Book Title: Aagam Manjusha 30 Painnagsuttam Mool 07 Gachchhaayar
Author(s): Anandsagarsuri, Sagaranandsuri
Publisher: Deepratnasagar

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Page 6
________________ हिवडते अणुजाणे सा उ पडिणीया // 5 // वुड्ढाणं तरुणाणं रसिं अज्जा कहेइ जा धम्मं / सा गणिणी गुणसायर ! पडिणीआ होइ गच्छस्स ॥६॥जत्य यसमणीणमसंखडाई गच्छमि नेव जायंति / तं गच्छं गच्छवरं मिहत्यभासाओ नो जस्थ // 7 // जो जत्तो वा जाओ नालो दिवसपक्खिों वावि / सच्छंदा समणीओ (म० उपसमणे) मयहरयाए न ठायंति // 8 // विंटलिआणि पउंजंति गिलाणसेहीण नेष तिप्पंति। अणगाढे आगाढं करेंति आगादि अणगादं // 9 // अजयणाए पकुव्वंति, पाहुणगाण अवच्छल / चित्तलयाणि सेवंति, चित्ता स्यहरणा तहा // 120 // गइविम्भमाइएहिं आगारविगार तह पगासिंति। जह बुड्ढाणवि मोहो समुईरह किं नु तरुणाणं ? // 1 // बहुसो उच्छोलिंती मुहनयणे हत्यपायकक्खाओ। यफेरी तरुणी य अंतरे सुयह / गोयम ! तं गच्छवरं वरनाणचरित्तआहारं // 3 // धोइंति कंठिआओ पोइंति तह य 2 दिति पोत्ताणि। गिहकजचिंतगीओ नहु अजा गोयमा ! ताओ॥४॥ खरघोडाइट्ठा वयंति ते वावि तस्य वचंति। वेसित्थीसंसग्गी उवस्सयाओ समी+मि // 5 // समायमुकजोगा धम्मकहा विगहपेसण गिहीणं / गिहिनिस्सर्ज वाहिति संथवं तह करतीओ // 6 // समा सीसपडिच्छीणं, बोअणासु अणालसा / गणिणी गुणसंपण्णा, पसत्थपुरिसाणुगा // 7 // संविग्गा भीयपरिसा य, उम्गदडा य कारणे। सज्झायझाणजुत्ता य, संगहे अ विसारया ॥८॥जत्युत्तरपडिउत्तरवडिआ अज्जा व साहुणा सदि / पलवंति सुरुवावी गोअम! किं तेण गच्छेण? // 9 // जत्थ य गच्छे गोअम ! उप्पणे कारणमि अज्जाओ। गणिणी पिडिठिआओ भासंती मउअसद्देणं // 130 // माऊए दुहिआए मुण्हाए अहव भइणिमाईणं / जत्य न अज्जा अक्खइ गुत्तिविभेयं तयं गच्छं // 1 // दसणयारं कुणई चरित्तनासं जणेइ मिच्छत्तं / दुण्हवि वम्गेणऽजा विहारभेअं करेमाणी // 2 // तैमूलं संसारं जणेइ अजावि गोयमा! नूर्ण / तम्हा धम्मुवएस मुत्तुं अन्नं न भासिजा // 3 // मासे 2 उजा अज्जा, एगसित्येण पारए। कलहे गिहत्थभासाहिं, सर्व तीए निरत्ययं // 4 // महानिसीहकप्पाओ, ववहाराओ तहेव य / साहुसाहुणिअट्ठाए, गच्छायारं समुद्धिअं॥५॥ पढंतु साहुणो एअं, असज्झायं विवजिउं। उत्तमं सुयनिस्संदै गुच्छायारं तु उत्तम // 6 // गच्छायारं सुणित्ताणं, पढित्ता भिक्खुमिक्सुणी। | कुणंतु जं जहा भणियं, इच्छंता हियमप्पणो // 137 // 20-846 // गच्छाचारपइण्णयं समत्तं 7 // अहं गणिविजापइण्णय वुच्छं बलाबलाविहिं नववलविहिमुत्तमं विउपसत्यं / जिणच

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