________________ श्री कल्पमुतावल्यां चतुर्दश स्वनाधिकारः // 121 // तमोवंसि रवेरेष दर्शनाल्लोक चक्षुषः॥ दीप्यभामण्डलेनात्र भूषितोऽति भविष्यति // 7 // धजस्य दर्शनान्मन्ये बालकोऽयं धरातले॥ धर्मध्वजेन दिव्येन भूषिताङ्गो भविष्यति // 8 // सुवर्णाच्छ महाकुम्भ दर्शनाज्जिन नायकः॥ धर्मप्रासादसत्कूटे स्थास्यति खे यथा रविः // 9 // दर्शनात-विमलस्यात्र सत्पम सरसो जिनः॥ सुरसञ्चारि पदमेषु चरणौ स्थापयिष्यति // 10 // दर्शनादेष दिव्यात्मा सुरत्नाकरवारिधेः॥ कैवल्यदिव्यरत्नानां स्थानश्चारु भविष्यति // 11 // अतिरम्य विमानस्य दर्शनादेष भूतले // भविष्यति महापूज्यो विमानवासिनामपि // 12 // रत्नानाश्च महाराशे दर्शनाद्विश्वनायकः // माकारै दिव्यरत्नीय भूषितोऽयम्भविष्यति // 13 // दर्शनाच्च विधमाग्नेः पुत्रोऽयन्तव भूपते ! // भविष्यति धराभागे भव्यसौवर्णशोधकः॥१४॥ चतुर्दशानामपि महास्वप्नानां समुदित फलन्तु चतुर्दशरज्वात्मकलोकाग्रस्थायी भविष्यतीति // 15 // मूलपाठः-तं उराला णं देवाणुप्पिया ? तिसलाए खत्तियाणीए सुमिणा दिठा जाव आरुग्ग-तुट्ठि-दीहाउकल्लाणभंगल्लकारगाणं देवाणुप्पिया ? तिसलाए खतियाणीए सुमिणा दिवा // 8 // // व्याख्या // तस्मात्-उदाराः-हे देवानुप्रिय ? त्रिशलया क्षत्रियाण्या स्वप्ना दृष्टाः-यावत् मङ्गलकारकाःहे देवानुप्रिय ? त्रिशलया क्षत्रियाण्या स्वमा दृष्टाः // 8 // मूलपाठः–त एणं सिद्धत्थे राया तेसिं सुमिणलक्खणपाढगाणं अंतिए एवम सुच्चा निसम्म हठ-तुठे चित्तमाणं | // 121 //