Book Title: Aagam Manjusha 30 Painnagsuttam Mool 07 Gachchhaayar
Author(s): Anandsagarsuri, Sagaranandsuri
Publisher: Deepratnasagar
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ _ नमो नमो निम्मलदंसणस्स पूज्य आनंद-क्षमा-ललित-सुशील-सुधर्मसागर गुरूभ्यो नमः On Line - आगममंजूषा [३०] गच्छायारो * संकलन एवं प्रस्तुतकर्ता * मनि दीपरत्नसागर M.Com.M.Ed., Ph.D.] Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ || किंचित् प्रास्ताविकम् || ये आगम-मंजूषा का संपादन आजसे ७० वर्ष पूर्व अर्थात् वीर संवत २४६८, विक्रम संवत १९९८, ई. स. 1942 के दौरान हुआ था, जिनका संपादन पूज्य आगमोद्धारक आचार्यश्री आनंदसागररिजी म.सा. ने किया था| आज तक उन्ही के प्रस्थापित मार्ग की रोशनी में सब अपनी-अपनी दिशाएँ ढूंढते आगे बढ़ रहे हैं। हम ७० साल के बाद आज ई.स. 2012, विक्रम संवत २०६८, वीर संवत -२५३८ में वो ही आगम- मंजूषा को कुछ उपयोगी परिवर्तनों के साथ इंटरनेट के माध्यम से सर्वथा सर्वप्रथम “ OnLine-आगममंजूषा " नाम से प्रस्तुत कर रहे हैं। मूल आगम- मंजूषा के संपादन की किंचित् भिन्नता का स्वीकार * * है। [१]आवश्यक सूत्र-(आगम-४० ) में केवल मूल सूत्र नहीं है, मूल सूत्रों के साथ निर्युक्ति भी सामिल की गई है| [२]जीतकल्प सूत्र-(आगम - ३८ ) में भी केवल मूल सूत्र नहीं है, मूलसूत्रों के साथ भाष्य भी सामिल किया है | [३]जीतकल्प सूत्र-(आगम-३८) का वैकल्पिक सूत्र जो “पंचकल्प” है, उनके भाष्य को यहाँ सामिल किया गया [४] “ओघनिर्युक्ति”-(आगम-४१ ) के वैकल्पिक आगम “पिंडनिर्युक्ति” को यहाँ समाविष्ट तो किया है, लेकिन उनका मुद्रण-स्थान बदल गया है। [५] “कल्प(बारसा)सूत्र” को भी मूल आगममंजूषा में सामिल किया गया है| Online-आगममंजूषा : Address: Mnui Deepratnasagar, MangalDeep society, Opp. DholeshwarMandir, POST :- THANGADH Dist.surendranagar. Mobile:-9825967397 jainmunideepratnasagar@gmail.com मुनि दीपरत्नसागर -मुनि दीपरत्नसागर Date:-12/11/2012 Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समतं ६ ॥ 30311-20 श्रीगच्छाचारप्रकीर्णकम् 'नमिऊण महावीरं तिअसिंदनमंसियं महाभागं। गच्छायारं किंची उदरिमो सुयसमुदाओ॥१॥७१०॥ अत्यगे गोयमा ! पाणी, जे | उम्मग्गपाहिए। गच्छमि संवसित्ताणं, भमई भवपरंपरं ॥२॥ जामदं जाम दिण पक्खं, मासं संवच्छरंपि वा । समग्गपट्ठिए गच्छे, संवसमाणस्स गोयमा!॥३॥ लीलाअलसमाणस्स, निरु. मछाहस्स बीमणं । पक्खाविक्सीह अन्नेसि, महाणुभागाणं साहुर्ण ॥४॥ उज्जमं सबथामेसु, घोरं वीरतवाइयं। लज संकं आइकम्म, तस्स विरियं समुच्छले ॥