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________________ श्रीकल्प प्रभुउपस गांधिकार मुक्तावल्यां 218 // तदैवारटितं श्रुत्वा, कौशिकस्य भयावहम् , नैमित्तिक स्ततः प्राह, क्षेमिलाख्यो जनान्प्रति // 199 // मरगान्तमहाकष्ट-मद्यास्माकम्भविष्यति, यास्यति किश्च नाशत्वं, प्रभावादस्य सन्मुनेः // 20 // एवमुत्तरतो नावं, प्रभो नौमज्जनादिकम् , सुदंष्टाख्यः सुरो वैरी, विनकर्तुं समुद्यतः // 201 // त्रिपृष्ठवासुदेवाख्ये, भवे यः प्रभुणा हतः, सिंहोऽस्य जीव 'एवासी, सुदंष्ठाभिधनिर्जरः // 202 // कम्बलशम्बलाख्या नौ, किश्च नागकुमारको, तत्कृतविनमागत्य रुरुन्धाते च सत्त्वरम् // 203 // उपाख्यानं तयो रित्यं, सुरयो भद्रभाविनोः, मथुरायां महाश्राद्धो, जिनदासोऽस्ति कश्चन // 204 // साधुदासी प्रिया तस्य, नाम्नैव गुणमन्दिरम्, आस्तां तौ दम्पती ख्यातौ, श्राद्धत्वेन तदा पुरि // 205 // प्रत्याख्यानङ्कदा तौ च, चक्रतुश्च चतुष्पदाम् , पश्चमत्रतमार्गेग, सर्वथा शुद्वमानसौ // 206 // आभीरी तत्र चैकाऽऽसीद्, गोरसं साऽपि नित्यशः, आनीय साधुदास्यै च, ददाति योग्यमूल्यतः // 207 // मिथः कालेन सत्प्रीति, स्तयो र्जाताति मुन्दरा, विवाहे तयका कापि, दम्पति तो निमन्त्रितौ // 208 // दम्पती प्रोचतु स्ताच, तत्रागन्तुं न शक्यते, विवाहे युज्यते किश्च, वस्तु तद् गृह्यतां सुखम् // 209 // वितानानि सुरम्याणि, वस्त्राणि भूषणानि च, धूपादि दिव्यसामग्री, गृहीत्वा जग्मिवान् सका // 210 // धनिनामिव चाभीर्याः, सामग्रया तयका तदा, महो वैवाहिको जज्ञे, श्लाघनीयो जनान्तरे // 211 // आभीरी तत्पतिश्चापि, मुन्मुदाते भृशं हृदि, तहत्तवस्तुभिदृष्टवा, विवाहोत्सवमुत्तमम् // 212 // // 21 //
SR No.600451
Book TitleKalpasutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanakvimalsuri
PublisherMuktivimal Jain Granthmala
Publication Year1968
Total Pages512
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript & agam_kalpsutra
File Size40 MB
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