्वेग की ऐसी कालिमा छायी हुई थी जैसे वे मृत्यु के मुख में ही प्रवेश कर गए हैं। भिक्षुओं में एक अस्सी वर्ष के वृद्ध शीर्ण हाथ से चैत्य के भित्तिगात्र का अवलम्बन कर खड़े-खड़े चीत्कार करते हुए कह रहे थे— 'आज ब्राह्मणों की क्रोधाग्नि में भस्म होने का दिन आ गया है।' यह बात उत्पल से कानों में भी पहुंची। अतः स्थविर से बोला'भदन्त, वर्तमान में इस विहार का परित्याग करना ही क्या श्रेयकर नहीं है?" स्थविर के मुख की प्रशान्ति उसी भांति अव्याहत थी। वे धीरे से बोले- 'जैसी तुम्हारी अभिरुचि ! तुम लोग विहार परित्याग कर सकते हो... पर मैं नहीं करूंगा।' दीर्घ निःश्वाँस फेंकते हुए उत्पल बोला- 'भदन्त ! आपको उपदेश देने की क्षमता मुझ में नहीं है किन्तु क्या अभिशप्त विहार में अवस्थान करना उचित होगा ? ' स्थविर मुस्कुराए । बोले- 'उत्पल, विहार अभिशप्त हुआ है ऐसा मैं नहीं मानता। फिर भी यदि ब्राह्मणों के अभिचार से ही विहार को ध्वंस होना है तो विहार के साथ-साथ हमलोगों का ध्वंस होना भी अनिवार्य है। मात्र ये स्तूप, ये चैत्य, ये भिक्षु आवास ही विहार नहीं है, भिक्षुगण भी विहार के ही प्रमुख अंग हैं। अतः पृथ्वी के किसी प्रान्त में जाने पर भी हमारी रक्षा नहीं हो सकती। फिर क्यों हम विहार For Private & Personal Use Only विद्वत् खण्ड / १०७ www.jainelibrary.orgPage Navigation
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