५॥ वीरिएणं तु जीवस्स, समुच्छलिएणं गोयमा!। जम्मतरकए पावे, पाणि मुहुत्तेण निरहे ॥६॥ तम्हा निउर्ण निहालेउं, गच्छं सम्मग्गपट्ठियं । वसिज तत्थ आजम्म, गोयमा ! संजए मुणी॥७॥ मेढी आलं. पर्ण खंभ, दिद्वी जाणं सुउत्तमं । सूरी जं होइ गच्छस्स, तम्हा तं तु परिक्खए॥८॥ भयवं ! केहिं लिंगेहिं, सूरि उम्मग्गपट्टियं ? । चियाणिजा छउमत्ये, मुणी ते मे निसामय ॥९॥ सच्छंदयारि दुस्सीलं, आरंभेसु पवत्तयं। पीढयाइपडीबद्ध, आउकायविहिंसगं ॥१०॥ मूलत्तरगुणभई, सामायारीविराहयं । अदिन्नालोयणं निचं, निचं विगहपरायणं ॥१॥ छत्तीसगुणसमन्नागएण तेणचि अवस्स दाया। परसक्खिया विसोही सुट्ठवि ववहारकुसलेणं ॥२॥जह सुकुसलोऽवि विजो अन्नस्स कहेड अत्तणो वाहि । विजुवएसं सुचा पच्छा सो कम्म. ९२५ गच्छाचारपकीर्णकं, आहा-१-१३ मुनि दीपरनसागर Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मायरइ ॥३॥ देसं खित्तं तु जाणित्ता, वत्थं पत्तं उवस्सयं। संगहे साहुवग्गं च, सुत्तत्थं च निहालई ॥४॥ संगहोवग्गहं विहिणा, न करेइ य जो गणी। समणं समणिं तु दिक्खित्ता, सामायारिं न गा(प० निगू)हए ॥५॥ बालार्ण जो उ सीसाणं, जीहाए उवलिंपए। न सम्मं मम्गं गाहेइ. सो सूरी जाण वेरिओ॥६॥ जीहाएवि लिहतो न भद्दओ सारणा जहिं नथि। डंडेणवि ताडतो स भद्दओ सारणा जत्थ ॥७॥ सीसोऽपि वेरिओ सो उ. जो गुरु नवि बोहए। पमायमहरापत्य, सामायारीविराहयं ॥८॥तुम्हारिसावि मुणिवर ! पमायवसगा हवंति जह पुरिसा।तो को अन्ना अम्हं आलवण हुज संसार?॥९॥ नाणमिदसणम्मि यचरणाम यतिसुबि समयसारसु। चाएइजो ठवउ गणमप्पाण च सा य गणी ॥ च सिखं उम्गमउप्पायणेसणासुदं। चारित्तरक्खणट्टा सोहिंतो होइ सचरिती॥१॥अपरिस्सावी सम्म समपासी चेव होइ कनेसु । सो रक्खइ चक्खुपिक सवालखुइटा उलं गच्छं॥२॥2 सीयावेइ विहारं सुहसीलगुणेहिं जो अबुद्धीओ। सो नवरि लिंगधारी संजमजोए(प्र० सारे)ण निस्सारो ॥३॥ कुलगामनगररज्जं पयहिअ जो तेसु कुणइ अममनं । सो नवरि लिंगधारी संजमजोएण निस्सारो ॥४॥ विहिणा जो उ चोएइ, सुत्तं अत्थं च गाहए। सो धण्णो सो य पुष्णो य, स बंधू मुक्खदायगो ॥५॥ स एव भवसत्तार्ण, चक्खुए वियाहिए। दंसेइ जो जिणुहिद, अणुट्ठाणं जहहि॥६॥ तित्थयरसमो सूरी सम्मं जो जिणमयं पयासेइ। आणं अइकमंतो सो कापुरिसो न सप्पुरिसो॥७॥ भट्ठायारो सूरी भट्ठायाराणुवेक्खओ सूरी। उम्मग्गठिओ सूरी तिन्निवि मगं पणासंति ॥८॥ उम्मग्गठिए सम्मम्गनासए जो अ सेवए सूरी। निअमेणं सो गोयम ! अप्पं पाडेइ संसारे ॥५॥ उम्मग्गठिओ इकोऽवि नासए भवसत्तसंघाए। तमग्गमणुसरंते जह कुतारु नरो होइ ॥३०॥ उम्मग्गमग्गसंपडियाण सूरीण गोयमा! गुणं । संसारो य अणंतो होइ य सम्मग्गनासीणं ॥