Book Title: Aagam 16 SOORYA PRAGYAPTI Moolam evam Vrutti
Author(s): Dipratnasagar, Deepratnasagar
Publisher: Deepratnasagar

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Page 11
________________ आगम (१६) “सूर्यप्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१], --------------------- प्राभृतप्राभृत [-1, ------------------- मूलं [१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१६], उपांग सूत्र - [9] "सूर्यप्रज्ञप्ति" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक दीप बहुजणो अन्नमन्नस्स एवमाइक्खइ एवं भासेइ एवं पन्नवेइ एवं परूवेइ-एवं खलु देवाणुप्पिया ! समणे भगवं महावीरे आइगरे जाव सबन्नू सबदरिसी आगासगएणं छत्तेणं जाव सुहंसुहेणं विहरमाणे इह आगए इह समागए इह समोसढे| इहेच मिहिलाए नयरीए वहिआ माणिभद्दे चेइए अहापडिरूवं उग्गहं ओगिण्हित्ता अरिहा जिणे केबली समणगणपरिबुडे संजमेणं तवसा अप्पाणं भावेमाणे विहरइ,तं महाफलं खलु देवाणुप्पिया!तहारूवाणं अरहताणं भगवंताणं नामगोयस्सवि सवणयाए किमंग पुण अभिगमणवंदणनमंसणपडिपुच्छणपजुवासणयाए , तं सेयं खलु एगस्सवि आरियस्स धम्मियस्स सुवयणस्स सवणयाए, किमंग पुण विउलस्स अहस्सगणयाए ?,तं गच्छामो णं देवाणुप्पिया! समणं भगवं महावीरं वंदामो नमसामो सक्कारेमो सम्माणेमो कल्लाणं मंगल देवयं चेइयं पजुवासेमो, एयं णो इहभवे परभवे य हियाए सुहाए खमाए निस्सेसाए आणुगामियत्ताए भविस्सइ, तएण मिहिलाएनयरीए वहवे उग्गा भोगा' इत्याद्यौपपातिकग्रन्थोक्त(सू.२७) सर्वमवसेयं यावत्समस्ताऽपि राजप्रभृतिका पर्षत् पर्युपासीना तिष्ठति । 'धम्मो कहिओ'त्ति तस्याः पर्षदः पुरतो निःशेपजनभाषानुयायिन्या अर्द्धमागधभाषया धर्म उपदिष्टः, स चैवम्-'अस्थि लोए अस्थि जीवा अस्थि अजीवा' इत्यादि, तथा-"जई जीवा वझंति मुच्चती जह य संकिलिस्संति । जह दुक्खाणं अंतं करिंति केई अपडिबद्धा ॥१॥ अट्टनियट्टियअचित्ता जह जीवा सागरं भवमुर्विति । जह य परिहीणकम्मा सिद्धा सिद्धालयमुर्विति ॥ २॥'तहा आइक्खइ'त्ति या जीवा बध्यन्ते मुच्यन्ते यथा च संक्लिश्यन्ते । यथा दुःखानामन्तं कुर्वन्ति केचिदप्रतिबद्धाः॥॥ मार्शनियत्रितचिता यथा जीवाः सागरं । भयं (कुखसागर) पयान्ति । यथा च परिहीमकर्माणः सिद्धाः सिकाळपमुपयान्ति ॥२॥ अनुक्रम ~ 10~

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