Book Title: Aatma hi hai Sharan
Author(s): Hukamchand Bharilla
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 9
________________ विदेशों में जैनधर्म के प्रचार-प्रसार की आवश्यकता इस यात्रा के दौरान लन्दन और अमेरिका के चौदह महानगरों में बसे जैनबन्धुओं से हुए निकट सम्पर्क और चर्चा के आधार पर मैं विश्वास के साथ कह सकता हूँ कि यदि संगठितरूप से योजनाबद्ध प्रयास किये जायें तो भारत की अपेक्षा वहाँ अल्प प्रयत्नों से भी अधिक कार्य हो सकता है; क्योंकि एक तो वहाँ अभी साम्प्रदायिकता की भावना बहुत कम है, दूसरे विदेशों में बसे जैनबन्धु व महिलाएँ सुशिक्षित और प्रतिभासम्पन्न हैं तथा जैन तत्त्वज्ञान के मर्म को बिना भेदभाव के समझने के लिए लालायित भी हैं। आपको यह जानकर आश्चर्य होगा कि वहाँ लगभग प्रत्येक नगर में 'क्रमबद्धपर्याय' जैसे गूढ़ विषय की चर्चा करनेवाले भी मिले। प्रतिदिन प्रवचन के बाद होनेवाले प्रश्नोत्तरों में सर्वाधिक प्रश्न क्रमबद्धपर्याय संबंधी ही पूछे जाते थे। प्रश्नोंत्तरों का मूल विषय या तो तात्त्विक होता था या फिर जैन संस्कृति की सुरक्षा संबंधी उपायों पर मार्गदर्शन चाहा जाता था । सामान्य या ऊटपटांग प्रश्न बहुत ही कम आते थे। प्रश्नोत्तरों की गंभीरता के साथ-साथ चर्चा में जैन संस्कृति और तत्त्वज्ञान संबंधी सुरक्षा की चिन्ता अधिक व्यक्त होती थी, जिससे उनके मानस का स्पष्ट पता चलता था। यद्यपि मैं वहाँ पहलीबार ही गया था, पर मुझे वहाँ अपरिचित जैसा कुछ भी नहीं लगा; क्योंकि मुझे वहाँ अनेक लोग मिले, जिन्होंने मुझे पहिले भारत में कहीं न कहीं सुना अवश्य था । भले ही मैं उन्हें नहीं जानता था, पर वे लोग मेरे से भली-भाँति परिचित थे; क्योंकि उन्होंने मेरे प्रवचनों को तो कई बार सुना ही था, मेरा साहित्य भी पढ़ा था। मेरी क्रान्तिकारी कृति 'क्रमबद्धपर्याय' 'मुझसे बहुत पहले वहाँ पहुँच चुकी थी। उसने बहुत पहले से भूमि तैयार कर दी थी, जिससे मुझे सर्वत्र बहुत वात्सल्य और अपनत्व मिला। साहित्य भी कितना प्रभावशाली होता है, उसकी पकड़ कितनी गहरी और सुदूरवर्ती होती है इस बात का अनुभव भी मुझे इस यात्रा के दौरान ही हुआ। -

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