________________ श्रो कहा श्री ऋषभ चरित्रम् मुक्तावल्या षोडशाब्दावधि स्वामी, गेडावासी च विंशतिः, छद्मस्थ स्तुर्यचत्वारिं, शदन्दे केवले स्थितः // 18 // एवमशीतिवर्षाणि, सर्वायुः परिपाल्य च, प्रभवं स्वपदीकृत्य, निर्वाणपदमाप्तवान् // 19 // ॥यतः॥ भूतो न भावी न च कोऽपि नाऽत्र, जम्बूपमः शिष्टतलाभिरक्षः यस्तस्करांश्वापि शिवाध्वगन्तून् , चक्रेरिहन्ता जयताच्च जम्बूः // 20 // जीयाच्चिरं प्राभवप्रभुरेव, चौर्येण वित्तं बहुलं हरंच, रत्नत्रयं योऽखिल दुःखनाशि, नो चौर्यहारं विशदं समाप // 21 // ॥तत्र। वारस वरसेहिं गोअसु, सिद्धी वीराओ वीसहि मुहम्मो। चउसट्ठीए जंबू , वुच्छिन्ना तत्थ दशठाणा // 11 // // भावार्थः // नेत्रेन्दुवर्षेः प्रभु गौतमेऽत्र, स्वामी सुधर्मा किलविंशवर्षेः, सिद्धश्च जम्बूः सुखकादध्यवर्षेः, स्थानानि भिन्नानि दशेह तावत् // 12 // मण 1 परमोहि 2 पुलाए 3 आहार 4 खवग 5 उपसमे 6 कप्पे 7 // संजमतिअ 8 केवल 9 सिज्ज्ञणाय 10 जवूमि वुच्छिन्ना // 1 // व्याख्या-मनः परमाधिः पुलाक, आहारक क्षपक उपशमः कल्पः। संयमत्रिकं केवलं, सेधना च जम्बौ व्युच्छिन्नानि // 2 // // 384