Book Title: Abhaysomsundar krut Vikram Chauboli Chaupai
Author(s): Madanraj D Mehta
Publisher: Z_Kesarimalji_Surana_Abhinandan_Granth_012044.pdf

View full book text
Previous | Next

Page 1
________________ - -. -. . . -. -. -. -. -. - . -. -. - . -. अभयसोमसन्दरकृत विक्रम चौबोली चवि - डॉ० मदनराज डी० मेहता हिन्दी विभाग, जोधपुर विश्वविद्यालय, जोधपुर विक्रमादित्य के प्रेरक चरित्र ने साहित्यकारों के मानस को सर्वाधिक स्पर्श किया। करुणा, न्याय, औदार्य एवं शौर्य की अनेक अनुश्रुतियों और लोककथाओं के नायक विक्रमादित्य प्रत्येक भारतीय के लिये गौरवास्पद हैं। संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रंश अथवा अन्य भारतीय भाषाओं में ही नहीं, अरबी, फारसी तथा चीनी जैसी विदेशी भाषाओं में भी विक्रमादित्य विषयक अनेक कृतियों के प्रणयन की शोध-सूचनाओं से पुष्टि होती है। इतिहास अथवा प्रामाणिकता की दृष्टि से, हो सकता है, इन रचनाओं के महत्त्व में विद्वान शंका करे, लेकिन यह बात निश्चित रूप से सिद्ध होती है कि विक्रम के प्रभावशाली वृत्त में सामाजिक एवं सांस्कृतिक असमानताओं में सामंजस्य स्थापित करने की आश्चर्यजनक क्षमता है। न्यूनाधिक इसी कारण से मत-मतान्तर, देश और काल की सीमाओं का अतिक्रमण कर रचयिताओं ने विक्रमादित्य को अपने हृदय का हार मानकर भिन्न-भिन्न भाषाओं में उनके अप्रतिम, उदात्त एवं आकर्षक गुणों का मुक्त-कण्ठ से गुणगान किया। प्रसिद्ध गुर्जर कवि वृत्त संग्राहक श्री मोहनलाल दलीचन्द देसाई तथा विख्यात साहित्यान्वेषक श्री अगरचन्द नाहटा ने जैन रचयिताओं द्वारा लिखित ५५ ग्रंथों का परिचय अनेक वर्षों में पूर्व सूचित किया था। श्री देसाई ने तो उपलब्ध ग्रन्थों के आदि, मध्य एवं अन्त के उद्धरण भी दिये थे। नाहटाजी ने तो केवल ग्रन्थ नाम, ग्रन्थ रचयिता, रचनाकाल, प्राप्ति स्थान एवं प्रकाशन स्थान का निर्देश कर ही संतोष किया था। प्राचीन पाण्डुलिपियों के मेरे निजी संग्रह से मुझे एक गुटका प्राप्त हुआ है, जो विक्रम संवत् १७५७ से १७७९ के मध्य में लिपिबद्ध किया गया था। इस गुटके में अन्य अनेक ग्रन्थों के साथ विक्रमादित्य सम्बन्धी एक ग्रन्थ है, 'विक्रम चौबोली चउपि' । ५४४४० से. मी. आकार के सांगानेरी कागज पर निबद्ध ग्रन्थ का पाठ सुवाच्य तो है ही, शुद्ध भी है। इस श्री विक्रम चौबोली चउपि की रचना वाचनाचार्य अभयसोमसुन्दर ने विक्रम संवत् १७२४ की आषाढ़ कृष्णा १० को की थी। उन्होंने ग्रन्थ के अन्त में रचनाकाल का स्पष्ट उल्लेख किया है-- सतर चउविस किसन दसवीं आदि आसाढ़े सहि । वाचनाचारिअ अभसोमे मति सुन्दर काज कहि ॥ ० प्रारम्भ में अभयसोम ने सरस्वती को स्मरण करते हुए विक्रम-वृत्त की रचना के लिए शुभाशीष की याचना की है । अत्यन्त स्वाभाविक ढंग से कवि कहता है : वीणा पुस्तक धारिणी हंसासन कवि माय । ग्रह ऊगम ते नित नमू, सारद तोरा पाय ।। दुई पंचासे बंदिउ, कोइ नवो कोठार । बाथां भरीने काढ़ता, किणही न लाधो पार ।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 2 3 4 5 6 7