१॥ सुद्धं सुसाहुमग्गं कहमाणो ठबइ तइयपक्वंमि। अप्पाणं इयरो पुण गिहत्यधम्माओ चुकेति ॥२॥जइदिन सकं काउं सम्मं जिणभासिय अण्डाणं । तो सम्म भासिजा जह मणियं खीणरागेहिं ॥३॥ ओसमो. ऽपि विहारे कम्मं सोहेइ सुलभवोही य। चरणकरणं विसुद्ध उवहिंतो परवितो ॥४॥ सम्मम्गमम्गसंपट्टियाण साहूण कुणइ पच्छाई। ओसहभेसजेहि य सयमन्नणं तु कारेह ॥५॥ भए अस्थि भविस्संति केई तेलकनमियकमज़यला। जेसिं परहियकरणेकच(प्रकल)लखाण बोलिहिइ (कालो)॥६॥तीआणागयकाले केई होहिंति गोयमा! सूरी। जेसि नामग्गहणेचि हुज नियमेण पच्छित्तं ॥ ७॥ जओ-सयरीभवंति अणविक्खयाइ जह भिववाहणा लोए। पडिपुच्छसोहिनोयण तम्हा उगुरू सया भयइ ॥८॥ जो उप्पमायदोसेणं, आलस्सेणं तहेव य। सीसवगं न चोएइ, तेण आणा विराहिया ॥९॥ संखेवेण मए सोम्म !, वणियं गुरुलक्खणं । गच्छस्स लपवणं धीर!, संखेवेणं निसामय ॥४०॥ गीयत्थे जे सुसंविग्गे, अणालस्सी दढवए। अक्खलियचरिते सययं, रागहोसविवजए॥१॥ निढवियट्टमयट्ठाणे, सुसियकसाए जिइंदिए। विहरिजा तेण सदि तु, छउमत्थेणवि केवली ॥२॥ जे अणहि. यपरमत्था, गोयमा ! संजया भये। तम्हा ते उ विवजिजा, दोग्गईपंथदायगे ॥३॥ गीयत्वस्स उ बयणेणं, विसं हालाहलं पिये। निश्विकप्पो य भक्खिजा, तक्षणं जं समुहवे ॥४॥ परमस्थओ विसं णोतं, अमेयरसायणं खुनं। निविग्धं जं न तं मारे, मओवि अमयस्समो ॥५॥ अगीयस्थस्स वयणेणं, अमयपि न घुटए। जेण नो तं भवे अमयं, जं अगीयस्थदे. सियं ॥६॥ परमत्थओनतं अमयं, विसं हालाहल सुतं । न तेण अजरामरोहुजा, तरखणा निहणं वए॥७॥ अगीयस्थकुसीलेह, संगतिविहेण बोसिर। मुक्खमम्गसिमे विग्धं, पहमी तेणगे जहा ॥८॥पजलिय व्यवहं दह्र, निस्संकोनस्थ पवेसिडं। अत्ताणं निहहिजाहि, नो कुसीलस्स अछिए॥९॥ पजलंति जत्थ धगधगधगस्स गुरुणावि चोइए सीसा । राग सेण वियणुसएण तं गोयम ! न गच्छं ।। ५० ॥ गच्छो महाणुभावो तत्थ वसंताण निजरा विउला । सारणवारणपोअणमाईहिं न दोसपडिवत्ती ॥१॥ गुरुणो छंदणुवित्ती सुविणीए जियपरीसहे धीरे। णविथडे णवि लदे णवि गारविए न विगहसीले ॥२॥ खते दंते गुने मुत्ते वेरग्गमम्गमल्लीणे । दसविहसामायारीआवस्सगसंजमुजुत्ते ॥३॥ खरफरुसककसाएs. णिवाइ निरगिराए। निभच्छणनिदाढणमाईहि न जे पउस्संति ॥४॥ जे य न अकित्तिजणए नाजसजणए नऽकजकारी अ।न पवयणउड्डाहकरे कंठग्गयपाणसेसेऽचि ॥५॥ गुरुणा कजमकजे खरककसदुद्दनिठुरगिराए । भणिए तहनि सीसा भणति तं गोयमा ! गच्छं॥६॥ दूज्झिअ पत्ताइसु ममत्तए निष्पिहे सरीरेऽवि। जायमजायाहारे बायालीसेसणाकुसले ॥ ७॥ नपि न रूबरसन्थं न य वष्णन्धं न चेव दपत्थं । संजमभरवहणथं अक्खोवंगव वहणत्थं ॥८॥यण व्यायचे ईरियट्ठाए य संजमवाए। तह पाणवत्तियाए छदं पुण धम्मचिंताए ॥