Book Title: Aavashyako ki Mahima
Author(s): Pramodmuni
Publisher: Z_Jinavani_002748.pdf

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Page 4
________________ 32 जिनवाणी 15,17 नवम्बर 2006 पर पदारथ रंजना, कीन्हीं व्रत की भंजना। आत्मभाव उल्लंघना, करनी उसकी निंदना ।। खलना की हो निवारना, यम की निर्मल पालना....लक्ष्य को पहचान दुःख क्यों आता है? दोषों के कारण। दोषों का मूल क्या? निज विवेक का अनादर । आत्मभाव छोड़ विभाव में जाना। आत्मरंजन छोड़ मनोरंजन में जाना । आत्मसुख छोड़ सातावेदनीय जनित सुख में लीन होना। साता का सारा सुख बाहर से ही तो मिलता है, मनोज्ञ शब्दादि में बाहर से शब्द, रूप आदि की प्राप्ति आवश्यक होती है. अतः पराधीन बनाती है। उससे विरत होना व्रत है- उस अतिक्रमण से पीछे लौटना प्रतिक्रमण है। यूं तो सारा प्रयास उसी के लिये किया, औदयिक भाव से क्षायोपशमिक भाव में आने के लिये किया, उदय के प्रभाव से प्रभावित नहीं होने के लिये किया, अशान्ति से शान्ति में आने के लिये किया, पर अबकी बार गहराई से देख, शान्त आत्मा की स्तुति कर, प्रशान्त बनने में पुरुषार्थ करने वालों की शरण लेकर, जीव अपने कृत्य-दुष्कृत्य के लिये आलोचना में ध्यान केन्द्रित कर दोषों की निन्दा कर रहा है। मोहनीय कर्म को तोड़ने का प्रयास कर रहा है। तीन भागों में विभक्त है चौथा आवश्यक ) स्खलना का मिथ्या दुष्कृत देना, भावी सुरक्षा के लिये व्रत के स्वरूप सहित अतिचारों को ध्यान में लेकर जागृति बढ़ाना और पंच परमेष्ठी की स्तुति सहित उनकी, व्रतियों की, जीवमात्र की अविनय के लिये क्षमायाचना करना ! यह आवश्यक सूत्र का मूल भाग है। किसी वीतराग पथिक के रसिक साधक ने भी कुछ नियम बताए, मानव जीवन के उत्थान के लिए१. प्राप्त विवेक के प्रकाश में अपने दोषों को देखना। २. की हुई भूल को न दोहराने का व्रत लेकर सरलतापूर्वक प्रार्थना करना। ३. न्याय अपने पर करना, क्षमा अन्य को करना। ___ आश्चर्य है यह साधक लघुवय में आँख चले जाने से, शान्त निर्विकार रूप से ध्यान-मौन की साधना में लीन रहा। बिना किसी ग्रन्थ को पढ़े, वही सत्य उद्घाटित किया- जो अनन्त ज्ञानियों ने फरमाया और क्या कहूँ मैं आपको, शब्द समझ नहीं पा रहा! हम वीतराग भगवन्तों के सपूत कहलाने के हकदार हैं क्या? श्रेष्ठतम साधना पथ को प्राप्त करके भी हमें क्यों भटकना पड़ रहा है किसी ध्यान केन्द्र में? क्यों जाना पड़ रहा है Art of living में? क्यों पढ़ना पड़ रहा है You can win आदि को। पहला दोष हमारा है, साधु संस्था का है। आत्मोत्थान, मन की-समाधि, हृदय की पवित्रता, तन का स्वास्थ्य सभी कुछ तो समाया है जैन दर्शन में। एक गाँव गये। अपनी-अपनी विधि से प्रतिक्रमण करने वाले दो पक्ष- हाल के दो छोरों में इतनी जोर-जोर से पाठ बोल रहे थे कि किसी का प्रतिक्रमण हो पाना....? पूरा का पूरा अतिक्रमण...और कर रहे • प्रतिक्रमण। विधि को लेकर विवाद है, कायोत्सर्ग को लेकर विवाद है- संवाद करने का भरसक प्रयास हुआहमारे पूर्वाचार्य सफल नहीं हो पाए। अपनी अपनी परम्परा से भले ही करो, किन्तु दूसरों को गलत नहीं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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