Book Title: Aantardwand
Author(s): Parmatmaprakash Bharilla
Publisher: Hukamchand Bharilla Charitable Trust

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Page 39
________________ यह आत्मा मैं हूँ व शरीर है अन्य और मनुष्य जीवन तो आत्मा और शरीर की एक असमानजातीय पर्याय है। पर मेरा यह ज्ञान चर्चा-वार्ता के धरातल तक ही सीमित रहा, मैं इस ज्ञान को आत्मसात नहीं कर सका और यही कारण रहा कि जीवन भर मैं अपनी आजीविका के इन्तजाम में तो लगा रहा, इस मानवजीवन के इन्तजाम में तो लगा रहा, और इससे भी आगे बढ़कर इस शरीर की आगामी पीढ़ियों के इन्तजाम में भी डूबा रहा; पर मैं इस भगवान आत्मा के आने वाले कल की हमेशा ही अनदेखी करता रहा। यदि मैं अपने अन्तर को टटोलता हूँ तो पाता हूँ कि सचमुच जैसा भरोसा मुझे अपनी इस क्षणिक असमानजातीय पर्याय का है, वैसा भरोसा त्रैकालिक भगवान आत्मा का है ही नहीं। हालांकि इस मनुष्य जीवन का कोई भरोसा नहीं है, अगले दिन की तो बात ही क्या, अगले पल का भी भरोसा नहीं है, यह एक अनुभवसिद्ध तथ्य है; तथापि मैं इसके बारे में कितना आश्वस्त हूँ व निःशंक होकर पंचवर्षीय व पच्चीस वर्षीय योजनायें बनाता रहता हूँ, पर आत्मा की अनादि-अनंतता के बारे में जानने के बावजूद मुझे इसके अमरत्व का भरोसा नहीं होता। ___ कैसी विडंबना है कि जो जीवन इतना अनिश्चित है; उसके बारे में मैं कितना आश्वस्त हूँ व जो मृत्यु इतनी निश्चित है; उसकी मुझे कोई परवाह ही नहीं। ___ हमारी दृष्टि इतनी स्थूल है कि आत्मा की अनादि-अनंतता हमारी दृष्टि में ही नहीं आती। हमारी परिकल्पना का दायरा भी इतना संकीर्ण है कि आत्मा की अनादि-अनंतता उसकी परिधि में ही नहीं समाती। हालांकि, चूँकि शास्त्रों में लिखा है व ज्ञानीजनों के मुखारबिन्द से सुना है; इसलिए जिस सीमा तक यह 'अनादि-अनंतता' का विचार हमारे आज के किसी क्षुद्र से क्षुद्र स्वार्थ की सिद्धि में आड़े नहीं आता, हम उस पर भरोसा बनाये रखते हैं व यदि आज की जीवन शैली में सब जिम्मेदारियाँ निबाहने के - अन्तर्द्वन्द/27 -

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