९॥ जत्थ य जिद्रुकणिटो जाणिजइ जिविणयबहुमाणो। दिवसेणवि जो जिट्ठो न हीलिजइ स गोयमा ! गच्छो ॥६० ॥ जत्थ य अजाकप्पं पाणचाएवि घोरदुभि. क्खे । न य परिभुजइ सहसा गोयम : गच्छं नयं भणियं ॥१॥ जन्य य अजाहि सम थेरावि न उल्लविंति गयदसणा । न य झायंती थीणं, अंगोवंगाई तं गच्छं ॥२॥ वज्जेह अप्पमत्ता अजासंसम्गि अम्गिविससरिसी। अजाणुचरो साहू लहइ अकिनि सु अचिरेण ॥३॥ थेरस्स तवस्सियस्स व बहुस्सुयस्स व पमाणभूअस्स । अज्जासंसग्गीए जणजपणय हविजाहि ॥४॥ ९२६ गच्छाचारप्रकीर्णकं आहा-१४-67 मुनि दीपरत्नसागर Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कि पुण तरुणो अबहुस्सुओ य ण यऽविहु विगिट्टनवचरणो। अजासंसग्गीए जण जंपणयं न पाविजा ? ॥५॥ जइवि सयं थिरचिनो तहावि संसम्गिलादपसराए। अम्गिसमीवेव धर्य विलिज चित्तं खु अजाए ॥६॥ सनत्य इत्यिवग्गमि अप्पमत्तो सया अवीसत्थो। नित्थरह बंमधेरै तशिवरीओ न नित्थरह ॥ ७॥ सबत्थेसु विमुनो साहू सबत्य होइ अप्पवसो । सो 17 होइ अणप्पवसो अजाणं अणुचरंतो उ॥८॥ खेलपडिअमप्पाणं न नरइ जह मच्छिा विमोएडं । अमाणुचरो साहून तरह अप विमोएउं ॥९॥ साहुस्स नस्थि लोए अजासरिसी धणे उपमा। धम्मेण सह ठक्तो न यसरिसो जाण असिसो॥७०॥ वायामिनेणवि जत्थ भट्टचरितस्स निमाहं विहिणा । बहुलाविजुअस्साविकीर गुरुणा तयं गच्छं॥१॥ जन्य य समिहिउक्खडआहडमाईण नामगहणेऽपि । पूईकम्मा भीआ आउत्ता कप्पनिप्पेसु ॥२॥ मउए निहुयसहावे हासदवविवजिए विगहमुके। असमंजसमकरिते गोअरभूमट्ठ BI विहरति ॥ ३॥ मुणिणो नाणाभिम्गह दुकरपच्छित्तमणचरंताणं । जायद चित्तवमकं देविदाणंपिनं गच्छं ॥४॥ पुढविदगअगणिमास्यवणफइतसाण विविहजीवाणं । मरणतेविन पीडा कारर मणसा नयं गच्छं ॥५॥ खजूरिपनमुनेण, जो पमजे उवस्सयं । नो दया तस्स जीवेसु, सम्मं जाणाहि गोयमा! ॥६॥ जन्य य बाहिरपाणिस्स बिंदुमित्नपि गिम्हमाईसु। नण्हासोसियाणा मरणेऽपि मुणी न गिण्हति ॥ ७॥ इच्छिजा जत्थ सया बीअपएणावि कासुयं उदयं । आगमविहिणा निउणं गोयम ! गच्छं० ॥८॥जस्थ य मूल चिसूइय अन्नयरे वा विचित्तमायके । उपन्ने जणुजालणाइ न करेद तं गच्छं ॥९॥ बीयपएणं सारूविगाइसइढाइमाइएहिं च। कारितो जयणाए गोयम ! गच्छं० ॥८०॥ पुष्फाणं बीयाणं तयमाईणं च विविहदवाणं। संघट्टणपरियावण जस्थ न जानयं गच्छं ॥१॥हासं खेड्डा कंदप्प नाहियवायन कीरए जत्था धावणडेवणलंघणममकारावणउचरणं ॥२॥ फरिस अंतरिय कारणेऽवि उप्पन्ने। दिट्ठीविस दित्तम्गी पिसे व बजिजए गच्छे ॥३॥ बालाए बुइढाए ननुय दुहियाए अब भइणीए।नय कीरहनणुफरिसं गोयम : गचई०॥४॥ जन्थिन्धीकरफरिसं लिंगी अरिहावि सयमवि करिजा। तं निच्छयओ गोअम! जाणिज्जा मूलगुणभटुं ॥५॥ कीरइ बीअपएणं सुत्तमभणियं न जत्थऽविहिणा उ । उप्पन्ने पुण कजे दिक्खाआर्यकमाईए ॥६॥ मूलगुणेहि चिमुकं बहुगुणकलिपि लद्धिसंपणं। उत्तमकुलेऽवि जायं निदाडिजइ तयं गच्छं ॥ ७॥ जस्थ हिरण्णमुवण्णे धणधण्णे कंसर्तवफलिहाणं । सयणाण आसणाण य मुसिराणं व परिभोगो ॥८॥ जत्थ य वारडि आणं तत्तडिआणं च तह य परिभोगो । मोनुं सुकिलवस्थं का मेरा तस्थ गच्छम्मि ? ॥९॥ जत्थ हिरण्णसुवणं हत्थेण परागर्य(णग)पि नो ट्रिप्पे। कारणसमप्पियंपि हु निमिसखणद्धपि तं गच्छं ॥९०॥ जत्थ य अजालद्धं पडिगहमाई विविहमुवगरणं । परिमुंजइ साहहिं तं गोयम ! केरिसं गच्छं? ॥१॥ अददारहमेसज चलबुद्धिविषढणंपि पुद्धिकरं । अजालदं भुंजड़ का मेरा नत्थ गच्छंमि? ॥ २॥ एगो एगिस्थिए सदि, जत्थ चिट्विज गोयमा! । संजईए बिसेसेणं, नि म्मेरं तं तु भासिमो ॥३॥ ददचारितं मोतुं आहज मयहरं च गुणरासिं । इको अज्झाबेई तमणायारं ननं गच्छं ॥४॥ घणगजिययकुहिय विज दुग्गिागूढहिययाओ । अजा अवाका रियाओ इन्थीरजननं गच्छं ॥५॥ जत्थ समुदेसकाले साहणं मंडलीइ अजाओ। गोयम! ठवंति पाए इत्थीरजंन तं गच्छं ॥६॥ जत्थ मुणीण कसाए जगडिजतावि परकसाएहिं। निच्छति समुढेउ सुनिविट्ठी पंगुलो चेव ॥७॥ धम्मतरायभीए भीए संसारगम्भवसहीणं। न उईरति कसाए मुणी मुणीणं तयं गच्छ ॥८॥ कारणमकारणेणं अह कहवि मुणीण उद्दहिं कसाए। उदिएवि जन्य रंभन्नि खामिजइ जन्ध नं गच्छं ॥९॥ सीलतवदाणभावण चउविधम्मंतरायभयभीए। जत्थ बहू गीअत्थे गोयम ! गच्छं तयं भणियं ॥१००॥ जत्थ य गोयम ! पंचण्ह कहवि सूणाण इकमवि दुजा। गच्छं तिविहेणं बोसिरिय वइज अन्नत्य ॥१॥ सूणारंभपवत्तं गच्छं वेसुजलं नसेविजा। जं चारित्तगुणेहिं उज्जलं तं तु सेविजा ॥२॥ जत्थ य मुणिणो कयविकयाई कुर्वनि संजमुग्भट्ठा । तं गच्छं गुणसायर ! विसंच दूरं परिहरिजा ॥३॥ आरंभेसु पसत्ता सिद्धतपरम्मुहा विसयगिदा। मोनुं मुणिणो गोयम ! बसिज मज्झे सुविहियाणं ॥४॥ तम्हा सम्म निहालेउं. गच्छं सम्मग्गपट्ठियं । बसिजा पक्ख मासं वा, जावजीवं तु गोयम ! ॥५॥ जड्ढो वुड्ढो तहा सेहो, जत्थ रक्खे उवस्सयं । तरुणो वा जन्य एगागी, का मेरा तत्थ भासिमो?॥६॥जस्थ य एगा खुड्डी एगा तरुणी उ रक्सए यसहि। गोयम ! नत्थ विहारे का सुदी बंभचेरस्स? ॥७॥ जत्थ य उवस्सयाओ राई गच्छे तस्य गच्छस्स..॥८॥ जत्थ य एगा समणी एगो समणो य जंपए सोम्म! निबंधणावि सदित गर्छ गच्छगणहीणं ॥९॥ जत्थ जयारमयारं समणी जंपइ गिहत्यपचार । पचवं संसारे अजा परिक्खिवह अप्पाणं ॥११०॥ जत्थ य गिहत्यभासाइ भासए अजिया सुरुहाचि। तं गच्छ गुणसायर ! समणगुण विवजियं जाण ॥१॥ गणि गोयम ! जा उचियं, सेयं वत्थं विवजिउं। सेवए चित्तरूपाणि,न सा अज्जा वियाहिया ॥२॥ सीवर्ण तुन्नणं भरणं, मिहत्याणं तुजा करे। तिउबट्टणं वावि, * अप्पणो य परस्स य॥३॥ गच्छद सचिल्नसगई सयणीयं तलिय सचिब्बोय। उबइ सरीरं सिणाणमाइणि जा कुणा ॥४॥ गेहेसु गिहत्याणं गंतूण कहा कहेड काहााा तरुणाइज ९२७ गच्छाचारपकीर्णक, आना-54-१५ मुनि दीपरनसागर Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिवडते अणुजाणे सा उ पडिणीया // 5 // वुड्ढाणं तरुणाणं रसिं अज्जा कहेइ जा धम्मं / सा गणिणी गुणसायर ! पडिणीआ होइ गच्छस्स ॥६॥जत्य यसमणीणमसंखडाई गच्छमि नेव जायंति / तं गच्छं गच्छवरं मिहत्यभासाओ नो जस्थ // 7 // जो जत्तो वा जाओ नालो दिवसपक्खिों वावि / सच्छंदा समणीओ (म० उपसमणे) मयहरयाए न ठायंति // 8 // विंटलिआणि पउंजंति गिलाणसेहीण नेष तिप्पंति। अणगाढे आगाढं करेंति आगादि अणगादं // 9 // अजयणाए पकुव्वंति, पाहुणगाण अवच्छल / चित्तलयाणि सेवंति, चित्ता स्यहरणा तहा // 120 // गइविम्भमाइएहिं आगारविगार तह पगासिंति। जह बुड्ढाणवि मोहो समुईरह किं नु तरुणाणं ? // 1 // बहुसो उच्छोलिंती मुहनयणे हत्यपायकक्खाओ। यफेरी तरुणी य अंतरे सुयह / गोयम ! तं गच्छवरं वरनाणचरित्तआहारं // 3 // धोइंति कंठिआओ पोइंति तह य 2 दिति पोत्ताणि। गिहकजचिंतगीओ नहु अजा गोयमा ! ताओ॥४॥ खरघोडाइट्ठा वयंति ते वावि तस्य वचंति। वेसित्थीसंसग्गी उवस्सयाओ समी+मि // 5 // समायमुकजोगा धम्मकहा विगहपेसण गिहीणं / गिहिनिस्सर्ज वाहिति संथवं तह करतीओ // 6 // समा सीसपडिच्छीणं, बोअणासु अणालसा / गणिणी गुणसंपण्णा, पसत्थपुरिसाणुगा // 7 // संविग्गा भीयपरिसा य, उम्गदडा य कारणे। सज्झायझाणजुत्ता य, संगहे अ विसारया ॥८॥जत्युत्तरपडिउत्तरवडिआ अज्जा व साहुणा सदि / पलवंति सुरुवावी गोअम! किं तेण गच्छेण? // 9 // जत्थ य गच्छे गोअम ! उप्पणे कारणमि अज्जाओ। गणिणी पिडिठिआओ भासंती मउअसद्देणं // 130 // माऊए दुहिआए मुण्हाए अहव भइणिमाईणं / जत्य न अज्जा अक्खइ गुत्तिविभेयं तयं गच्छं // 1 // दसणयारं कुणई चरित्तनासं जणेइ मिच्छत्तं / दुण्हवि वम्गेणऽजा विहारभेअं करेमाणी // 2 // तैमूलं संसारं जणेइ अजावि गोयमा! नूर्ण / तम्हा धम्मुवएस मुत्तुं अन्नं न भासिजा // 3 // मासे 2 उजा अज्जा, एगसित्येण पारए। कलहे गिहत्थभासाहिं, सर्व तीए निरत्ययं // 4 // महानिसीहकप्पाओ, ववहाराओ तहेव य / साहुसाहुणिअट्ठाए, गच्छायारं समुद्धिअं॥५॥ पढंतु साहुणो एअं, असज्झायं विवजिउं। उत्तमं सुयनिस्संदै गुच्छायारं तु उत्तम // 6 // गच्छायारं सुणित्ताणं, पढित्ता भिक्खुमिक्सुणी। | कुणंतु जं जहा भणियं, इच्छंता हियमप्पणो // 137 // 20-846 // गच्छाचारपइण्णयं समत्तं 7 // अहं गणिविजापइण्णय वुच्छं बलाबलाविहिं नववलविहिमुत्तमं विउपसत्यं / जिणच